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भारत के पर्वतीय रेलमार्ग

  • भारत के पर्वतीय रेलमार्ग

 इस विश्व धरोहर स्थल में तीन रेलमार्ग सम्मिलित हैं। इसमें पहला दार्जिलिंग हिमालयन रेलमार्ग है, जो आज भी पर्वतीय यात्री रेलमार्ग का उत्कृष्ट उदाहरण है। 1881 में प्रारंभ हुए इस रेलमार्ग का डिज़ाइन, अत्यंत रमणीक पहाड़ी क्षेत्रों से होकर गुजरने वाली प्रभावशाली रेल-लिंक की स्थापना में आने वाली समस्याओं का कारगर अभियांत्रिकी-समाधान प्रस्तुत करता है। सिंगल-ट्रैक वाले, 46 किमी लंबे मीटर गेज रेलमार्ग वाले नीलगिरि पर्वतीय रेलमार्ग का निर्माण, तमिलनाडु राज्य में पहली बार 1854 में प्रस्तावित किया गया था, लेकिन पर्वतीय क्षेत्र से संबंधित बाधाओं के कारण इसका कार्य 1891 में प्रारंभ हुआ और 1908 में पूरा हुआ। माप में 326 मीटर से 2,203 मीटर तक की ऊँचाई वाला यह रेलमार्ग उस समय की प्रौद्योगिकी का नवीनतम प्रतीक बना। सिंगल ट्रैक का रेल-लिंक, कोई 96-किमी लंबा कालका-शिमला रेलमार्ग 19वीं सदी के मध्य में, शिमला के उच्चवर्ती शहरों तक सेवाएँ मुहैया कराने के लिए बनाया गया था। यह, रेलमार्ग के माध्यम से पहाड़ी आबादी के परिक्षेत्र को यातायात के लिए खोलने के तकनीकी व भौतिक प्रयासों का प्रतीक था। ये तीनों रेलमार्ग आज भी पूर्ण रूप से उपयोग में हैं।


भारत के पर्वतीय रेलमार्गों में तीन रेलमार्ग शामिल हैं: पश्चिम बंगाल (पूर्वोत्तर भारत) में हिमालय की तलहटी में स्थित दार्जिलिंग हिमालयन रेलमार्ग, जिसका क्षेत्रफल 5.34 हेक्टेयर है, तमिलनाडु की नीलगिरि पहाड़ियों (दक्षिण भारत) में स्थित नीलगिरि पर्वतीय रेलमार्ग, जिसका क्षेत्रफल 4.59 हेक्टेयर है, और हिमाचल प्रदेश (उत्तर-पश्चिम भारत) की हिमालयी तलहटी में स्थित कालका शिमला रेलमार्ग, जिसका क्षेत्रफल 79.06 हेक्टेयर है। ये तीनों रेलमार्ग पूरी तरह से उपयोग में हैं।


भारत के ये पर्वतीय रेलमार्ग, पहाड़ी रेलमार्गों के उत्कृष्ट उदाहरण हैं। 1881 और 1908 के मध्य खोले गए इन रेलमार्गों में, सौंदर्य से भरपूर पर्वतीय तराई भू-भाग से होकर जाने वाले एक प्रभावी रेल लिंक की स्थापना में आने वाली कठिनाइयों का व्यावहारिक, कारगर, और उत्कृष्ट अभियांत्रिकी-समाधान प्रयुक्त किया गया है। आज भी पूर्ण रूप से उपयोग हो रहे ये रेलमार्ग, 19वीं सदी के अंत और बीसवीं सदी के प्रारंभ के बीच के इंजीनियरिंग उद्यमों के जीवंत उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। 


