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पश्चिमी घाट

पश्चिमी घाट की पर्वत शृंखला हिमालय पर्वत शृंखला के पहाड़ों की अपेक्षा पुरानी है और यह अनूठी जैवभौतिक-पारिस्थितिक प्रक्रियाओं से युक्त अति महत्वपूर्ण भू-आकृतिक विशिष्टताओं को दर्शाती है। स्थल के उच्च पर्वतीय वन-पारिस्थितिक तंत्र भारतीय मानसून के मौसम के स्वरूप पर प्रभाव डालते हैं। यह स्थल, इस क्षेत्र की उष्णकटिबंधीय जलवायु को नियंत्रित करते हुए, इस ग्रह की मानसून प्रणाली का बेहतरीन उदाहरण प्रस्तुत करता है। यहाँ जैव विविधता और स्थान-विशिष्ट जैविकता असाधारण रूप से अधिक मात्रा में पाई जाती है और इसे दुनिया में जैव विविधता के आठ ‘तप्ततम केंद्रों’ में से एक के रूप में जाना जाता है। इस स्थल के वनों में हर स्थान के गैर-भूमध्यरेखीय उष्णकटिबंधीय सदाबहार वनों के कुछ बेहतरीन नमूने पाए जाते हैं और यहाँ वनस्पती, जीव, पक्षी, उभयचर, सरीसृप और मछली की वैश्विक स्तर पर विलुप्तप्राय कम-से-कम 325 प्रजातियाँ पाई जाती हैं।

उत्कृष्ट सार्वभौमिक मूल्य  


संक्षिप्त संश्लेषण


पश्चिमी घाट में उच्च भूगर्भीय, सांस्कृतिक और सौंदर्यपरक मूल्य के क्षेत्र होने के अतिरिक्त इसे अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर जैव विविधता के संरक्षण में वैश्विक दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण क्षेत्र के रूप में पहचान प्राप्त है। भारत के पश्चिमी तट के समानांतर फैली, इस घाट के पहाड़ों की लगभग 30-50 किमी लंबी शृंखला, केरल, तमिलनाडु, कर्नाटक, गोवा, महाराष्ट्र और गुजरात राज्यों में स्थित है। ये पहाड़ 1,600 किमी की लंबी भूमि पर लगभग 140,000 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में फैले हुए हैं, जो, लगभग 11° उत्तर में, केवल 30 किमी के पालघाट दर्रे पर टूटे हुए हैं।
विशाल हिमालयी पर्वतमाला से पुराने, भारत के पश्चिमी घाट की भू - आकृतिक विशेषता वैश्विक तौर पर अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है। पश्चिमी घाट का जो उत्कृष्ट सार्वभौमिक मूल्य है, वह पूरे भारतीय प्रायद्वीप में व्यापक जैवभौतिक और पारिस्थितिक प्रक्रियाओं पर पड़ने वाले क्षेत्र के अनोखे और आकर्षक प्रभाव से प्रकट होता है। पश्चिमी घाट के ये पहाड़ और उनके विशिष्ट पर्वतीय वन पारिस्थितिक तंत्र, भारतीय मानसून के मौसम के स्वरूप को प्रभावित करते हुए, क्षेत्र की उष्णकटिबंधीय जलवायु की गर्मी को कम करते हैं और इस तरह इस ग्रह पर बेहतरीन उष्णकटिबंधीय मानसून प्रणाली का उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। यह घाट ग्रीष्मकाल के समाप्त होने के दौरान दक्षिण-पश्चिम की ओर से बहने वाली वर्षाजल से युक्त मानसूनी हवाओं को प्रतिबाधित करते हुए एक मुख्य अवरोधक के रूप में कार्य करता है।
जैव विविधता और स्थान-विशिष्ट जैविकता का असाधारण रूप से अधिक मात्रा में अस्तित्व में होना, पश्चिमी घाट की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता है। इस पर्वत शृंखला को दुनिया में श्रीलंका के साथ-साथ जैव विविधता के आठ ‘तप्ततम केंद्रों’ में से एक के रूप में जाना जाता है। पश्चिमी घाट के वनों में दुनिया के गैर-भूमध्यरेखीय उष्णकटिबंधीय सदाबहार वनों के कुछ बेहतरीन नमूने पाए जाते हैं। पश्चिमी घाट में कम-से-कम 325 वैश्विक स्तर पर विलुप्तप्राय प्रजातियाँ (आईयूसीएन रेड डेटा सूची) पाई जाती हैं। पश्चिमी घाट की वैश्विक स्तर पर लुप्तप्राय वनस्पती और जीव प्रजातियों में पौधों की 229 प्रजातियाँ, स्तनधारियों की 31 प्रजातियाँ, पक्षियों की 15 प्रजातियाँ, उभयचरों की 43 प्रजातियाँ, सरीसृपों की 5 प्रजातियाँ और मछली की 1 प्रजाति शामिल है। पश्चिमी घाट में वैश्विक स्तर पर विलुप्तप्राय कुल 325 प्रजातियों में से 129 को असुरक्षित, 145 को लुप्तप्राय और 51 को गंभीर रूप से लुप्तप्राय के रूप में वर्गीकृत किया गया है।
मानदंड (ix): पश्चिमी घाट का क्षेत्र, प्रथम रूप से प्रारंभिक जुरासिक काल में गोंडवानालैंड के प्राचीन भूभाग के खंडन से संबंधित प्रजातीकरण को, दूसरा, एक पृथक भूभाग के रूप में भारत के निर्माण को, और तीसरा, भारतीय भूभाग के यूरेशिया के साथ टकराए जाने को प्रदर्शित करता है। यहाँ पाया जाने वाला उच्च प्रजातीकरण, अनुकूल मौसम के स्वरूप और घाट में मौजूद खड़ी ढलान के योग का परिणाम है। पश्चिमी घाट "दो प्रमुख जैविक सम्प्रदायों के बीच का विकासमूलक पारिस्थितिक क्षेत्र" है, जो प्रजाति के फैलाव और पृथक्करण से सम्बंधित "अफ़्रीका से बाहर" और "एशिया से बाहर" अवधारणाओं को प्रदर्शित करता है।


