जयपुर का जंतर मंतर 18वीं शताब्दी के आरंभ में बनवाई गई एक खगोलीय वेधशाला है। इसमें लगभग 20 स्थायी उपकरणों का एक समूह शामिल है। ये उपकरण चिनाई के काम से बने जाने-माने उपकरणों के विशाल उदहारण हैं, लेकिन इनमें से कई उपकरणों की खुद की अनोखी विशेषताएँ भी हैं। बिना किसी उपकरण की सहायता के, खाली आँख से खगोलीय स्थितियों का अवलोकन करने के लिए बनवाई गई इस वेधशाला में वास्तुकला और उपकरणों की दृष्टि से काफ़ी नवीनता है। यह वेधशाला भारत की ऐतिहासिक वेधशालाओं में से एक है जो सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण और व्यापक है और सबसे अच्छी तरह संरक्षित है। इसमें, मुगल शासनकाल के अंत में, एक विद्वान राजकुमार के दरबार के खगोलीय कौशल और ब्रह्मांड संबंधी अवधारणाओं की अभिव्यक्ति पाई जाती है।
संक्षिप्त संश्लेषण
जयपुर का जंतर मंतर 18वीं शताब्दी के आरंभ में बनवाई गई एक खगोलीय वेधशाला है। इसमें लगभग 20 मुख्य स्थायी उपकरणों का एक समूह शामिल है। ये उपकरण चिनाई से बने जाने-माने उपकरणों के महत्त्वपूर्ण उदाहरण हैं, लेकिन इनमें से कई उपकरणों की अपनी खुद की अनोखी विशेषताएँ भी हैं। जंतर मंतर में मुगल शासनकाल के अंत में एक विद्वान राजकुमार के दरबार के खगोलीय कौशल और ब्रह्मांड संबंधी अवधारणाओं की अभिव्यक्ति पाई जाती है।
जयपुर की जंतर मंतर वेधशाला में 18वीं शताब्दी के पूर्वार्ध में भारत में बनवाए गए विशाल स्थायी उपकरणों का, सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण और सबसे अच्छी तरह संरक्षित, समूह है; उनमें से कुछ अपनी-अपनी श्रेणी में अब तक बनवाए गए उपकरणों में सबसे अधिक बड़े हैं। बिना किसी उपकरण की सहायता के, खाली आँख से खगोलीय स्थितियों का अवलोकन करने के लिए बनवाई गई इस वेधशाला में वास्तुकला और उपकरणों की दृष्टि से काफ़ी नवीनता है। यह वेधशाला टॉलैमी के स्थितीय खगोलशास्र की परंपरा का भाग है जो कई सभ्यताओं द्वारा अपनाई गई थी। यहाँ पर किए गए इस प्रकार के अवलोकन से ज़िज की खगोलीय तालिकाओं के पूरा करने में योगदान मिला। यह इस परंपरा की अंतिम सर्वश्रेष्ठ विशाल संरचना है।
इसके निर्माता राजा जय सिंह द्वितीय की प्रेरणा से यह वेधशाला अलग-अलग वैज्ञानिक संस्कृतियों के लिए एक मिलन स्थल रही और इसने ब्रह्मांडविद्या से संबंधित व्यापक सामाजिक प्रथाओं को जन्म दिया। यह अपने शहरी आयामों, समय के नियंत्रण और तर्कसंगत खगोलीय पूर्वानुमान की क्षमताओं के कारण शाही सत्ता का प्रतीक भी थी। यह वेधशाला एक ही समय पर राजनीतिक, वैज्ञानिक और धार्मिक आवश्यकताओं के संगठन का एक महत्वपूर्ण द्योतक थी।
मानदंड (iii): जयपुर का जंतर मंतर ब्रह्मांड, समाज और मान्यताओं के संयुक्त अवलोकन का एक उत्कृष्ट उदाहरण है। यह मध्यकालीन युग में बनी महान वेधशाला की वैज्ञानिक और तकनीकी अवधारणाओं की सर्वश्रेष्ठ परिणति का उत्कृष्ट प्रमाण है। यह पंद्रह से अधिक शताब्दियों की अवधि में पश्चिमी, मध्य पूर्वी, एशियाई और अफ़्रीकी धर्मों के एक प्रमुख समूह का हिस्सा रह चुकीं बहुत ही प्राचीन ब्रह्मांडीय, खगोलीय और वैज्ञानिक परंपराओं का साक्षी रहा है।