2 फ़ीट (0.610 मीटर) गेज ट्रैक वाला, 88.48 किलोमीटर लंबा दार्जिलिंग हिमालयन रेलमार्ग, न्यू जलपाईगुड़ी को दार्जिलिंग के साथ जोड़ता है और समुद्र तल से 2258 मीटर की ऊँचाई पर घूम से होकर गुजरता है। इसके नवीन डिज़ाइन में 6 टेढ़े-मेढ़े (ज़िग-ज़ैग) रिवर्स और, 1:31 की नियंत्रक ढलान वाले, तीन लूप शामिल हैं।
45.88 किलोमीटर लंबे मीटर-गेज सिंगल-ट्रैक रेलमार्ग वाले, नीलगिरि पर्वतीय रेलमार्ग का निर्माण, पहली बार 1854 में प्रस्तावित किया गया था, लेकिन पर्वतीय क्षेत्र की बाधाओं की वजह से इसका निर्माण कार्य 1891 में ही प्रारंभ हो पाया और 1908 में जाकर पूरा हुआ। 326 मीटर से 2,203 मीटर तक की ऊँचाई वाला यह रेलमार्ग उस समय की नवीनतम प्रौद्योगिकी दर्शाता है और खड़ी ढलान पर चलने के लिए यह विशष रैक और पीनियन-ट्रैक्शन व्यवस्था का उपयोग करता है।


96.6 किलोमीटर लंबा सिंगल ट्रैक वाला कालका शिमला रेलमार्ग, 19वीं सदी के मध्य में, उच्चवर्ती शहर शिमला तक सेवाएँ मुहैया कराने के लिए बनाया गया था, और यह आज भी उपोग में लाया जाता है। यह, रेलमार्ग के माध्यम से पहाड़ी आबादी के परिक्षेत्र को यातायात के लिए खोलने के तकनीकी व भौतिक प्रयासों का प्रतीक था। केएसआर का विश्व का सर्वोच्च बहु-वृत्तखंडीय (मल्टी-आर्क) गैलरी पुल (ब्रिज), और दुनिया की सबसे लंबी सुरंग (निर्माण के समय), इस सपने को साकार करने के लिए उपयुक्त, उत्कृष्ट अभियांत्रिकी कौशल के प्रमाण हैं।
ये रेलमार्ग दुर्गम भू-भागों में बनाई गईं नवोन्मेषी परिवहन प्रणालियों के उत्कृष्ट उदाहरण हैं, और इनका इनसे संबंधित क्षेत्रों के सामाजिक और आर्थिक विकास पर गहरा असर पड़ा है।


मानदंड (ii): भारत के ये पर्वतीय रेलमार्ग, प्रौद्योगिकी के विकासपरक मूल्यों में परस्पर परिवर्तन और बहुसांस्कृतिक क्षेत्र विशेष के सामाजिक-आर्थिक विकास पर एक नई परिवहन प्रणाली द्वारा पड़ने वाले प्रभावों के अनोखे उदाहरण हैं, और ये आगे चलकर दुनिया के अनेक भागों में समान विकास के लिए प्रारूप बने। भारत के पर्वतीय रेलमार्ग, अपने निर्माण के समय, विशेष रूप से अंतिम स्टेशन शिमला के निहायत राजनीतिक क्रिया-कलापों के संबंध में, औपनिवेशिक परिवेश में हुए एक महत्वपूर्ण सांस्कृतिक और प्रौद्योगिकीय परिवर्तन को प्रदर्शित करते हैं। इसके उपरांत, रेलमार्ग के कारण महत्वपूर्ण और स्थायी मानव-बस्तियाँ स्थापित हुईं, जिनमें ये रेलमार्ग आज भी एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं।  


मानदंड (iv):19वीं सदी में रेलमार्गों के विकास का विश्व के अनेक भागों में सामाजिक और आर्थिक तौर पर गहरा प्रभाव पड़ा था। भारत के ये पर्वतीय रेलमार्ग प्रौद्योगिकी के एक सामूह के उत्कृष्ट उदाहरण हैं, जो ऊँचे पर्वतीय भू=भागों में प्रगति के विभिन्न सोपानों का प्रतिनिधित्व करते हैं। भारत के पर्वतीय रेलमार्ग इस बात के अनूठे दृष्टांत है कि किस प्रकार भारतीय पहाड़ों के मैदानों और पठारों तक पहुँच प्रदान की गई थी। ये रेलमार्ग इस समय के मानव-समाज के तकनीकी और भौतिक प्रयासों के प्रतीक हैं, जिनके द्वारा रेलमार्ग के माध्यम से पर्वतीय आबादी तक पहुँच स्थापित हुई। इन्हें भली-भाँति व्यवस्थित किया गया है और ये रेलमार्ग आज भी पूर्ण रूप से क्रियाशील हैं। इनके उपयोग के पीछे की अवधारणा और उद्देश्य आज भी ठीक वही हैं जो इनके शुरू होने के समय में थे।