मानदंड (x): एक महाद्वीपीय क्षेत्र के हिसाब से, पश्चिमी घाट में पौधों और पशुओं की विविधता और स्थान-विशिष्ट जैविकता की मात्रा असाधारण है। विशेष रूप से, घाट में पाए गए स्थान-विशिष्ट पौधों की कुछ 4-5,000 प्रजातियों की संख्या बहुत अधिक है : पश्चिमी घाट में पाए जाने वाले पेड़ों की लगभग 650 प्रजातियों में से 352 (54%) प्रजातियाँ स्थान-विशिष्ट प्रजातियाँ हैं। यहाँ पशुओं की भी असाधारण विविधता पाई जाती है, जिसमें उभयचर (कुल 179 प्रजातियाँ, 65% स्थान-विशिष्ट), सरीसृप (157 प्रजातियाँ, 62% स्थान-विशिष्ट) और मछली (219 प्रजातियाँ, 53% स्थान-विशिष्ट) शामिल हैं। किसी समय में बेहतर रूप से जाने जाने वाली, अकशेरुकी विविधता (जिसमें लगभग 80% स्थान-विशिष्ट टाइगर-बीटल शामिल हैं) की संख्या भी अधिक होने की संभावना है। इस स्थल पर अनेक सर्वोत्कृष्ट स्तनधारी पाए जाते हैं जिनमें वैश्विक स्तर पर विलुप्तप्राय ऐसी जैविक प्रजातियों की सबसे बड़ी संख्या का समावेश हैं जो बड़े और विविध पारिस्थितिक क्षेत्रों का उपयोग करती हैं और उनपर महत्वपूर्ण प्रभाव डालती हैं, जैसे कि एशियाई हाथी, गौर, और बाघ। इस क्षेत्र की अनोखी लुप्तप्राय प्रजातियों में शेर की पूँछ वाला मैकाक, नीलगिरि तहर, और नीलगिरि लंगूर शामिल हैं। यह क्षेत्र कई प्रकार के लुप्तप्राय प्राकृतिक आवासों के संरक्षण की दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण है, जैसे कि ऐसे चारागाह जहाँ वनफूल एक विशिष्ट मौसम में बड़े पैमाने पर पुष्पित होते हैं, शोला वन, और मिरिस्टिका दलदल।


