नालंदा महाविहार उत्तर-पूर्वी भारत के बिहार राज्य में स्थित है। यह अपने आप में तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व से लेकर 13वीं शताब्दी इसवी तक के एक मठ और विद्यालयी संस्थान को सहेजे हुए है। इसमें स्तूप, मंदिर, विहार (आवासीय और शैक्षिक भवन) तथा महत्वपूर्ण कलाकृतियां हैं, जो गच (प्लास्टर), पत्थर और धातु से निर्मित हैं। नालंदा भारतीय उपमहाद्वीप का सबसे प्राचीन विश्वविद्यालय है। यह 800 वर्षों की निर्बाध अवधि में ज्ञान के प्रसार में लगा रहा। इसका ऐतिहासिक विकास बौद्ध के धर्म के रूप में विकसित होने तथा मठ और विद्यालयी परंपराओं के उत्कर्ष की गवाही देता है।
नालंदा महाविहार पुरातत्व स्थल भारत के उत्तर-पूर्वी राज्य बिहार में स्थित है। 23 हेक्टेयर के क्षेत्र में फैला नालंदा महाविहार पुरातात्विक स्थल लगभग तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व से लेकर 13वीं शताब्दी इसवी तक के पुरावशेषों को प्रस्तुत करता है। 13वीं शताब्दी में नालंदा के विनाश और परित्यक्त होने से पहले यह भारतीय उपमहाद्वीप का 5वीं इसवी से लेकर 13वीं इसवी तक का सबसे पुराना और अपने समय का समय बड़ा और दीर्घकालिक मठ सह विद्यालयी संस्थान रहा है। इसमें स्तूप, चैत्य स्थल, विहार, मंदिर, कई धार्मिक संरचनाएं और महत्वपूर्ण कला कृतियां हैं, जो गच (प्लास्टर), पत्थर और धातु से निर्मित हैं। भवनों की अवस्थिति (लेआउट) दक्षिण से उत्तर तक एक अक्ष के रूप में अपनी स्थिति को मजबूत करते हुए स्तूप-चैत्य के चारों ओर के सामूहिकरण से लेकर औपचारिक रैखिक संरेखण तक के बदलाव को प्रमाणित करती है। इस स्थल का ऐतिहासिक विकास बौद्ध के धर्म के रूप में विकसित होने तथा मठ और विद्यालयी परंपराओं के उत्कर्ष की गवाही देता है।
मापदंड (iv): नालंदा महाविहार पुरातात्विक स्थल की स्थापित और विकसित योजना, स्थापत्य, कलात्मक सिद्धांतों को बाद में भारतीय उपमहाद्वीप, दक्षिण एशिया और दक्षिण पूर्व एशिया के कई समान संस्थानों द्वारा अपनाया गया।
नालंदा के मूल रूप में विहारों की वास्तुकला का मानकीकरण तथा मंदिर जैसे चैत्य स्थलों का विकास भौतिक संरचना के विस्तार की दिशा में निरंतर आदान-प्रदान और संरक्षण को प्रदर्शित करता है। गांधार काल का चतुर्भुज आकार का स्वतंत्र रूप से स्थित विहार एक पूर्ण आवासीय सह-शैक्षणिक मूल अवसंरचना के रूप में विकसित हुआ, जिसका अनुकरण दक्षिण एशिया के मठ-नगरों जैसे कि पहाड़पुर, विक्रमशिला, ओदंतपुरी और जगदला द्वारा किया गया। नालंदा एक पंचकोर प्रारूप वाले चैत्य के उद्भव और उसके मुख्यधारा में जुड़ने को प्रदर्शित करता है। बदलती धार्मिक प्रथाओं के प्रतिबिंब और प्रतिनिधित्व के रूप में, इस नए रूप ने पारंपरिक रूप से प्रमुख स्तूप को बदल दिया और इस क्षेत्र के बौद्ध मंदिरों को प्रभावित किया।