समग्रता


स्टेशनों को मिलाकार सभी तीनों रेलमाग्रों की संपूर्ण लंबाई संपत्ति के दायरे में सम्मिलित है। संपत्ति के ये दायरे पर्याप्त हैं। संरचनात्मक अखंडता को अक्षुण्ण बनाए रखा गया है और आज इन पटरियों की बुनियादी ढाँचागत संरचना उन रेलमार्गों की विशेषताओं से काफी मेल खाती हैं, जैसी वे पहले अपने मूल रूप में थीं। यद्यपि इन पटरियों को व्यवस्थित रूप से सुधार-मरम्मत कर अनुरक्षित रखा गया है, इनकी कार्यात्मक अखंडता बनाई रखी गई है। उपयोग की समग्रता को कायम रखा गया है और प्रारंभ से ही, पर्वतीय क्षेत्रों के रेलमार्गों द्वारा खोले जाने से संबंधित सभी विशेषताओं के साथ, इन पटरियों का बड़े पैमाने पर स्थायी परिवहन के रूप में उपयोग किया गया है। आज तक इनपर यातायात लगातार नियमित रूप से जारी है, और ये, विशेष रूप से यात्रियों और पर्यटकों को, कई सारी प्राथमिक सेवाएँ सुलभ कराते हैं। बुनियादी संरचना, तकनीकी संचालन, और सामाजिक उपयोग की दृष्टि से यह संपत्ति सामान्य रूप से अच्छी स्थिति में है, जिससे इसका मूल्य और महत्त्व पर्याप्त रूप से अभिव्यक्त होता है। इन संपत्तियों के लिए प्रमुख संकटों में जलवायु-संबंधी और भूगर्भीय संकट शामिल हैं, जो इन तीनों रेलमार्गों के रोजमर्रा के परिचालन का हमेशा से ही हिस्सा थे। इन सभी तीनों क्षेत्रों को संभावित भूकंप वाला क्षेत्र माना जा सकता है। कालका शिमला रेलमार्ग के निकट, विशेष रूप से उसके बफर ज़ोन में, अनधिकृत अतिक्रमण के संकट बने हुए हैं।


प्रामाणिकता


मानसूनी वर्षा, भूस्खलन, और चट्टानों के खिसकने के खतरों से सदा ही युक्त, इन रेलमार्गों के संचालन के अहम घटनात्मक इतिहास के दौरान विभिन्न जगहों पर पटरियाँ फिर से बिछाई जा चुकी हैं और सुरक्षात्मक दीवारों को फिर से सुधारकर बनाया गया है। सदी के दौरान, इन तीनों रेलमार्गों पर स्टेशन के विभिन्न भवनों, विशेष रूप से भूकंप या आग से बर्बाद हुई इमारतों, का पुनर्निर्माण हुआ है। इन भवनों का उनके नवीनतम रूप में अनुरक्षण किया जा रहा है। इसके अलावा रेलमार्ग से संबंधित संरचनाओं को उनके मौलिक रूप में जीर्णोद्धार करके अनुरक्षित किया गया है। हालाँकि रेल के नए डिब्बे और इंजन प्रयुक्त किए गए हैं, परंतु पुराने वालों की भी मरम्मत की गई है। इनमें दार्जिलिंग हिमालयन रेलमार्ग के प्रसिद्ध बी-क्लास भाप इंजन शामिल हैं। प्रारंभिक रेल के चौ-पहिया डिब्बे और बोगियाँ अभी उपयोग में लाई जा रही हैं। चूँकि ये संपत्तियाँ आज भी प्रयोग में हैं इसलिए इनकी हमेशा मरम्मत और पुर्जों के बदले जाने की जरूरत पड़ती रहती है, और यही इनसे संबंधित अरक्षितता का कारण भी है। यद्यपि, यह सुनिश्चित किया गया है कि इन पुर्जों के मौलिक डिज़ाइन और गुणवत्ता को कायम रखा जाए।


