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सूर्य मंदिर, कोणार्क

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बंगाल की खाड़ी के तट पर, सूर्य की किरणों से सराबोर, कोणार्क का सूर्य मंदिर सूर्य देवता के रथ का चिरस्मरणीय प्रतिरूप है। इसके चौबीस पहिए प्रतीकात्मक रूपंकानों से सुसज्जित हैं और इसे खींचने के लिए इसमें छः घोड़े भी बने हैं। 13वीं शताब्दी में निर्मित, यह भारत के सबसे प्रसिद्ध हिंदू पूजास्थलों में से एक है। 

उत्कृष्ट सार्वभौमिक मूल्य 
संक्षिप्त संकलन: 


भारतीय उपमहाद्वीप के पूर्वी तट पर स्थित कोणार्क का सूर्य मंदिर, मंदिर वास्तुकला और कला के उत्कृष्ट उदाहरणों में से एक है। इसका प्रमाण इस मंदिर की अवधारणा, पैमाने और अनुपात, और इसके मूर्तिकला अलंकरण की उदात्त कथा शक्ति में मिलता है। यह उड़ीसा के 13वीं शताब्दी के शासन का एक उत्कृष्ट प्रमाण है और देवत्व के साकार रूप का एक स्मारकीय उदाहरण है, और इस प्रकार यह सूर्य पंथ के प्रसार के इतिहास की एक अमूल्य कड़ी भी है। इस अर्थ में, यह प्रत्यक्ष और भौतिक रूप से हिंदू धर्म और तांत्रिक विश्वास प्रणालियों से संबंधित है। सूर्य मंदिर कलिंग की मंदिर वास्तुकला का चरम-बिंदु है, जिसके सभी पारिभाषिक तत्व पूर्ण और अत्युत्तम रूप में हैं। संकल्पना और प्रस्तुति दोनों में रचनात्मक प्रतिभा की एक उत्कृष्ट कृति, कोणार्क का सूर्य मंदिर सूर्य देव के रथ का प्रतीक है, जिसमें सात घोड़ों द्वारा खींचे जाने वाले बारह जोड़े पहिये हैं, जो स्वर्ग में उस रथ की यात्रा का आभास देते हैं। यह मंदिर समकालीन जीवन और गतिविधियों के परिष्कृत और प्रतीकात्मक चित्रण के साथ अलंकृत है। इसमें उत्तर और दक्षिण की ओर 24 नक्काशीदार पहिए हैं, जिनमें से प्रत्येक का व्यास लगभग 3 मीटर है, और इनपर ऋतुओं और महीनों के प्रतीकात्मक रूपांकन बने हैं। इस प्रकार इस मंदिर-रथ की संरचना ऐंद्रजालिक प्रतीत होती है। पहियों के मध्य स्थित मंदिर का आधार, शानदार शेरों, संगीतकारों, नर्तकों, और कामुक समूहों की नक्काशियों के साथ पूर्ण रूप से अलंकृत किया गया है। कई भारतीय मंदिरों की तरह, सूर्य मंदिर में कई विशिष्ट और सुव्यवस्थित स्थानिक खंड शामिल हैं। विमान (प्रमुख पूजास्थल) के ऊपर एक ऊँची मीनार बनी हुई थी, जिसके ऊपर एक शिखर था, जो 19वीं शताब्दी में तोड़ दिया गया था। पूर्व में स्थित, पिरामिड के आकार का जगमोहन (दर्शक मंडप), इस मंदिर का प्रमुख अवशेष है। पूर्व की ही ओर, और आगे, एक ऊँचे चबूतरे पर नटमंदिर (नृत्य मंडप) स्थित है, जिसकी छत गिर गई है। द्वारों और बुर्जों से युक्त, आयताकार दीवार के अंदर के क्षेत्र में विभिन्न सहायक संरचनाएँ अभी भी स्थित हैं। सूर्य मंदिर, 13वीं शताब्दी के उड़ीसा के हिंदू साम्राज्य में नरसिंह देव प्रथम (1238-1264 ईस्वी) के शासनकाल का एक असाधारण भौतिक साक्ष्य है। इसका पैमाना, परिशोधन और अवधारणा, गंग साम्राज्य की शक्ति और स्थिरता के साथ-साथ ऐतिहासिक वातावरण की मूल्य प्रणालियों का प्रतिनिधित्व करता है। इसकी सुंदर और दृष्टिगत रूप से उत्कृष्ट मूर्तियाँ, आज भी उस काल के लोगों के धार्मिक, राजनीतिक, सामाजिक, और गैर-धार्मिक जीवन की एक अमूल्य झलक प्रदान करती हैं। यह सूर्य मंदिर, सूर्य देव की उस अवधारणा और लोगों के बीच उनकी मान्यता से, प्रत्यक्ष तौर पर, संबंधित है, जिसकी वेदों और शास्त्रीय ग्रंथों में रूपरेखा दी गई है। सूर्य को अपने इतिहास, वंश, परिवार, पत्नियों और संतानों के साथ एक दिव्य प्राणी के रूप में व्यक्त किया जाता है, जो सृजन संबंधी मिथकों और किंवदंतियों में एक बहुत ही प्रमुख भूमिका निभाते हैं। इसके अलावा, यह अपने स्वयं के कलात्मक निर्माण की सभी किंवदंतियों के साथ संबंधित है। इन कथाओं में सबसे प्रमुख बारह वर्षों तक 1,200 कारीगरों का उपयोग करते हुए इसके निर्माण, और इस परियोजना हेतु इसके प्रमुख निर्माणकर्ता, बिशु महाराणा की गहरी प्रतिबद्धता के विषय में कथा है, जिसमें बाद में इस परियोजना कार्य में उनके पुत्र (जो इस अवधि के दौरान पैदा हुआ था) की भी कथा शामिल है। कोणार्क का स्थान और नाम उपरोक्त सभी संबंधों का महत्वपूर्ण प्रमाण है, और इसकी वास्तुशिल्पीय प्रस्तुति हिंदू धर्म और तांत्रिक प्रथाओं की जीवित परंपराओं से संबंधित है।  


