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महाबोधि मंदिर परिसर, बोधगया

महाबोधि मंदिर परिसर भगवान बुद्ध के जीवन, विशेष रूप से ज्ञान की प्राप्ति, से संबंधित चार पवित्र स्थानों में से एक है। पहला मंदिर सम्राट अशोक द्वारा तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व में बनाया गया था, और वर्तमान मंदिर ५वीं या ६वीं शताब्दी का है। यह सबसे पुराने बौद्ध मंदिरों में से एक है, जो पूरी तरह से ईंट द्वारा निर्मित है, और भारत में गुप्तकालीन अवधि से खड़ा है। 


उत्कृष्ट वैश्विक महत्ता 


संक्षिप्त संकलन 


महाबोधि मंदिर परिसर, बोधगया, बिहार की राजधानी पटना से दक्षिण में ११५ किमी. और पूर्वी भारत में गया के जिला मुख्यालय से १६ किमी. दूर स्थित है। यह भगवान बुद्ध के जीवन, विशेष रूप से ज्ञान की प्राप्ति, से संबंधित चार पवित्र स्थानों में से एक है। परिसर में ५वीं-६वीं शताब्दी के महानतम अवशेष सम्मिलित हैं, जो भारतीय उप-महाद्वीप के इस प्राचीन काल के हैं। परिसर का कुल क्षेत्रफल ४.८६०० हेक्टेयर है। 

महाबोधि मंदिर परिसर तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व में सम्राट अशोक द्वारा बनाया गया पहला मंदिर है, और वर्तमान मंदिर ५वीं-६वीं शताब्दी का है। यह सबसे प्राचीन बौद्ध मंदिरों में से एक है, जो पूरी तरह से ईंट द्वारा निर्मित है, और भारत में गुप्तकालीन अवधि से खड़ा है, और माना जाता है कि सदियों से ईंट वास्तुकला के विकास में इसका महत्वपूर्ण प्रभाव रहा है।

बोधगया में वर्तमान महाबोधि मंदिर परिसर में ५० मीटर ऊँचा भव्य मंदिर, वज्रासन, पवित्र बोधि वृक्ष और बुद्ध के ज्ञानोदय के अन्य छह पवित्र स्थान सम्मिलित हैं, जो कई प्राचीन मन्नत स्तूपों से घिरे हुए हैं, और ये सब उचित रूप से संरक्षित और आंतरिक, मध्य तथा बाहरी वृत्ताकार चौहद्दी द्वारा सुरक्षित हैं। सातवाँ पवित्र स्थान, कमल कुंड, दक्षिण में परिसर के ठीक बाहर स्थित है। दोनों, मंदिर परिसर और कमल कुंड, दो या तीन स्तरों पर परिसंचारी परिधि से घिरे हैं और समष्टि का क्षेत्र आसपास की भूमि के स्तर से ५ मीटर नीचे है।

यह भगवान बुद्ध द्वारा यहाँ बिताए गए समय, साथ ही साथ विकसित होने वाली उपासना से जुड़े वृत्तांतों के संबंध में पुरातात्विक गौरव की एक अनूठी संपत्ति है, विशेष रूप से तीसरी शताब्दी के बाद, जब सम्राट अशोक ने पहला मंदिर, कटघरे और स्मारक स्तंभ बनवाया था और उसके बाद सदियों तक विदेशी राजाओं द्वारा अभयारण्यों और मठों के साथ प्राचीन शहर का विकास किया गया था।

मुख्य मंदिर की दीवार की औसत ऊँचाई ११ मीटर है और इसे भारतीय मंदिर वास्तुकला की शास्त्रीय शैली में बनाया गया है। इसमें पूर्व और उत्तर की ओर से प्रवेश द्वार हैं और निचली आधारिक संरचना है जिसमें मधुचूष और कुछ कलहंस डिज़ाइन के साथ सजावट की गई है। इसके ऊपर बुद्ध की छवियों वाली ताखों की एक श्रृंखला है। इसके बाद सजावटी गढ़ाई और चैत्य ताखें हैं, और फिर मंदिर का वक्रतापूर्ण शिखर या मीनार है जिसके ऊपर अमालक और कलश (भारतीय मंदिरों की परंपरा में वास्तुशिल्प विशेषताएँ) हैं।