संरक्षण और प्रबंधन आवश्यकताएँ


इन तीनों रेल संपत्तियों का स्वामी भारत सरकार का रेल मंत्रालय है। भारत सरकार के रेलमार्ग से संबंधित सभी कानून इस संपत्ति पर लागू होते हैं, विशेष रूप से, तकनीकी सुरक्षा उपायों के लिए रेलमार्ग अधिनियम (1989), और सरकारी स्थान अधिनियम (1971), जो विशेष रूप से अनधिकृत रूप से रहने वालों को निष्कासित करने का अधिकार सरकार को प्रदान करता है। इस संपत्ति को दी गई कानूनी सुरक्षा पर्याप्त है और रेल मंत्रालय, संपत्तियों की सीमाओं के साथ-साथ बफर ज़ोन के भीतर की भूमि पर अनधिकृत अतिक्रमण के विरुद्ध कानूनी प्रावधानों को लागू करने का प्रयास कर रहा है। रेल मंत्रालय और संबंधित शाखा कार्यालयों द्वारा इन रेलों के प्रबंधन की गारंटी दी जाती है। संपत्ति प्रबंधन योजना के अंतर्गत, इन तीन में से दो रेलमार्गों ( नीलगिरि और कालका शिमला) से संबंधित भूमि, भवनों, पटरियों, पुलों और सुरंगों का प्रबंधन किया जाता है। रेलमार्ग संपत्ति की सीमाओं पर अतिक्रमण रोकने और वास्तुशिल्पीय विशेषताओं को ध्यान में रखकर इस योजना को सशक्त बनाने के लिए अनुमोदन किए गए हैं। संसाधन भारतीय रेल मंत्रालय की ओर से प्रदान किए जाते हैं। आगंतुकों और यात्रियों के लिए रेल सेवाएँ, स्टेशन सुविधाएँ, प्लेटफ़ॉर्म, और यात्री सुविधाएँ प्रदान की जाती हैं। इसके अतिरिक्त, विशेष पर्यटक रेलगाड़ियों की भी व्यवस्था की जाती है। इन तीनों रेलमार्गों के पेशेवर कर्मी और भारतीय रेल का तकनीकी सहायता विभाग पूरी तरह से क्रियाशील हैं, और जलवायु-संबंधी और भूगर्भीय खतरों से निपटने के लिए अच्छी तरह से तैयार हैं। इसके परिचालन के एक शताब्दी से अधिक समय में वे हमेशा पटरी की अखंडता-संपूर्णता को बहाल करने में कामयाब रहे हैं। सामान्य तौर पर वे बहुत कम समय में ही हस्तक्षेप करते हैं जिससे संपत्ति-संरक्षण की स्थिति की निगरानी में योगदान मिलता है। तीनों रेलमार्गों के पास पटरियों, बुनियादी ढाँचों, रेल के डिब्बों और इंजनों, और स्टेशनों के अनुरक्षण के लिए आवश्यक तकनीकी दस्तावेज हैं। भारतीय रेल का एक केंद्रीय अनुसंधान विभाग (आरडीएसओ) है, जो पर्वतीय रेलमार्गों पर जलवायु और भूगर्भीय प्रभावों द्वारा पड़ने वाले असर पर सोच-विचार करता है। विशेष रूप से भूस्खलन रोकने के साथ, यह सुरक्षात्मक कार्यवाही से संबंधित सुझाव देता है।
ये तीनों पर्वतीय रेलमार्ग अपनी स्थापना के समय से ही निरंतर सेवा में हैं। वे सामान्य संरक्षण की अच्छी स्थिति में हैं, और इनका नियमित और स्थायी रूप से रख-रखाव किया जाता है। रेल कर्मियों द्वारा पटरियों के रख-रखाव की पारंपरिक व्यवस्था को, इन रेलमार्गों के वर्तमान और भावी संरक्षण को सुनिश्चित करने के लिए, संतोषजनक माना जाता है। दोनों, नीलगिरि और कालका शिमला रेलमार्गों के लिए प्रबंधन-योजनाएँ सक्रिय हैं, जिनमें ऐसी प्रक्रियाओं और प्रचलनों के प्रारूप शामिल हैं जिनसे पटरियों के चल रहे संरक्षण और उनके संरक्षण मूल्य सुनिश्चित किए जाते हैं। हाँलांकि, सबसे पहले सूचीबद्ध होने वाले दार्जिलिंग रेलमार्ग के पास अभी भी संरक्षण संबंधी प्रबंधन योजना नहीं है। इसके अलावा, कालका शिमला रेलमार्ग स्टेशन के भवनों और उनके उप-भवनों का वास्तुशिल्पीय प्रबंधन, जो संपत्ति के उत्कृष्ट सार्वभौमिक मूल्य के लिए मतवपूर्ण है, पर्याप्त रूप से ध्यान में नहीं रखा गया है, और इस उद्देशय के लिए कोई मध्यम अवधि की परियोजना बनाई जानी चाहिए। प्रबंधन अधिकारियों को नामांकित संपत्ति-क्षेत्र और बफर ज़ोन में भूमि पर होने वाले अतिक्रमण पर रोक लगानी चाहिए।
नीलगिरि और कालका शिमला रेलमार्ग से संबंधित प्रबंधन-योजनाओं में, वास्तुशिल्पीय संरक्षण और संपत्ति की स्थिति की निगरानी के संदर्भ में, मूलतः सुधार किया जाना चाहिए, और, विशेष रूप से आगंतुक-प्रबंधन के संबंध में, क्षेत्रीय अधिकारियों को सम्मिलित करके, इनके उत्कृष्ट सार्वभौमिक मूल्यों का संरक्षण सुनिश्चित किया जाना चाहिए।