मापदंड (vi): नालंदा महाविहार, उच्च शिक्षा के केंद्र के रूप में प्रारंभिक मध्ययुगीन भारत के प्रारंभिक उच्च शिक्षा संस्थान में संघरामा (मठ संस्थान) के विकास की शीर्ष बिंदु को दर्शाता है। इसके श्रेष्ठता आधारित दृष्टिकोण के बारे में कहा जाता है कि इसमें भारतीय उपमहाद्वीप में सभी समसामयिक ज्ञान के स्रोतों तथा सीखने की विधियों को अपनाया गया था।
नालंदा आज भी एक सबसे पुराना और दीर्घकालिक असाधारण संस्था-निर्माता बना हुआ है। शिक्षाशास्त्र, प्रशासन, नियोजन और वास्तुकला की इसकी पद्धति के आधार पर ही बाद में महाविहारों की स्थापना की गई। नालंदा ने नव नालंदा महाविहार, नालंदा विश्वविद्यालय जैसे क्षेत्र में और पूरे एशिया में कई अन्य संस्थानों में आधुनिक विश्वविद्यालय व्यवस्थाओं को प्रेरित करता आ रहा है।
नालंदा महाविहार के पुरातात्विक अवशेषों को व्यवस्थित रूप से खोजा गया है तथा एक ही समय में संरक्षित किया गया हैं। ये इस स्थल के सबसे महत्वपूर्ण भाग हैं, जो नालंदा के नियोजन, वास्तुकला और कलात्मक परंपरा में विकास को दर्शाते करते हैं। जैसा कि मौजूद पुरावशेषों से पता चलता है, यह स्थल एक विद्वान के जीवन को स्पष्ट करते हुए मठ सह विद्यालयी संस्थान के रूप में स्थापित हुआ है।
जबकि मूल महाविहार एक बहुत बड़ा परिसर था, और आज नालंदा में मौजूद सभी अवशेष 23 हेक्टेयर क्षेत्र में फैले हुए हैं, जिनमें 11 विहार और 14 मंदिर हैं और साथ ही बहुत छोटे-छोटे मंदिर और पवित्र संरचनाएं भी हैं, जो उत्तर-दक्षिण अक्ष के साथ अक्षीय योजना और अवस्थिति जैसी इसकी विशेषताओं को दर्शाते हैं। साथ ही इसकी वास्तुकला अभिव्यक्ति और मौजूदा निर्माण सामग्री तथा नियोजित सजावटी अलंकरण समृद्धता के प्रतीक हैं। विहारों और चैत्यों के संरचनात्मक अवशेष यथावत संरक्षित हैं। इनके निर्माण की परतें संबंधित प्रारूपों के विकास को दर्शाती हैं। इस क्षेत्र में स्थित इन संरचनाओं की अवस्थिति नालंदा के लिए अद्वितीय रूप से नियोजित व्यवस्था को दर्शाती है। यह स्थल चल और अचल कलाकृतियों और कलात्मक अलंकरणों की निधियों को भी बरकरार रखे हुए है, जो बौद्ध धर्म में बदलाओं को दर्शाते हुए मूर्ति अमान्यता विकास को दर्शाता है।
इस स्थल के समग्र संरक्षित क्षेत्र सहित पुरातात्विक अवशेष भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) द्वारा अनुरक्षित हैं। इसका मान्य क्षेत्र में कृषि भूमि तथा मौसमी जल निकाय हैं, जिसके कारण इसे कोई खतरा नहीं है। यह स्थल और अधिकृत क्षेत्र राष्ट्र-स्तरीय कानून, प्राचीन स्मारक और पुरातत्व स्थल और अवशेष अधिनियम (एएमएएसआर), 1958 और (संशोधन और मान्यता, 2010) द्वारा संरक्षित हैं तथा इसकी देखरेख राष्ट्रीय स्तर पर राष्ट्रीय स्मारक प्राधिकरण तथा स्थानीय स्तर पर जिला आयुक्त का कार्यालय, बिहार सरकार द्वारा की जाती है।