मंदिर की दीवारों के चारों कोनों पर छोटे-छोटे मंदिरों में बुद्ध की चार मूर्तियाँ हैं। इनमें प्रत्येक मंदिर के ऊपर एक छोटा टावर निर्मित है। मंदिर का द्वार पूर्व की ओर है और पूर्व में एक छोटा सा अग्रभाग है जिसमें दोनों ओर बुद्ध की प्रतिमाएँ सहित ताखें हैं। एक प्रवेश द्वार एक छोटे से सभा गृह की ओर जाता है, जिसके आगे गर्भगृह है, जिसमें बैठे हुए बुद्ध की सोने से बनी प्रतिमा (५ फ़ीट से अधिक ऊँची) है, जिसमें पृथ्वी को उनकी ज्ञान प्राप्ति के साक्षी के रूप में दिखाया गया है। गर्भगृह के ऊपर मुख्य सभा गृह है जिसमें बुद्ध की मूर्ति है, जहाँ वरिष्ठ भिक्षु ध्यान करने के लिए एकत्रित होते हैं।

पूर्व से, सीढ़ियाँ लंबे केंद्रीय मार्ग से मुख्य मंदिर और आसपास के क्षेत्र में जाती हैं। इस मार्ग के किनारे मन्नत स्तूपों और मंदिरों के साथ-साथ, वे महत्वपूर्ण स्थान हैं जो बुद्ध की आत्मज्ञान प्राप्ति के तुरंत बाद की घटनाओं से जुड़े हैं।

सभी पवित्र स्थानों में से सबसे अधिक महत्वपूर्ण स्थान विशाल बोधि वृक्ष है, जो मुख्य मंदिर से पश्चिम की ओर स्थित है और यह माना जाता है कि यह उस समय के मूल बोधि वृक्ष का ही वंशज है जिसके नीचे बुद्ध ने पहला सप्ताह व्यतीत किया था और जहाँ उन्हें ज्ञान प्राप्ति हुई थी। केंद्रीय मार्ग की उत्तर दिशा में, एक उठे हुए क्षेत्र पर, अनिमेषलोचन चैत्य (प्रार्थना हॉल) है जहाँ माना जाता है कि बुद्ध ने अपना दूसरा सप्ताह व्यतीत किया था। बुद्ध अपने तीसरे सप्ताह में रत्नचक्रम (ज्यूल्ड एम्ब्यूलेट्री) नामक स्थान पर अठारह कदम आगे और पीछे चले थे, और यह स्थान मुख्य मंदिर की उत्तरी दीवार के निकट है। चबूतरे पर उकेरे गए उठे हुए पत्थर के कमल उनके कदमों को चिन्हित करते हैं।

जिस स्थान पर उन्होंने चौथा सप्ताह व्यतीत किया वह है रत्नघर चैत्य है, जो परिसर दीवार के निकट पूर्वोत्तर में स्थित है। केंद्रीय मार्ग पर पूर्वी प्रवेश द्वार की सीढि़यों के ठीक बाद एक स्तंभ है जहाँ अजपाल निग्रोध वृक्ष स्थित है, जिसके नीचे बुद्ध ने ब्राह्मणों के प्रश्नों के उत्तर देते हुए पाँचवे सप्ताह के दौरान ध्यान किया था। उन्होंने छठा सप्ताह परिसर के दक्षिण में स्थित कमल कुंड के निकट बिताया था, और सातवाँ सप्ताह राज्यतन वृक्ष के नीचे व्यतीत किया था जहाँ अब एक वृक्ष स्थित है।

बोधि वृक्ष के बगल में मंदिर से जुड़ा हुआ एक चबूतरा है जो पॉलिश किए गए बलुआ पत्थर से बना है जिसे वज्रासन (हीरक सिंहासन) के नाम से जाना जाता है, जिसे मूल रूप से सम्राट अशोक द्वारा बुद्ध के बैठने और ध्यान करने के स्थान को चिह्नित करने के लिए स्थापित किया गया था। एक समय में बोधि वृक्ष के नीचे यह स्थान बलुआ पत्थर के कटघरे से घिरा हुआ था, लेकिन अब कटघरे के कुछ मूल खंभे ही वहाँ बचे हैं; इनमें तराशे हुए मानव चेहरे, जानवर और सजावटी विवरण हैं। मुख्य मंदिर की तरफ़ से जाने वाले केंद्रीय मार्ग में आगे दक्षिण की ओर एक छोटा मंदिर है जिसमें बुद्ध की एक खड़ी प्रतिमा है और काले पत्थर पर खुदे हुए बुद्ध के पैरों के निशान हैं, जो तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व के हैं जब सम्राट अशोक ने बौद्ध धर्म को राज्य का आधिकारिक धर्म घोषित किया था और पूरे राज्य में इस तरह के हजारों पदचिह्न स्थापित किए थे।