समग्रता


इस स्थल का निर्माण 39 घटकों से हुआ है, जिन्हें 7 उप-समूहों में वर्गीकृत किया गया है। जैवविविधता के दृष्टिकोण से यह क्रमबद्ध पद्धति की प्रणाली तर्कसंगत है क्योंकि सभी 39 घटक एक ही जैवभौगोलिक प्रदेश से संबंधित हैं और पहले के निकटवर्ती वन के पृथक अवशेषों के रूप में अस्तित्व में हैं। पश्चिमी घाट की जैवविविधता को दर्शाने के लिए केवल एक विशाल संरक्षित क्षेत्र की पहचान करने के बजाय एक क्रमबद्ध पद्धति को अपनाना इसलिए तर्कसंगत है क्येंकि यहाँ स्थान-विशिष्ट जैविकता बड़ी मात्रा में पाई जाती हैं; यानी पहाड़ों की चोटियों से लेकर 1,600 किमी दक्षिण तक प्रजातियों की बनावट में अत्यधिक भिन्नता है और किसी भी एक विशिष्ट स्थल से इन पहाड़ों की समृद्ध जैवविविधता को नहीं समझा जा सकता है। इस जटिल क्रमबद्ध नामांकन की व्यवस्था विभिन्न स्रोतों से प्राप्त हुए वैज्ञानिक विश्लेषण के आधार पर एक परामर्शक प्रक्रिया के ज़रिए विकसित हुई है। 7 उपसमूहों में वर्गीकृत किए गए ये 39 घटक इस क्षेत्र के उत्कृष्ट सार्वभौमिक मूल्य को दर्शाते हैं, और इस विशाल भूदृश्य में जैव विविधता और स्थान-विशिष्ट प्रजातियों का समावेशन करते हैं।

सुरक्षा तथा प्रबंधन संबंधी आवश्यकताएँ


इस क्रमबद्ध क्षेत्र के 39 घटक बाघ संरक्षित क्षेत्रों, राष्ट्रीय उद्यानों, वन्यजीव अभयारण्यों और आरक्षित वनों जैसी अनेक सुरक्षा व्यवस्थाओं के अंतर्गत आते हैं। ये सभी घटक राज्य के स्वामित्व में हैं और कानूनों के तहत कड़ी सुरक्षा के अधीन हैं, जिनमें वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम, 1972, भारतीय वन अधिनियम, 1927, और वन संरक्षण अधिनियम (1980) शामिल हैं। इन कानूनों के ज़रिए ये घटक वन विभाग और मुख्य वन्यजीव वार्डन के नियंत्रण में हैं, जो कानूनी सुरक्षा प्रदान करते हैं। इस क्षेत्र का जो 40% भाग औपचारिक संरक्षित क्षेत्र प्रणाली के बाहर है, उसमें से अधिकतर ऐसे आरक्षित वनों के तहत है जो कानूनन संरक्षित और प्रभावशाली ढंग से प्रबंधित हैं। वन संरक्षण अधिनियम (1980) उन्हें अवसंरचना के विकास से बचाने के लिए विनियामक रूपरेखा प्रदान करता है।

 

4 राज्यों में 39 घटकों के प्रबंधन को एकीकृत करना एक चुनौती है, जिसके लिए त्रिस्तरीय शासन तंत्र आवश्यक है जो इन 39 घटकों को प्रभावी समन्वयन और निरीक्षण प्रदान करने के लिए केंद्र, राज्य और स्थल के स्तर पर कार्य करेगा। समन्वयन और एकीकरण की समस्याओं से निपटने के लिए पश्चिमी घाट प्राकृतिक धरोहर प्रबंधन समिति (डब्लूजीएनएचएमसी) पर्यावरण एवं वन मंत्रालय (MoEF), भारत सरकार के तत्त्वावधान में पहले से ही कार्यरत है। 7 उपसमूहों के सभी 39 घटक राज्य/केंद्र सरकारों द्वारा उचित रूप से अनुमोदित किए गए विशिष्ट प्रबंधन/कार्य योजनाओं के तहत प्रबंधित किए गए हैं। स्थानीय समुदायों की आजीविका से संबंधित मामलों को वन अधिकार अधिनियम, 2006, द्वारा विनियमित किया गया है और शासन में उनकी सहभागिता को ग्रामीण पारिस्थितिक-विकास समिति (वीईसी) के ज़रिए सुनिश्चित किया गया है।
 

 

पश्चिमी घाट एक पर्वत शृंखला है जो भारतीय प्रायद्वीप के पश्चिमी तट के समानांतर फैली हुई है। इसका विस्तार गुजरात राज्य से लेकर महाराष्ट्र, गोवा, कर्नाटक और तमिलनाडु राज्यों से होते हुए केरल तक है। यह पर्वत शृंखला दक्खन के पठार को, अरब सागर के किनारे स्थित, कोंकण और मालाबार नाम से जाने जाने वाले दो सँकरे तटीय मैदानों से अलग करती है। लगभग 140000 वर्ग किमी के क्षेत्र में फैले हुए ये घाट, दुनिया में जैव विविधता के आठ “तप्ततम केंद्रों” में से एक हैं, जहाँ वनस्पती और जीवों की कई प्रजातियाँ पाई जाती हैं, जिनमें से कई प्रजातियाँ स्थान-विशिष्ट प्रजातियाँ हैं। इन्हें यूनेस्को द्वारा वर्ष 2012 में विश्व धरोहर स्थल के रूप में घोषित किया गया था।


