भारत द्वारा प्रस्तुत दस्तावेज़ी विरासत और इसे 2011 में मेमोरी ऑफ़ द वर्ल्ड रजिस्टर में शामिल करने की सिफ़ारिश की गई।
यह पांडुलिपियाँ उनके ऐतिहासिक, बौद्धिक और सौंदर्य मूल्य के संदर्भ में महत्वपूर्ण हैं। तंत्र के अलावा, ग्रंथ में ज्योतिष और खगोल विज्ञान की विस्तृत चर्चाएँ शामिल हैं। इसमें स्वरोदय का अल्प ज्ञात और दुर्लभ ज्ञान भी है। आयुर्वेद, तंत्र में एक महत्वपूर्ण विषयगत स्थान ग्रहण करता है। इस आलेख में कई भारतीय दार्शनिक अवधारणाओं की गहराई से चर्चा की गई है। इसमें दिए गए ग्लोब के माप, आचार्य वसुबंधु द्वारा लिखित, चौथी शताब्दी के एक महत्वपूर्ण ज्ञानकोश और प्रसिद्ध ग्रंथ, अभिधर्मकोश, में दिए गए विवरणों से कहीं अधिक विस्तृत हैं। इस पांडुलिपि का महत्व सर्वोपरि है, यह देखते हुए कि मध्ययुगीन भारत में दुर्भाग्यपूर्ण अशांत स्थिति के कारण कई बौद्ध पांडुलिपियाँ खो गईं थीं।
लघुकालचक्रतंत्रराजटिका (विमलप्रभा) बौद्ध धर्म के कालचक्र तंत्र पर एक विस्तृत समीक्षा है। इस ग्रंथ के दो खंड हैं जिन्हें यूनेस्को द्वारा 2011 में इंटरनेशनल मेमोरी ऑफ़ द वर्ल्ड रजिस्टर में मान्यता दी गई है। इनमें से एक, इस ग्रंथ की सबसे पुरानी ज्ञात प्रति है, जो दसवीं शताब्दी के अंत में लिखी गई थी। दूसरी उसी ग्रंथ की आंशिक प्रति है, जो पंद्रहवीं शताब्दी में लिखी गई थी। द एशियाटिक सोसाइटी, कोलकाता, इन लिपियों की संरक्षक है।
ऐसा माना जाता है कि कालचक्र तंत्र को बुद्ध ने स्वयं दक्षिण भारत के धन्यकटक में समझाया था। कल्किन शासकों की पंक्ति में एक राजा मंजुश्रीयश ने तंत्र का एक संक्षिप्त संस्करण तैयार किया, जिसे लघुकालचक्रतंत्र कहा जाता है। उनके उत्तराधिकारी पुंडरीक ने नवीं शताब्दी में विमलप्रभा के रूप में ज्ञात संक्षिप्त संस्करण पर एक समीक्षा की रचना की।
एशियाटिक सोसाइटी संग्रह में विमलप्रभा के दो खंडों को संस्कृत भाषा में ताड़ के पत्तों पर हाथ से लिखा गया है। पहला वाला संपूर्ण ग्रंथ दसवीं शताब्दी की गौड़ी बंगाली लिपि में है, जबकि दूसरा, पंद्रहवीं शताब्दी की नेवारी लिपि में है। दसवीं शताब्दी की पांडुलिपि को बंगाल के राजा हरिवर्मन के तीसवें वर्ष (दसवीं शताब्दी के अंतिम भाग) में लिखा गया था, जो कि समीक्षा के एक सौ वर्षों के बाद रचित हुई। यह इसे विमलप्रभा की सबसे पुरानी उत्तरजीवित पांडुलिपि बनाता है।
तंत्र के अलावा, इस टीका में दर्शन, ज्योतिष और खगोल विज्ञान पर विस्तृत चर्चा की गई है। इसके पाँच भाग हैं जिन्हें पटल कहा जाता है। ये हैं लोकधातुपटल, आध्यात्मपटल, अभिषेकपटल, साधनापटल और ज्ञानपटल। इसमें स्वरोदय और आयुर्वेद पर भी चर्चा है। लोकधातुपटल में दिए गए ग्लोब के माप, आचार्य वसुबंधु के प्रसिद्ध चौथी शताब्दी ग्रंथ अभिधर्मकोश में दिए गए मापों की तुलना में अधिक विस्तृत है। एक प्रकार का तकनीकी तंत्र, अथवा यंत्र, के निर्माण के विभिन्न तकनीकें, और महल के निर्माण के लिए उपकरणों पर भी ग्रंथ में चर्चा की गई है। विमालप्रभा के श्लोक 4.119 में हठ-योग की अवधारणा की प्रारंभिक परिभाषा दी गई है। इसमें शैव धर्म की तांत्रिक परंपरा की समालोचना भी है।
भारत में रचित और लिखित इन पांडुलिपियों को बारहवीं और तेरहवीं शताब्दी में नेपाल और तिब्बत के पड़ोसी देशों में ले जाया गया था। उन्हें अठारहवीं सदी में विलियम जोंस और यूरोपीय विद्वानों जैसे उनके सहयोगियों द्वारा खोजा गया था, जिन्होंने उन्हें वापस लाकर, फ़ोर्ट विलियम कॉलेज लाइब्रेरी, कोलकाता में जमा किया। 1808 में पांडुलिपियों को द एशियाटिक सोसाइटी, कोलकाता में स्थानांतरित कर दिया गया था।
विमलप्रभा अभी भी भारत में ही नहीं बल्कि दुनिया के अन्य सभी हिस्सों में, जहाँ बौद्ध धर्म फैला हुआ है, मुख्यतः नेपाल और तिब्बत में, बौद्धों के जीवन का सजीव हिस्सा है। एशियाटिक सोसाइटी पांडुलिपि सबसे पुरानी और सबसे संपूर्ण समीक्षा है और संरक्षण के लायक एक राष्ट्रीय खज़ाना है। सुलेखन की दृष्टि से यह उत्कृष्ट कलात्मक विशेषज्ञता को प्रदर्शित करती है और एक आलेख के रूप में यह अपने आप में पूर्ण है।