मंदिर का प्रवेश द्वार, जो केंद्रीय मार्ग पर है, मूल रूप से इसी सम्राट द्वारा बनाया गया था, लेकिन बाद में इसका पुनर्निर्माण किया गया। मुख्य मंदिर की ओर जाने वाले मार्ग पर आगे एक भवन है जिसमें बुद्ध और बोधिसत्वों की कई मूर्तियाँ हैं। इसके दूसरी ओर एक हिंदू महंत का स्मारक है जो १५वीं और १६वीं शताब्दी के दौरान इस स्थान पर रहते थे। मार्ग के दक्षिण में राजाओं, राजकुमारों, महान लोगों और आम लोगों द्वारा निर्मित मन्नत स्तूपों का एक समूह है। वे सबसे सरल से लेकर आलीशान तक के विभिन्न आकार और माप के हैं।

दार्शनिक और सांस्कृतिक इतिहास के संदर्भ में, महाबोधि मंदिर परिसर की प्रासंगिकता महान है क्योंकि यह भगवान बुद्ध के जीवन की सबसे महत्वपूर्ण घटना को उजागर करता है, वह क्षण जब राजकुमार सिद्धार्थ ने आत्मज्ञान प्राप्त किया और बुद्ध बन गए, एक ऐसी घटना जिसने मानव विचार और विश्वास को आकार दिया। अब दुनिया में बौद्ध तीर्थयात्रा के सबसे पवित्र स्थान के रूप में यह संपत्ति प्रतिष्ठित है और मानव जाति के इतिहास में, इसे बौद्ध धर्म की जन्मभूमि माना जाता है।

मानदंड (i): 
5 वीं-6 वीं शताब्दियों का भव्य 50 मीटर ऊँचा महाबोधि मंदिर भारतीय उपमहाद्वीप में मौजूद सबसे पुराने मंदिर निर्माणों में से एक है। यह उस युग में पूरी तरह से विकसित ईंट मंदिरों के निर्माण में भारतीय लोगों की वास्तुशिल्पीय प्रतिभा के कुछ प्रस्तुतिकरणों में से एक है।

 


मानदंड (ii): 
महाबोधि मंदिर, भारत में प्रारंभिक ईंट संरचनाओं के कुछ जीवित उदाहरणों में से एक, का सदियों से वास्तुकला के विकास में महत्वपूर्ण प्रभाव रहा है।
 मानदंड (iii): 
महाबोधि मंदिर का स्थल बुद्ध के जीवन और उसके बाद की पूजा से जुड़ी घटनाओं के लिए असाधारण प्रमाण प्रदान करता है, खासकर जब से सम्राट अशोक ने पहला मंदिर, कटघरा और स्मारक स्तंभ बनवाए थे। 

मानदंड (iv): 
वर्तमान मंदिर सबसे पुरानी और सबसे प्रभावशाली संरचनाओं में से एक है, जो पूर्व गुप्त काल में पूरी तरह ईंट से निर्मित किया गया था। पत्थर से बने नक्काशीदार कटघरे, पत्थर में मूर्तिकला संबंधी नक्काशी के उत्कृष्ट प्रारंभिक उदाहरण हैं।

मानदंड (vi): 
बोधगया में महाबोधि मंदिर परिसर का भगवान बुद्ध के जीवन से सीधा जुड़ाव है, क्योंकि यह वह स्थान है जहाँ उन्होंने सर्वोच्च और सम्पूर्ण अंतर्दृष्टि प्राप्त की थी।