मानक(i):एक विशिष्ट कलात्मक उपलब्धि के रूप में, इस मंदिर में उन पौराणिक कथाओं को उत्कीर्ण किया गया है जो सभी जगह कला की संपूर्ण कृतियों से संबंधित हैं: इसके निर्माणकार्य में 12,000 श्रमिकों को 12 वर्षों तक काम पर लगाया गया था। वास्तुकार, बिशु महाराणा ने इस मंदिर के निर्माणकार्य हेतु अपने जन्मस्थान को छोड़ दिया था, और जब वह अपने घर से दूर था तब उसका पुत्र पैदा हुआ था। बाद में यही पुत्र अपने पिता के इस कार्य के साथ संलग्न हो गया, और उसने अपने पिता के अपूर्ण कार्य, मंदिर के शीर्ष के निर्माण के बाद, अपने आप को जलाकर मार डाला था।
मानक(iii): कोणार्क उड़ीसा के 13वीं शताब्दी के साम्राज्य का एक उत्कृष्ट प्रमाण है।
मानक(vi): हिंदू मान्यताओं से प्रत्यक्ष और भौतिक रूप से संबंधित कोणार्क सूर्य मंदिर, उस सूर्य पंथ के प्रसार के इतिहास की अमूल्य कड़ी है, जिसका आरंभ 8वीं शताब्दी के दौरान कश्मीर में हुआ था और जो अंततः पूर्वी भारत के तटों तक फैल गया था। 


समग्रता : 


सूर्य मंदिर, कोणार्क, के उत्कृष्ट सार्वभौमिक मूल्य का प्रतिनिधित्व करने वाली सभी आवश्यक विशेषताएँ नामांकित स्थल की सीमाओं के अंदर पाई जाती हैं। स्थल की चिह्नित और संरक्षित सीमा के भीतर, इसकी उपस्थित संरचनाएँ और मूर्तियाँ, और यथा स्थान संरक्षित विस्थापित अवशेष, वास्तुशिल्प रूप, प्रारूप और मूर्तिकला की नक्काशी के सर्वोत्कृष्ट गुणों का प्रतिनिधित्व करते हैं। इसके अतिरिक्त, संरक्षित क्षेत्र में वे सभी क्षेत्र भी शामिल हैं जहाँ ऐसे अज्ञात पुरातात्विक अवशेषों के मिलने की संभावना है जो संभवतः स्थल के सार्वभौमिक मूल्य की ज्ञप्ति में वृद्धि कर सकते हैं। स्थल की अखंडता और संपूर्णता के लिए ज्ञात और संभावित खतरों में विकास का दबाव शामिल हैं: पर्यावरणीय दबाव; चक्रवात और मानवीय गतिविधियाँ, लवण युक्त वायु और रेत विस्फोटन, वाहनों का आवागमन तथा सुक्ष्मजैविक उत्पादन, पर्यटन दबाव के कारण वनों का विनाश; पर्यटकों की संख्या में 40% की बढ़ोत्तरी; प्राकृतिक आपदाएँ; बाढ़ और चक्रवात; तथा स्थानीय जनसंख्या वृद्धि। स्थल के बेहतर प्रबंधन हेतु इसकी आसपास की भूमि के अधिग्रहण द्वारा, स्थल की सीमाओं और बफ़र ज़ोन के विस्तार की सलाह दी गई है। विगत दिनों में स्थल के तत्वों की संरचनात्मक अखंडता पर मानसून और संबंधित भू-क्षरण के प्रभाव पर चिंता व्यक्त की गई है। इसके अतिरिक्त, विगत समय में लवण युक्त वायु के कारण, संरचना को सहारा देने वाली धातु की कीलों के क्षरण के परिणामस्वरूप भी इस मंदिर को क्षति पहुँची है।