भूविज्ञान की दृष्टि से बात करें, तो पश्चिमी घाट को हिमालय से भी पुराना माना जाता है। इस घाट का निर्माण उस कालखंड में हुआ था जब प्रायद्वीपीय भारत, गोंडवानालैंड नामक प्राचीन विशाल भूभाग से अलग होकर, जल के प्रवाह के कारण धीरे-धीरे बहते हुए यूरेशियाई भूभाग की ओर बढ़ने लगा था। अपनी इस यात्रा के दौरान यह वर्तमान रेयूनियों द्वीपसमूह (हिंद महासागर में) के क्षेत्र के ऊपर से गुजरा, जो एक सक्रिय ज्वालामुखी क्षेत्र था। गर्मी के कारण प्रायद्वीपीय भूभाग पर बाजालतिक मैग्मा ऊपर उठा जिसके परिणामस्वरूप पृथ्वी के पृष्ठभाग के चापाकार में फैलने से इसका उभरा हुआ रूप प्रकट हुआ। इसके कारण पश्चिमी घाट का जन्म हुआ और भारतीय प्लेट पूर्व दिशा में झुक गई।


घाटों के निर्माण से कई रोचक परिणाम सामने आए हैं। पृथ्वी के पृष्ठभाग का गुंबद के आकार में उभरने के कारण इन घाटों की बुनियादी चट्टानें बहुत प्राचीन हैं। ये चट्टानें मुख्यतः आग्नेय और कायांतरित प्रकार की हैं और इनमें खनिजों की अधिकता है। दक्षिण पठार का पूर्व दिशा में झुकाव होने के कारण यह घाट मुख्य प्रायद्वीपीय नदियों के लिए एक पनढाल क्षेत्र बन गया है। ये घाट दक्षिण-पश्चिम की ओर से बहने वाली वर्षाजल से युक्त मानसूनी हवाओं को भी प्रतिबाधित करते हैं जिसके कारण इस क्षेत्र में पर्याप्त मात्रा में बारिश होती है। भारत के प्रायद्वीपीय राज्यों में निवास कर रहे लगभग 20 करोड़ लोग अपनी अधिकांश जलापूर्ति के लिए इन पर घाटों पर निर्भर करते हैं।

 

इस घाट की ख्याति यहाँ पाई जाने वाली विभिन्न प्रकार की वनस्पती और जीवों के कारण है, जो उच्च स्तर के प्रजातीकरण और स्थान-विशिष्ट जैविकता को दर्शाते हैं। प्रजातीकरण भूगर्भीय इतिहास, अनुकूल जलवायवीय परिस्थितियों और घाट के उच्च झुकाव का परिणाम है। ऐसे कई चारागाह जहाँ वनफूल एक विशिष्ट मौसम में बड़े पैमाने पर पुष्पित होते हैं, शोला या छोटे कद के उष्णकटिबंधीय पर्वतीय वन और मिरिस्टिका वृक्षों से युक्त दलदल भी यहाँ भरे पड़े हैं। घाट में मौजूद उष्णकटिबंधीय सदाबहार और पर्वतीय वन अनाज, फलों और फूलों की विभिन्न प्रजातियों के लिए आधार हैं। इस क्षेत्र की मिट्टी ने सैकड़ों वर्षों से यहाँ निवास कर रहे लोगों की आजीविका को बनाए रखने में सहायता की है। इस गौरवशाली जैवविविधता और विलुप्तप्राय प्राकृतिक आवासों का संरक्षण 39 सुरक्षा व्यवस्थाओं के ज़रिए किया जाता है जिनमें राष्ट्रीय उद्यान, वन्यजीव अभयारण्य, बाघ संरक्षण क्षेत्र, और आरक्षित वन शामिल हैं।

 


चूँकि इस घाट में पहाड़ियाँ, चोटियाँ, घने जंगल, हरी-भर घाटियाँ, नदियाँ और झरने हैं, इसलिए ये स्थल सैर-सपाटे और मनोरंजन के केंद्र बने गए हैं। शहरवासी गर्मी और बेचैनी से राहत पाने के लिए यहाँ दौड़े चले आते हैं। हालाँकि, पर्यटन और अन्य मानवीय हस्तक्षेपों के पारिस्थितिकी पर पड़ने वाले प्रभाव को कम करने के लिए राज्य और स्थानीय सरकारों, क्षेत्र के नागरिक समाज संगठनों और स्थानीय सामुदायिक समूहों के बीच एक मज़बूत साझेदारी विकसित की जा रही है।