अखंडता  


इस अंकित संपत्ति में अपने उत्कृष्ट सार्वभौमिक मूल्य को व्यक्त करने के लिए आवश्यक सभी विशेषताएँ हैं। ऐतिहासिक साक्ष्यों और ग्रंथों से पता चलता है कि वर्तमान मंदिर परिसर के हिस्से अलग-अलग काल के हैं। मुख्य मंदिर, वज्रासन, बुद्ध के ज्ञानोदय का आसन सम्राट अशोक द्वारा संरक्षित किया गया था और बोधि वृक्ष जिसके नीचे भगवान बुद्ध को आत्मज्ञान प्राप्त हुआ था, उस स्थल की महिमा, पतन और पुनरुद्धार 19वीं शताब्दी के मध्य से लेकर अब तक अपरिवर्तित और पूर्ण है।

मंदिर का प्रमुख भाग 5वीं-6वीं ईस्वी का अभिलिखित है लेकिन उसके बाद उसमें कई मरम्मत और जीर्णोद्धार हुए। एक लंबे परित्यक्ता को झेलने के बाद (13वीं-18वीं शताब्दी ईस्वी के बीच) इसका 19वीं शताब्दी ईस्वी में बड़े पैमाने पर पुनःनिर्माण किया गया और बाकी काम 20वीं शताब्दी ईस्वी के दूसरे हिस्से में किया गया। फिर भी, इस मंदिर को ईंट वास्तुकला में भारत का, उस अवधि का सबसे पुराना और अच्छी तरह से संरक्षित किया हुआ उदाहरण माना जाता है। भले ही इस मंदिर को उपेक्षा का कष्ट भोगना पड़ा हो और इसकी मरम्मत विभिन्न अवधि में की गयी हो, फिर भी उसने अपनी आधारभूत वैशिष्ट्यता को अक्षुण्ण रखा है।

प्रामाणिकता

 

गौतम बुद्ध ने इस विशेष स्थान पर ज्ञान प्राप्त किया था, इस आस्था की पुष्टि परंपरा द्वारा की गई है और अब इसे बोधगया कहा जाता है, और दुनिया के लिए इसका मूल्य सर्वोच्च है। यह सम्राट अशोक के समय से प्रलेखित है, जिन्होंने 260 ईसा पूर्व में पहला मंदिर बनाया था, जब वह बोधि वृक्ष की पूजा करने के लिए इस स्थान पर आए थे, और जो आज भी इस घटना के गवाह के रूप में, संपत्ति की विशेषताओं (वज्रासन, आदि) के साथ, खड़ा है। बोधगया में बुद्ध की ज्ञानप्राप्ति की इस घटना का थेरवाद और महायान, दोनों ही परंपराओं के बौद्ध ग्रंथों में स्पष्ट उल्लेख है। दुनिया भर के बौद्ध आज बोधगया की विश्व के सबसे पवित्र बौद्ध तीर्थ स्थान के रूप में वंदना करते हैं। यह भवन परिसर/संपत्ति के उपयोग, कार्य, स्थान, तथा विन्यास की पुष्टि करता है।

 

संपत्ति की उत्कृष्ट सार्वभौमिक प्रतिष्ठा आज की मौजूद विशेषताओं के माध्यम से पूरी सच्चाई और ईमानदारी से व्यक्त की जाती है। मंदिर की वास्तुकला वास्तव में अनछुई है और मूल रूप और ढाँचे का अनुसरण करती है।

महाबोधि मंदिर परिसर में दुनिया भर के तीर्थयात्रियों द्वारा प्रार्थना, धार्मिक अनुष्ठान करने और ध्यान करने के लिए निरंतर यात्रा की जाती है।


संरक्षण और प्रबंधन के लिए आवश्यकताएँ 

 


महाबोधि मंदिर परिसर बिहार राज्य सरकार की संपत्ति है। 1949 के बोधगया मंदिर अधिनियम के आधार पर, राज्य सरकार ही बोधगया मंदिर प्रबंधन समिति (बीटीएमसी) और सलाहकार बोर्ड के माध्यम से संपत्ति के प्रबंधन और संरक्षण के लिए जिम्मेदार है। समिति की प्रत्येक तीन या चार महीनों में एक बार बैठक होती है जिसमें संपत्ति के रखरखाव और संरक्षण कार्यों की प्रगति और स्थिति की समीक्षा की जाती है और तीर्थयात्रियों तथा पर्यटकों के आने-जाने का प्रबंधन भी करती है। समिति में 85 नियमित कर्मचारी और 45 से अधिक आकस्मिक कर्मचारी हैं जो कार्यालय के कर्मचारियों, सुरक्षा गार्ड, माली और सफ़ाई कर्मचारियों के रूप में मंदिर के कार्य करते हैं। इस संपत्ति की उत्कृष्ट सार्वभौमिक प्रतिष्ठा के संरक्षण के साथ-साथ इसकी प्रामाणिकता और अखंडता को सुनिश्चित करने के लिए राष्ट्रीय कानून के तहत संपत्ति के संभावित मनोनयन पर अभी भी विचार किया जा रहा है। 