इस धरोहर स्थल में दार्जिलिंग हिमालयन रेलमार्ग, नीलगिरि पर्वतीय रेलमार्ग, और कालका-शिमला रेलमार्ग सम्मिलित हैं। इन रेलमार्गों का निर्माण 1881 और 1908 के बीच हुआ था और ये ब्रिटिश इंजीनियरों के उत्कृष्ट इंजीनियरिंग कौशल और भारतीय संचालकों के समर्पण के साक्षी हैं। 1845 में, ईस्ट इंडिया रेलवे कंपनी की स्थापना 4 मिलियन पाउंड के शुरुआती निवेश से हुई थी। इसको भारत में अंग्रेजों की वाणिज्यिक शक्ति के सर्वदा विस्तार होने वाले क्षेत्रों में रेल यात्रा के यांत्रिक जादू को पेश करने का काम सौंपा गया था। भारत के गहरी घाटियों वाले पहाड़ों और विशाल जंगलों के बीच चलने हेतु, रेलगाड़ियों के लिए आवश्यक तकनीकी कौशल प्राप्ति में, आधी सदी का प्रयोग और अभ्यास लगा। इस साहसिक कार्य को करने की प्रेरणा के पीछे के कारणों में वाणिज्य, जिसके कारण सबसे पहले अंग्रेजों का ध्यान भारत की ओर खिंचा था, और गर्मी से तपते भारत से वापस लौटने की चाह, शामिल थे। दार्जिलिंग हिमालयन रेलमार्ग 1881 में ईस्टर्न बंगाल स्टेट रेलवे के अभिकर्ता, फ्रैंकलिन प्रेस्टीज, द्वारा पूरा किया गया था। 88 किमी की दूरी को भभकते भाप इंजनों द्वारा तय किया गया था, जो सीधी खड़ी पर्वतमालाओं और भीड़-भाड़ वाली शहरी सडकों पर चलते थे। इस रेलमार्ग द्वारा चाय के साथ लोगों का पहाड़ियों और मैदानों के बीच आवागमन सुलभ हुआ। भाप वाले इंजन को भारत में तब बंद कर दिया गया, जब दार्जिलिंग रेल मात्र 9 साल ही चली थी। जबकि भारत भर की रेलगाड़ियों ने पानी के बजाय तेल से चलना शुरू कर दिया था, दार्जिलिंग ’टॉय ट्रेन’ और नीलगिरि रेल में ऐसा कोई बदलाव नहीं हुआ। दार्जिलिंग में अभी भी मौजूद 14 भाप इंजनों में से 8 का निर्माण प्रथम विश्व युद्ध के दौरान हुआ था। भारतीय रेल के इन पुराने इंजनों का रख-रखाव आज तिनधरिया कार्यशाला और सिलीगुड़ी और कुर्सियांग में स्थित इंजन कारखानों में किया जाता है। 1999 से यूनेस्को के धरोहर स्थल में शामिल, आज यह रेलगाड़ी घूम से दार्जिलिंग तक एक छोटे मार्ग पर ही चलती है।