 
प्रमाणिकता   


सूर्य मंदिर के स्वरूप और प्रारूप की प्रामाणिकता, बचे हुए भवनों, परिसर में उनकी व्यवस्था, संरचनाओं, और मूर्तियों के वास्तुकला से अभिन्न संबंध द्वारा पूरी तरह से कायम है। अपनी संरचनाओं, मूर्तियों, अलंकरण और कथाओं सहित, सूर्य मंदिर की विभिन्न विशेषताओं को उनके मूल रूपों और सामग्री में कायम रखा गया है। बंगाल की खाड़ी के तट पर इसके विन्यास और स्थल को उनके मूल रूप में पूरी तरह से बनाए रखा गया है। बताई गई विशेषताओं के संरक्षण के संबंध में सूर्य मंदिर, कोणार्क, इस संरचना से संबंधित गहन भाव और अनुभूति को प्रकट करता है, जो आज इससे संबंधित जीवित सांस्कृतिक परंपराओं, उदहारणतः चंद्रभंगा उत्सव, में देखी जा सकती है।  


संरक्षण और प्रबंधन हेतु आवश्यकताएँ 


सूर्य मंदिर, कोणार्क, प्राचीन स्मारक और पुरातात्विक स्थल और अवशेष (एएमएएसआर) अधिनियम (1958) और इसके नियमों (1959) द्वारा भारत के राष्ट्रीय ढाँचे (नेशनल फ़्रेमवर्क) के तहत संरक्षित है। अन्य प्रासंगिक सुरक्षात्मक कानूनों में वन अधिनियम, कोणार्क विकास अधिनियम, और अधिसूचित परिषद क्षेत्र अधिनियम शामिल हैं। एएमएएसआर अधिनियम के तहत, स्थल की सीमा से 100 मीटर और इसके आगे 200 मीटर की दूरी तक, स्थल के सार्वभौमिक मूल्य पर प्रतिकूल प्रभाव डालने वाली विकास या अन्य ऐसी कोई भी गतिविधि को रोकने के लिए, क्रमशः निषिद्ध और विनियमित क्षेत्र हैं। सभी संरक्षण कार्यक्रम भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा अपने राष्ट्रीय, क्षेत्रीय, और स्थानीय प्रतिनिधियों के माध्यम से संचालित किए जाते हैं। प्रबंधन से संबंधित पांच योजनाएँ हैं: सुरक्षा, पर्यावरण, मुख्य नियोजन (मास्टर प्लानिंग), पर्यावरण विकास, और पर्यटन। संरचनात्मक स्थिरता का आंकलन करने के लिए विश्व धरोहर निधि प्राप्त हुई है। समय के साथ संपत्ति के उत्कृष्ट सार्वभौमिक मूल्य को बनाए रखने के लिए मुख्य जगमोहन संरचना और इसकी मूर्तियों के संरचनात्मक और भौतिक संरक्षण को जारी रखने की आवश्यकता होगी; स्थानीय और केंद्रीय अधिकारियों के एक मजबूत कार्यात्मक एकीकरण की स्थापना; विकास के लिए विनियमित क्षेत्र में बड़े भूदृश्य विन्यास का समायोजन; विकास के दबाव, पर्यावरणीय दबाव, पर्यटन दबाव, प्राकृतिक आपदाओं, और स्थानीय जनसंख्या वृद्धि से संबंधित खतरों से भी निपटने की आवश्यकता होगी।  