व्यापक शहरी और ग्रामीण व्यवस्था में महत्वपूर्ण विकास कार्यों के दबावों को देखते हुए, एक उपयुक्त प्रतिरोधक क्षेत्र को परिभाषित करना और इसके संरक्षण के लिए नियमों की स्थापना करना प्राथमिकता है। गौतम बुद्ध के जीवन और भ्रमण से जुड़ी संपत्ति के विन्यास और परिदृश्य के संरक्षण को सुनिश्चित करने के लिए उनसे संबंधित स्थलों को मंदिर संपत्ति में शामिल करने के लिए संपत्ति का विस्तार करने जैसे विकल्पों का अन्वेषण किया जाना चाहिए। मानदंड (vi) को प्रमाणित करने वाले संपत्ति के धार्मिक चरित्र को बनाए रखने के लिए इन तत्वों का संरक्षण विशेष रूप से प्रासंगिक है। 

इस विश्व विरासत संपत्ति (वर्ल्ड हेरिटेज प्रॉपर्टी) के परिसर में और बोधगया में सभी विकासात्मक गतिविधियों को बिहार सरकार द्वारा निर्धारित स्थल (साइट) प्रबंधन योजना के नियमों और विनियमों द्वारा निर्देशित किया जाता है। मंदिर परिसर से संबंधित सभी संरक्षण / जीर्णोद्धार कार्यों को भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के विशेषज्ञ मार्गदर्शन में पूरा किया जाता है। संपत्ति के लिए वित्त का मुख्य स्रोत भक्तों द्वारा दिया जाने वाला दान है। प्रबंधन प्रणाली के निरंतर संचालन से मंदिर परिसर को अच्छी तरह से सँजोकर रखा जाता है और आगंतुकों के आने-जाने को पर्याप्त रूप से प्रबंधित किया जाता है।
 

चूंकि तीर्थयात्रियों / पर्यटकों (राष्ट्रीय / अंतर्राष्ट्रीय) द्वारा बड़ी संख्या में स्थल का दौरा किया जा रहा है, इसलिए आधारभूत संरचनाओं और सार्वजनिक सुविधाओं को विकसित करने की आवश्यकता है। प्रस्तावों का पहले हेरिटेज इम्पैक्ट असेसमेंट किए जाने की आवश्यकता होगी और, शहर सहित, पूरे क्षेत्र में संभावित विकास का इस स्थान के धार्मिक और आध्यात्मिक महत्व पर क्या असर हो सकता है, इस बात की निरंतर निगरानी करना एक विशेष चुनौती होगी।

बोधगया मंदिर प्रबंधन समिति संपत्ति के रखरखाव के लिए एक संवहनीय दृष्टिकोण रखने का प्रयास करती है, उदाहरण के लिए सौर ऊर्जा का उपयोग करना, प्रदूषण मुक्त वातावरण बनाए रखना, आदि।

महाबोधि मंदिर परिसर बिहार राज्य में बोधगया में स्थित है। यह उस स्थान को चिन्हित करता है जहाँ बुद्ध ने आत्मज्ञान प्राप्त किया था। सम्राट अशोक ने यहाँ तीसरी शताब्दी ई.पू. में एक मंदिर का निर्माण किया था। इसके बाद, अगली कुछ शताब्दियों में, स्थल ने नए और अतिरिक्त निर्माणों के साथ-साथ पहले से मौजूद संरचनाओं के विस्तार हुए। मंदिर परिसर के भीतर बोधि वृक्ष है, जिसके लिए कहा जाता है कि इस वृक्ष के नीचे बुद्ध ने आत्मज्ञान प्राप्त किया था। आज हम जिस पेड़ को देखते हैं, वह मूल पेड़ का वंशज है। इस स्थान को वर्ष 2002 में यूनेस्को द्वारा विश्व धरोहर स्थल घोषित किया गया था। 