सात शताब्दियों से अधिक समय तक उपसतही स्थिति में रहने वाले नालंदा महाविहार के पुरातात्विक अवशेषों को व्यवस्थित रूप से 20वीं सदी के प्रारंभ में खोदा गया तथा इसे भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा यथावत संरक्षित किया गया। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा इसके विहारों और मंदिरों के संरक्षण और संवर्धन के लिए अपनाई गई पद्धति ने प्रतिवर्ती और हानिकर परतों को पर्याप्त रूप से ध्यान रखने के माध्यम से इसके ऐतिहासिक वस्त्र के संरक्षण को सुनिश्चित करता है तथा आवश्यकतानुसार सहयोग करता है। सभी संरक्षण कार्यों और मध्यवर्तनों को छायाचित्रों और रेखाचित्रों के माध्यम से प्रलेखित किया गया है तथा एएसआई की वार्षिक रिपोर्ट में प्रकाशित किया गया है।
भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के पहले किए गए सभी उत्खनन कार्यों के साथ-साथ इस स्थल के किसी अन्य पक्ष द्वारा की गई खुदाई की पहचान पर विशेष ध्यान देते हुए उचित रूप से प्रलेखन द्वारा समर्थित ऐतिहासिक शोध को जारी रखना चाहिए। इतना ही नहीं, ईंट द्वारा मरम्मत पर विशेष ध्यान देते हुए पूरे स्थल में किए गए सभी मरम्मत कार्यों की पहचान तथा प्रामाणिक पुरातात्विक वस्त्र तथा की गई मरम्मत था नए निर्माण और हानिकर परतों की विभिन्नता के प्रलेखन को ध्यान में रखते हुए शोध कार्य करना चाहिए, जिनमें से कुछ असंगत स्थलों पर चुनिंदा ईंटों पर तिथि शिलालेखों द्वारा चिह्नित हैं।
नालंदा के परतों का निर्माण, मूर्ति विद्या और रिकॉर्ड इन अवशेषों के सबसे प्राचीन और आज के समय में मौजूद होने के साक्ष्य हैं। इन उत्खनित अवशेषों में स्पष्ट स्थानिक संगठन इसकी व्यवस्थित योजना को प्रदर्शित करता है। चैत्यों का मूर्ति स्वरूप रूप और विहारों का चतुर्भुज रूप, ऐसी आधारभूत संरचनाओं से परिपूर्ण हैं, जो बौद्धों तथा आवासी-सह-विद्यालयी सुविधाओं के पवित्र वास्तुकला को विकसित करने में नालंदा के योगदान को प्रमाणित करते हैं। इसमें अपनाई गई प्लास्टर, पत्थर और धातु कला आइकॉनोग्राफी विशेषताओं को बरकरार रखते हुए, बौद्ध धर्म तंत्र तथा महायान से वज्रयान में बदलाव को यथार्थ रूप से दर्शाती है।
एक संस्था (13वीं सदी) के रूप में कार्यात्मक रूप से जारी रहते हुए, एक संस्था निर्माता के रूप में नालंदा की भूमिका, 8वीं सदी के बाद में निर्मित महाविहारों द्वारा इसकी व्यवस्था प्रणाली को अपनाए जाने द्वारा प्रमाणित है। नालंदा की शिक्षाशास्त्र व्यवस्था को अच्छी तरह से तिब्बती मठों में संरक्षित किया गया है, जहां वाद-विवाद और द्वंद्ववाद के माध्यम से संभाषण आयोजित किए जाते हैं। इसके अलावा, एशिया भर के विश्वविद्यालय नालंदा को आदर्श उत्कृष्ट शैक्षिक संस्थान की संज्ञा देते हैं।