 कालका-शिमला रेलमार्ग के पूरा होने में 5 साल लगे थे। 1903 में तत्कालीन गवर्नर जनरल लॉर्ड कर्ज़न ने ब्रिटिश भारत की ग्रीष्मकालीन राजधानी को हिमालय की तलहटी से जोड़ने वाली इस रेल का उद्घाटन किया था। 96 किमी लंबे मार्ग का निर्माण 102 सुरंगों और 864 पुलों के साथ किया गया है, जो एक विशाल निर्माणकार्य था, जिसे भ्रामक रूप से ‘टॉय ट्रेन’ कहा जाता है। 2008 में, कालका-शिमला रेलमार्ग को एक धरोहर स्थल बनाया गया और उसके रख-रखाव और अनुरक्षण के लिए ‘कालका-शिमला रेलमार्ग विरासत कार्यशाला’ बनाई गई। इसे ‘गिनीज़ बुक ऑफ़ रेल फैक्ट्स और फ़ीट्स’ में भी शामिल किया गया है।


रेलगाड़ियों की इस तिकड़ी में अंतिम, नीलगिरि पर्वतीय रेलमार्ग है। तीनों रेलमार्गों में सबसे छोटी दूरी और सबसे सीधी ढाल पर चलने वाली यह रेल, मेट्टुपालयम को मद्रास प्रेसीडेंसी की तत्कालीन ग्रीष्मकालीन राजधानी, उदगमंडलम (वर्तमान ऊटी), से जोड़ती है। नीलगिरि पर्वतीय रेलमार्ग की विशिष्टता इसकी पटरियाँ हैं। ये भारत में एकमात्र ‘रैक और पिनियन’ वाली पटरियाँ हैं। इसमें, समानांतर पटरियों के बीच एक अतिरिक्त पटरी होती है जिसमें समान दूरी पर 'दाँत' स्थित होते हैं जो रेलगाड़ी के निचले भाग से जुड़े समान 'दाँत' के अनुरूप होते हैं। इस प्रकार का अतिरिक्त सहारा रेलगाड़ी को गुरुत्वाकर्षण के कारण बिना गिरे खड़ी पटरियों पर आसानी से चलते रहने में मदद करता है। यूनेस्को ने 2005 में इस रेलमार्ग को विश्व धरोहर स्थल घोषित किया था।  
इन रेलमार्गों ने, भाषाओं, संस्कृतियों, और सांस्थितियों (टोपोलॉजी) को जोड़ते हुए, भारत के अगम्य क्षेत्रों में लोगों, सामग्री, और विचारों के आवागमन में मदद की है। यूनेस्को ने भारत की अवधारणा में इन रेलमार्गों के योगदान को समझते हुए, इन्हें वैश्विक मान्यता प्रदान की है।