शाक्यमुनि बुद्ध शाक्य जनजाति के एक राजकुमार थे। उन्होंने महल में विलासिता का जीवन व्यतीत किया लेकिन वे उस दुख और गरीबी से परेशान थे जो उन्होंने महल के बाहर देखे थे। जीवन के बारे में सत्य को समझने की तलाश में वह घर से चले गए और सर्वप्रथम एक पथिक के रूप में रहे और बाद में एक तपस्वी के रूप में रहे। हालाँकि, वह यह नहीं मानते थे कि मनुष्य आत्म-अनुशासन और ज्ञान से दुःख से मुक्ति पा सकता है। उन्होंने एक तपस्वी के रूप में बहुत गंभीर तपस्या की लेकिन उस सत्य को नहीं पा सके जिसकी उन्हें खोज थी। फिर वह गया पहुँचे और एक बोधि या पिपल वृक्ष (फ़ीकस रेलीजिओसा) के नीचे विराजमान हो गए। कई दिनों तक लगातार यहाँ बैठने के बाद उन्होंने वह पाया जिसकी वह खोज कर रहे थे और 'प्रबुद्ध' या 'बुद्ध' के रूप में प्रकट हुए। 


मंदिर के गर्भ गृह में बुद्ध की एक सोने की बनी प्रतिमा रखी है। यह 5 फ़ीट से अधिक ऊँची है और बुद्ध को भूमिस्पर्श मुद्रा या पृथ्वी-स्पर्श मुद्रा में बैठे हुए दर्शाती है। यह विशेष मुद्रा उस घटना से संबंधित है जब बुद्ध को पृथ्वी को अपने ज्ञानोदय का साक्षी बनाना पड़ा था। ऐसा कहा जाता है कि जब वे पीपल के पेड़ के नीचे बैठे थे तब मारा, कामुक संसार की आत्मा, ने उन्हें प्रलोभन देने और विचलित करने के प्रयास किए। मारा ने बुद्ध को विचलित करने के लिए कई विधियाँ अपनाई। यहाँ तक ​​कि उन्होंने बुद्ध को लुभाने के लिए अपनी बेटियों 'इच्छा', 'आनंद' और 'उत्साह' को भेजा। बुद्ध को स्थिर देखकर, मारा ने उनकी अच्छाई का सबूत माँगा। यह तब था कि बुद्ध ने अपने हाथ से पृथ्वी को स्पर्श किया और पृथ्वी ने बोल पड़ी और कहा, "मैं इनकी (बुद्ध) साक्षी हूँ"। 


अशोक के बाद, शाही संरक्षण जारी रहा और बोधगया में निर्माण गतिविधियाँ निरंतर चलती रहीं। मगध के शक्तिशाली और समृद्ध राज्य ने एक स्थिर सामाजिक-राजनीतिक वातावरण प्रदान किया, जिसने कला के विकास और वृद्धि और बौद्ध धर्म की आस्था के विस्तार में मदद की। ये गतिविधियाँ गुप्त राजाओं के स्वर्ण युग में पराकाष्ठा पर पहुँची। यह वे थे, जिन्होंने 5वीं-6वीं शताब्दी में बोध गया में स्थित वर्तमान मंदिर का निर्माण किया था, जिसे भारत की प्रारंभिक ईंट संरचनाओं में से एक होने का गौरव प्राप्त है। कला और वास्तुकला की शैली जो यहाँ दिखाई देती है, अन्य बौद्ध स्थलों, खासकर बरहुत और साँची, में भी देखने को मिलती है।
 

ज्ञान प्राप्ति के बाद, बुद्ध ने अगले कुछ सप्ताह बोधगया में बिताए। बोधि वृक्ष के समीप के सभी स्थान, जहाँ गुरु ने अपने चरण रखे, पवित्र स्थान कहलाये और विभिन्न संरचनाओं से उन्हें चिंहित किया गया। ये महाबोधि मंदिर परिसर के भाग हैं। यह मंदिर दुनिया भर के बौद्धों के लिए सबसे पवित्र स्थलों में से एक है, क्योंकि यहीं पर ही बौद्ध धर्म का जन्म हुआ था।