इस स्थल का स्वामित्व, संरक्षण, अनुरक्षण और प्रबंधन राष्ट्रीय स्तर के कई कानूनों के माध्यम से भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा किया जाता है। ये नियम हैं- प्राचीन स्मारक और स्थल अवशेष अधिनियम 1958 (संशोधन और मान्यता, 2010)। इसके संरक्षण और प्रबंधन से संबंधित निर्णय भारतीय स्मारक, पुरातत्व संरक्षण और अवशेष संरक्षण नीति द्वारा शासित हैं, जो भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा प्रख्यापित हैं। इस स्थल का संरक्षण और प्रबंधन एक परिप्रेक्ष्य योजना और एक वार्षिक संरक्षण कार्यक्रम द्वारा आयोजित किया जाता है। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण की एक आंतरिक समिति इसके संरक्षण की स्थिति की निगरानी करती है और आवश्यकता अनुसार विश्लेषण करती है। स्थल की खुदाई से प्राप्त अवशेषों के लिए एक संरक्षण योजना बनाई जानी चाहिए, ताकि इसके उत्कृष्ट सार्वभौमिक मूल्य और प्रामाणिकता की सुरक्षा के लिए काम किया जा सके। इसके अलावा, दर्शक की योजनाओं के लिए दर्शक प्रबंधन एवं विवेचन के लिए मजबूत दृष्टिकोण विकसित करना चाहिए। साथ ही जोखिम के समय तत्परता के लिए योजना को भी पूरा किया जाना चाहिए।
अधिकृत क्षेत्र का प्रबंधन राष्ट्रीय स्मारक प्राधिकरण और प्राचीन स्मारक और पुरातत्व स्थल और अवशेष अधिनियम (एएमएएसआर), 1958, (संशोधन और मान्यता, 2010) के साथ राष्ट्रीय स्मारक प्राधिकरण (एनएमए), नई दिल्ली और बिहार राज्य सरकार के परामर्श से भी किया जाता है। अधिकृत क्षेत्र में आगंतुकों के अनुभव को और पुख्ता तथा बढ़ाने के लिए भी सुविधाएं हैं।
नालंदा के एकीकृत मास्टर प्लान को राष्ट्रीय और क्षेत्रीय कानूनों को ध्यान में रखते हुए बिहार के राज्य सरकार द्वारा तैयार और कार्यान्वित किया जाना चाहिए, ताकि इस क्षेत्र में किसी भी ऐसे विकास पर ध्यान रखा जा सके, जिससे इस उत्कृष्ट सार्वभौमिक स्थल को प्रभावित होने का खतरा हो। और संपत्ति के आसपास के क्षेत्र में किसी भी विकास योजनाओं के लिए एक विरासत प्रभाव मूल्यांकन (एचआईए) का संचालन किया जाना चाहिए, जिसकी अगुवाई और निरीक्षण भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, राज्य सरकार के सक्षम अधिकारियों और बिहार के नालंदा जिले के कलेक्ट्रेट कार्यालय द्वारा किया जाना चाहिए।
बिहार राज्य में स्थित नालंदा महाविहार एक प्राचीन विश्वविद्यालय था। यह स्थल तीसरी सदी ईसा पूर्व से लेकर 13वीं शताब्दी इसवी तक लगातार शिक्षा के केंद्र के रूप में लोगों का आवास स्थल रहा है। भक्ति, मस्ती और आवासीय संरचनाओं के अवशेष लगभग 23 हेक्टेयर के क्षेत्र में फैले हुए हैं। 5वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में गुप्त शासक, कुमारगुप्त द्वारा स्थापित इस शिक्षा संस्थान के समृद्धि काल में, इसमें हजारों शिक्षार्थी और शिक्षक रहते थे। इस स्थल को 2016 में यूनेस्को द्वारा विश्व विरासत स्थल के रूप में मान्यता दी गई।