मानदंड (iv): भारत में मुगल शासनकाल के अंत में शाही राजधानी जयपुर के केंद्र में बनवाया गया जंतर मंतर खगोलीय उपकरणों के एक बहुत ही व्यापक समूह का एक उत्कृष्ट उदाहरण है। कई उपकरण अपने विशाल आकार के कारण प्रभावशाली हैं और कुछ अपनी-अपनी श्रेणी में अब तक बनवाए गए उपकरणों में सबसे अधिक बड़े हैं।
जयपुर की जंतर मंतर वेधशाला के उष्णकटिबंधीय क्षेत्र में स्थित होने और फिर 19वीं शताब्दी में इसके अस्थायी परित्याग के कारण इसपर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा जिसके परिणामस्वरूप एक शताब्दी या उससे अधिक समय तक इसके लिए अक्सर रखरखाव और जीर्णोद्धार की विभिन्न परियोजनाएँ चलाई गईं। इसके बावजूद इस स्थल की सामान्य अखंडता का मूल रूप बनाए रखा गया है और इसमें आंशिक रूप से पुनरुद्धार भी किया गया है।
दूसरी ओर, इस स्थल पर हुए कई मानवीय हस्तक्षेपों के परिणामस्वरूप प्रत्येक उपकरण की प्रामाणिकता अलग-अलग रूप में स्थापित करना अधिक जटिल है। हालाँकि खगोलीय कार्य के संबंध में प्रामाणिकता आम तौर पर निर्विवाद है, फिर भी प्लास्टर, उपकरण अंशांकन, कुछ वास्तुकला संबंधी विवेचन और इस स्थल के तत्वों के निकटतम भूदृश्य के परिवेश के संबंध में प्रामाणिकता स्थापित करना अधिक कठिन है।
जंतर मंतर को राजस्थान स्मारक पुरातत्वीय स्थल और पुरावशेष अधिनियम, 1961 की धारा 3 और 4 के तहत संरक्षित किया गया है। इसे 1968 में राष्ट्रीय महत्त्व के स्मारक के रूप में नामित किया गया था।
पर्यटन के विकास को नियंत्रित करना और जंतर मंतर के निकटतम क्षेत्र में शहरी विकास की अनुमति देना इस स्थल के लिए मुख्य चुनौतियाँ हैं जो इस संरचना के लिए संभवतः खतरा बन सकती हैं। ज़िले को उन्नत बनाने और यातायात में बदलाव लाने के लिए प्रमुख परियोजनाओं की घोषणा की गई है और इनके कारण इस स्थल के बफ़र ज़ोन पर और आम तौर पर इसके भूदृश्य और सांस्कृतिक वातावरण पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है। बफ़र ज़ोन की सुरक्षा के लिए किए जाने वाले उपायों को निर्दिष्ट करना और इन उपायों को जयपुर की नगरपालिका की आगामी मुख्य योजना में शामिल करना विशेष रूप से आवश्यक है। स्थल की प्रबंधन प्रणाली उपयुक्त है बशर्ते इसमें सही अर्थों में व्यापक प्रबंधन निकाय शामिल किया जाए और प्रबंधन योजना लागू की जाए। इसके अतिरिक्त इस स्थल को प्रबंधित करने के लिए जो निकाय उत्तरदायी हैं, उनकी वैज्ञानिक दक्षता को मज़बूत करना आवश्यक है।
जयपुर के महाराजा सवाई जय सिंह द्वितीय ने 1724 और 1730 के बीच पूरे उत्तर भारत के ऐसे स्थलों पर पाँच जंतर मंतर या वेधशालाओं का निर्माण किया जो ऐतिहासिक, राजनीतिक और धार्मिक रूप से महत्त्वपूर्ण थे। ये वेधशालाएँ दिल्ली, उज्जैन, वाराणसी, मथुरा और जयपुर में स्थित हैं। मथुरा की वेधशाला को छोड़कर बाकी सभी वेधशालाएँ आज भी कायम हैं। सटीक पाठ्यांक पाने के लिए इन वेधशालाओं को एक दूसरे से काफ़ी दूरी पर बनवाया गया था। जय सिंह द्वितीय इनका उल्लेख ‘जंत्र’ के रूप में किया करते थे।