बंगाल की खाड़ी के निकट स्थित, सूर्य मंदिर, कोणार्क, कलिंग वास्तुकला के सबसे उत्कृष्ट उदाहरणों में से एक है। ‘कोणार्क’ शब्द का अनुवाद ‘कोने का सूर्य’ के रूप में किया जा सकता है, जो दो शब्दों - ‘कोण’ (कोना) और ‘अर्क’(सूर्य) - से मिलकर बना है। इसका यह नाम इसके पूरी के प्रसिद्ध जगन्नाथ मंदिर के उत्तर-पूर्व कोने में स्थित होने के कारण पड़ा है। कोणार्क को ब्लैक पैगोडा भी कहा जाता है, जिसका प्रथम उल्लेख मद्रास के फ़ोर्ट सेंट जॉर्ज के गवर्नर, सर स्ट्रेनशम मास्टर, की डायरी में मिलता है। इसका उपयोग अधिकांश नाविकों और यात्रियों द्वारा एक प्रमुख थलचिन्ह के रूप में किया जाता था। सूर्य देव को समर्पित, कोणार्क का निर्माण गंग राजवंश के शासक नरसिंह देव प्रथम द्वारा 13वीं शताब्दी में किया गया था। इसकी स्थापत्य प्रतिभा और इसके कश्मीर से लेकर भारत के पूर्वी हिस्सों तक सूर्य देवता की पूजा के प्रसार के प्रमाण होने के कारण, वर्ष 1984 में इसको यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल की सूची में शामिल किया गया था।
कोणार्क मंदिर का निर्माण खोंडालाइट नामक पत्थर से किया गया है, जो इस क्षेत्र में बहुतायत मात्रा में उपलब्ध है। पूरी संरचना का निर्माण किसी भी बाध्यकारी सामग्री, जैसे मोर्टार या सीमेंट, के उपयोग के बिना किया गया था। यह भारत की उन पहली संरचनाओं में से एक था जिसमें लोहे की शहतीर (बीम) और गुज्झी (डॉवेल) का उपयोग किया था। ऐसा कहा जाता है कि, मंदिर की आधार संरचना और शीर्ष संरचना में क्रमशः दस टन और तिरपन टन चुंबक के विद्युत चुंबकीय बल का उपयोग करके इस मंदिर की स्थिरता को बनाए रखा गया था।
यह मंदिर सात घोड़ों के साथ चौबीस विशाल नक्काशीदार पहियों के लिए प्रसिद्ध है, जो सूर्य देव के रथ का समुद्र की ओर बढ़ने का आभास देते हैं। इन पहियों में से प्रत्येक में आठ मध्यवर्ती पतले आरों सहित, आठ मोटे आरे हैं। पहियों के आरे धूपघड़ी के रूप में कार्य करते हैं। इनके अलावा, यह मंदिर अपनी जटिल नक्काशीदार मूर्तियों के लिए भी प्रसिद्ध है।
मंदिर की लंबी वक्रीय संरचना (विमान), जो इसकी मुख्य संरचना थी, वर्तमान में मौजूद नहीं है और ऐसा कहा जाता है कि यदि यह आज बची होती तो कोणार्क मंदिर पुरी के जगन्नाथ मंदिर से भी ऊँचा होता। संरचना के ध्वंस के होने के कारणों पर आज भी बहुत बहस की जाती है और इतिहासकारों ने इस मुद्दे पर विभिन्न अवधारणाएँ प्रस्तुत की हैं। कुछ का मानना है कि कालापहाड़ के आक्रमण के दौरान संरचना की भारी शीर्ष पट्टी को तोड़ दिया गया था जिससे असंतुलन पैदा हो गया था, और इसके परिणामस्वरूप विमान गिरकर टूट गया था। इस अवधारणा का खंडन किया जाता है क्योंकि कोणार्क पर उसके आक्रमण का कोई पुख्ता प्रमाण मौजूद नहीं है। एक अन्य अवधारणा यह है कि इस विमान के कुंभ पत्थर या चुंबक पत्थर को कुछ जहाज चालकों द्वारा हटा दिया गया था, जिसके परिणामस्वरूप पुजारियों ने सूर्य भगवान की मूर्ति को पुरी में निलाद्री महोत्सव मंदिर में प्रतिस्थापित कर दिया था। इससे मंदिर की पवित्रता भंग हुई जिसके परिणामस्वरूप विमान टूट गया था।
इन अवधारणाओं के बावजूद, 1679 और 1809 के बीच के रेखाचित्रों से स्पष्ट है कि मुख्य संरचना का विनाश एक क्रमिक प्रक्रिया थी। 1848 में आया तूफ़ान इस संरचना पर अंतिम आघात था।
आज की वर्तमान स्थिति में यह मंदिर ओडिशा राज्य की प्रतिष्ठा का प्रतीक है और भारत में सबसे अधिक देखे जाने वाले पर्यटक आकर्षणों में से एक है।