महाविहार शिक्षण और सीखने के लिए केंद्रों में विकसित होने वाले बौद्ध भिक्षुओं के सदा भ्रमण न करते रहने की परंपरा का निर्वाह न करते हुए वर्षा काल में एक जगह पर रुकने को दर्शाता है, जो गुरुकुल की उस प्राचीन ब्राह्मणवादी व्यवस्था के बिल्कुल विपरीत था, जहां छात्र शिक्षक के घर पर शिक्षा प्राप्त करता था। हिंदू राजा द्वारा स्थापित एक बौद्ध विश्वविद्यालय, नालंदा में विश्व के विभिन्न धर्मों और क्षेत्रों के छात्र शिक्षा ग्रहण करते थे। क सख्त मौखिक परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद उन्हें प्रवेश दिया जाता था, तथा उन्हें कई तरह के विषय पढ़ाए जाते थे।
चीनी विद्वान ह्वेन सांग (जुआनज़ैंग) और अन्य विद्वान जो उसके बाद नालंदा में आए, उन्होंने इस विश्वविद्यालय का वर्णन किया है, जो पढ़ाए जाने वाले विषयों और विश्वविद्यालय प्रशासन के साथ ही छात्रों की दैनिक गतिविधि पर प्रकाश डालता है। वे अपने साथ बड़ी संख्या में पांडुलिपियों और पुस्तकों को ले गए, जो नालंदा में एक अच्छी तरह से व्यवस्थित पुस्तकालय के अस्तित्व का प्रमाण है।
इस विश्वविद्यालय को राजाओं द्वारा इसे दिए गए लगभग 100 गांवों से प्राप्त होने वाले राजस्व से तथा भारतीय और विदेशी दोनों द्वारा किए गए संरक्षक दान से सहयोग मिलता था। इस तरह के मौद्रिक संरक्षण से विश्वविद्यालय द्वारा अपने अधिकांश छात्रों को मुफ्त शिक्षा और निवास की व्यवस्था की जाती थी।
इस स्थल पर पुरातात्विक अवशेषों का विशाल भंडार है, जिसमें प्रसिद्ध नालंदा स्तूप भी शामिल है, जो ऊंचाई पर ईंटों से बनी एक लंबी संरचना है, जो क्रमित रूप से सात गुना बढ़ गई थी। यहां बने अन्य मठ एवं संरचनाएं, अन्य जगहों पर बनी संरचनाओं के विपरीत अच्छी तरह से एक रैखिक अक्षीय पैटर्न में बने थे। पत्थर, प्लास्टर और धातुओं से बने और यहां मौजूद ये पुरावशेष भारतीय कारीगरों के कौशल को दर्शाते हैं।
लगभग 800 वर्षों तक लगातार शिक्षा देने के बाद, 13वीं इसवी में मुहम्मद बिन बख्तियार खिलजी के हमले में नालंदा नष्ट हो गया। यहां विनाश का दोतरफा प्रभाव पड़ा था। एक ओर, इससे भारत में बौद्ध धर्म में तेजी से गिरावट आई, जो पहले से ही हिंदू धर्म की आत्मसात शक्ति के हमले का सामना कर रहा था। और दूसरी ओर, इससे तिब्बत, चीन, जापान और दक्षिण-पूर्व एशिया के अन्य क्षेत्रों में बौद्ध धर्म को फैलाने में मदद मिली। जो भिक्षु हमले में बच गए, वे अपनी पुस्तकों और परंपराओं को अपने साथ लेकर इन विदेशी भूमि पर भाग गए। तथ्य यह है कि, भारतीय राजाओं और व्यापारियों ने पहले से ही इन देशों के साथ जो संबंध स्थापित किए थे, उससे उन्हें वहां आसानी से शरण मिल गई।
इस प्रकार नालंदा में महाविहार के अवशेष, बौद्ध धर्म से संबंधित विकास के महत्वपूर्ण साक्ष्य प्रदान करते हैं, जैसे कि महायान और वज्रयान विद्यालयों का उदय। इस संस्था के महान अध्यापक और विद्वान दुनिया भर में बौद्ध धर्म और इसके कार्यों के प्रचारक थे।
© रजनीश राज
रचनाकार : रजनीश राज
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