सबसे आखिर में बनी जयपुर की वेधशाला, 1734 में तैयार हुई थी। 1728-1738 के बीच इस संरचना में अतिरिक्त यंत्र या खगोलीय उपकरण जोड़े गए थे। यंत्रों को पत्थर की चिनाई की मदद से तैयार किया गया था और उनकी ऊँचाई कुछ ही फ़ीट से लेकर 90 फ़ीट तक की है। पत्थर की चिनाई को उस समय प्रचलित पीतल के उपकरणों की तुलना में अधिक स्थायी और सक्षम रिकॉर्डिंग माध्यम के रूप में देखा जाता था।
जयपुर वेधशाला जय सिंह द्वितीय की खगोलीय परियोजनाओं में सबसे विस्तृत और परिपूर्ण वेधशाला है। इसमें सोलह पत्थर की चिनाई से बने उपकरण और छह धातु से बने उपकरण शामिल हैं। कपिला यंत्र, राशिवलय यंत्र और उन्नतांश यंत्र जैसे कई अनूठे उपकरण यहाँ पाए जाते हैं जो किसी अन्य वेधशाला में नहीं पाए जाते हैं।
जयपुर जंतर मंतर के कुछ यंत्र इस प्रकार हैं:
सम्राट यंत्र- सम्राट यंत्र एक विशाल धूपघड़ी है जिसका उल्लेख "सर्वोच्च यंत्र" के रूप में भी किया जाता है। ऐसा कहा जाता है कि जय सिंह द्वितीय ने खुद सम्राट यंत्र तैयार किया था। यह दुनिया की सबसे बड़ी धूपघड़ी है। दो सेकंड तक के समय को भी सूक्ष्मता से मापने के कारण इस यंत्र को एक सटीक उपकरण के रूप में जाना जाता है। यह एक अचल उपकरण है और इसका मुख जयपुर के अक्षांश के संपाती रूप में 27 डिग्री पर स्थित है।
राम यंत्र- राम यंत्र एक ऐसा उपकरण है जो दो खुली बेलनाकार संरचनाओं से बना हुआ है जिनके मध्य में एक खंभा या स्तंभ है। स्तंभ की ऊँचाई संरचना की दीवारों की ऊँचाई के बराबर है और इसका माप बेलनाकार संरचनाओं की त्रिज्या के भी बराबर है। यंत्र के फ़र्श और आंतरिक दीवारों पर मौजूद स्केल ऊँचाई के कोणों को और दिगंश (पर्यवेक्षक से एक खगोलीय वस्तु की कोणीय दिशा) को इंगित करते हैं। यह उपकरण केवल जयपुर और दिल्ली की वेधशालाओं में पाया जाता है और ऐसा माना जाता है कि इसे जय सिंह द्वितीय द्वारा तैयार किया गया था। राम यंत्र का उपयोग तारों और अन्य खगोलीय पिंड की स्थितियों का निरीक्षण करने के लिए किया जाता है।
जय प्रकाश यंत्र- जय प्रकाश यंत्र को जय सिंह द्वितीय का सबसे जटिल और पेचीदा यंत्र माना जाता है। ऐसा कहा जाता है कि इसे महाराज ने खुद तैयार किया था। इस उपकरण में दो गोलार्द्धीय धूपघड़ियाँ हैं जिनपर स्केल से युक्त संगमरमर के फलक हैं। इस उपकरण का उपयोग खगोलीय पिंड की स्थितियों को अंकित करने के लिए किया जाता है।
यहाँ पाए जाने वाले अन्य उपकरणों में चक्र यंत्र, दक्षिणोत्तर यंत्र, दिगंश यंत्र, नाड़ीवलय यंत्र, दिशा यंत्र, ध्रुवदर्शक पट्टिका यंत्र, कपाली यंत्र, क्रांतिवृत्त यंत्र, मिश्र यंत्र, पलभा यंत्र, षष्टांश यंत्र, लघु सम्राट यंत्र, वृहत सम्राट यंत्र और यंत्र राज यंत्र, शामिल हैं।
© द्रोणा
रचनाकार: द्रोणा
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