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जयपुर शहर, राजस्थान

भारत के उत्तर-पश्चिमी राज्य राजस्थान में स्थित किलेबंद दीवारों से घिरा जयपुर शहर, 1727 में सवाई जय सिंह द्वितीय द्वारा स्थापित किया गया था। पहाड़ी क्षेत्रों में बसे इस राज्य के अन्य शहरों के विपरीत, जयपुर को समतल सतह पर वैदिक वास्तुकला को ध्यान में रखते हुए ग्रिड योजना के अनुसार बनवाया गया था। सड़कों पर उपनिवेशित व्यवसाय बराबर दिखाई देते हैं, जो केंद्र में चौपड़ नाम के बड़े चौराहों पर एक दूसरे से मिलते हैं। मुख्य सड़क़ों पर बने हुए बाज़ारों, ठेलों, घरों तथा मंदिरों के सामने के भागों में एकरूपता है। शहर के नियोजन में प्राचीन हिंदू और आधुनिक मुगल संस्कृति के साथ-साथ पाश्चात्य संस्कृतियों के विचारों का आदान-प्रदान दिखाई देता है। ग्रिड योजना पश्चिम में पाया जाने वाला एक नमूना है, हालाँकि यहाँ के विभिन्न ज़िलों का संगठन पारंपरिक हिंदू अवधारणाओं पर आधारित है। एक व्यावसायिक राजधानी के रूप में तैयार किए गए इस शहर ने आज तक अपनी स्थानीय वाणिज्यिक, शिल्पकारिता तथा सहयोगिता की परंपराओं को बनाए रखा है।

जयपुर भारत के उत्तर-पश्चिमी राज्य राजस्थान की राजधानी है। इसकी स्थापना 1727 शताब्दी ई. में आमेर के राजा सवाई जय सिंह द्वितीय ने कारवाई थी।

जयपुर ‘भारत के गुलाबी शहर’ के नाम से भी प्रसिद्ध है। ऐसा इसलिए है क्योंकि महाराजा राम सिंह ने 1876 में वेल्स के राजकुमार और रानी विक्टोरिया के स्वागत के लिए पूरे शहर को टेराकोटा गुलाबी (इस रंग को आतिथ्य का द्योतक माना जाता है) में रंगने का आदेश दे दिया था। 6 जुलाई, 2013 को जयपुर एक विश्व धरोहर स्थल के रूप में गौरवान्वित हुआ।

इसकी योजना और इसके डिज़ाइन को वास्तुकार विद्याधर भट्टाचार्य द्वारा एक हिंदू वास्तुशिल्पीय परंपरा, शिल्प-शास्त्र का उपयोग करके तैयार किया गया था। इस शहर को एक ग्रिड प्रकार की प्रणाली में बनवाया गया है, जिसमें सीधे-चौड़े मार्ग, रास्ते, सड़कें और गलियाँ शामिल हैं।

जयपुर में आभूषणों के उत्पादन की एक समृद्ध परंपरा रही है, जिसकी शुरुआत 1700 के आरंभ से देखी जा सकती है। महाराजा कुशल कारीगरों को शहर में आकर बसने के लिए प्रोत्साहित किया करते थे। बीसवीं शताब्दी में यहाँ रंगीन पत्थरों को तराशने का व्यवसाय भी आरंभ हो गया था, जिसके लिए इस शहर को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पहचान प्राप्त है। यहाँ के शिल्पकार आभूषणों की सुंदर नक्काशी के लिए जाने जाते हैं। इन शिल्पकारों में जौहरी और संगतराश भी शामिल हैं। उन्होंने मीनाकारी की कला के साथ-साथ उन रत्नों को अपनाया जो आगे और पीछे दोनों ओर बड़ी सावधानी से बनाए गए थे। खुरदुरे और अपरिष्कृत पत्थरों को आयाताकार करके, उन्हें काटकर, हल्का चिकनाकर पूरे भारत में और विदेश में बेचा जाता था। महाराजा जय सिंह द्वितीय द्वारा स्थापित किया गया जौहरी बाज़ार आभूषणों का सबसे प्राचीन बाज़ार है जो जयपुर में शुरू हुए आभूषण व्यवसाय का द्योतक है। पारंपरिक राजस्थानी आभूषणों में समृद्धि और रंगों का संगम देखने को मिलता है। एक पारंपरिक राजस्थानी आभूषण में बड़े चपटे आकार के खुरदुरे या चपटे कटे हुए पोल्की हीरे जड़े होते हैं। ये मीनाकारी से युक्त रंगीन आभूषण होते थे, जिनके आगे और पीछे के भाग को भली-भाँति परिष्कृत किया जाता था, जिसके कारण इन्हें राजसी रूप-रंग मिलता था। इन आभूषणों को जयपुर के महाराजा पहना करते थे। रखड़ी (सिर का आभूषण), तुस्सी (गले का हार), बाजूबंद (भुजा का अभूषण), अरिया (राजपूतों द्वारा पहना जाने वाला एक विशेष प्रकार का गले का हार), गोखरू (कंगन) और पागे (पायल) कुछ पारंपरिक राजस्थानी आभूषण हैं।

आभूषणों के अतिरिक्त जयपुर अपने हस्तशिल्प, वस्त्रों और कालीनों के लिए भी जाना जाता है। जयपुर में हस्तिदंत, चंदन और सीपों से बने खिलौनों का उत्पादन भी होता है जिनकी बहुत भारी माँग रहती है।

शहर में भव्य किलों से लेकर हवेलियों तक कई वास्तुशिल्पीय इमारतें हैं, जो दुनियाभर के पर्यटकों को आकर्षित करती हैं। आंबेर का किला ऐसा ही एक दर्शनीय किला है जिसे राजा मान सिंह ने बनवाया था। यह किला मुगल और राजस्थानी वास्तुकला के मेल को दर्शाता है। हवा महल जयपुर का दूसरा लोकप्रिय स्थल है, जिसे महाराजा सवाई प्रताप सिंह ने 1799 में बनवाया था। सिटी पैलेस संग्रहालय मुगल और राजस्थानी वास्तुकला का एक सुंदर उदाहरण है, जिसमें जयपुर के शाही परिवारों द्वारा इस्तेमाल की गईं दुर्लभ पांडुलिपियाँ, लघु चित्रकलाएँ, चित्रकारियाँ और अन्य सामग्री रखी हुई हैं। नाहरगढ़ किला भारत-यूरोपीय वास्तुकला का एक उदाहरण है; 1734 में जय सिंह द्वितीय द्वारा एक प्रसिद्ध आश्रय-स्थल के रूप में इस किले का निर्माण करवाया गया था।