नोकरेक संरक्षित जैवमंडल भारत के उत्तर-पूर्व में तुरा पर्वतमाला पर स्थित है जो मेघालय पठार (औसत ऊँचाई- 600 मीटर) का हिस्सा है। यह पूरी तरह एक पर्वतीय प्रदेश है और नोकरेक गारो पहाड़ियों की सबसे ऊँची चोटी है जिसकी ऊँचाई 1,412 मीटर है। इस संरक्षित जैवमंडल के उत्तर में कम-अधिक ऊँचाई की पहाड़ियाँ हैं जबकि दक्षिण में खड़ी ढलान वाले पहाड़ पाए जाते हैं। इस संरक्षित जैवमंडल में प्रमुख नदियों और झरनों का समावेश है जिनके कारण जलग्रहण प्रणाली सालभर सुचारू बनी रहती है। उदाहरण के लिए गनोल, डारेंग और सिमसंग कुछ प्रमुख नदियों में आती हैं जिनमें से सिमसंग सबसे लंबी और सबसे बड़ी है। सिमसंग का उद्गम संरक्षित जैवमंडल के उत्तर से होता है, दारेंग का उद्गम दक्षिणी चोटियों से और गनोल का प्रवाह पश्चिम की ओर ब्रह्मपुत्र नदी में होता है जो कई शहरों तक पानी पहुँचाती है।
उष्णकटिबंधीय जलवायु की पहचान उच्च आर्द्रता, मानसून की बारिश (अप्रैल-अक्टूबर) और उच्च तापमान से होती है, और यह जलवायु समृद्ध वनस्पतियों की वृद्धि के लिए पोषक वातावरण प्रदान करती है, और परिणामस्वरूप एक अद्वितीय जैवविविधता के विकास में योगदान देती है। इस प्रदेश में, मुख्य रूप से सदाबहार और अर्ध-सदाबहार पर्णपाती वन पाए जाते हैं। नोकरेक संरक्षित जैवमंडल का 90% भाग सदाबहार वन से आच्छादित है। कम ऊँचाई वाले कुछ भागों में बाँस के जंगल भी पाए जाते हैं, और विशेष रूप से सिट्रस इंडिका (भारतीय जंगली संतरा) भी पाया जाता है, जो एक विशिष्ट किस्म का स्थानिक सिट्रस फल है।
संरक्षित जैवमंडल की विशिष्ट प्रजातियों में बॉम्बैक्स सीइबा (कपास का पौधा), स्टेरकुलिया विलोसा (हेयरी स्टर्क्युलिया) और कैसिया फ़िस्टुला (गोल्डन शॉवर ट्री) शामिल हैं। नोकेरेक की लुप्तप्राय प्रजातियों में स्लो लोरिस, पेटौरिस्टा फिलिपेंसिस (विशालकाय उड़ती गिलहरी) और मकाका लियोनिना (पिग-टेल्ड मैकाक) शामिल हैं। इसके अतिरिक्त यह संरक्षित जैवमंडल बाघ, तेंदुए, हाथी और हूलॉक बंदर जैसे कई अनोखे और लुप्तप्राय पशुओं का घर है। हूलॉक बंदर भारत के सबसे लुप्तप्राय बंदरों में आते हैं और इसलिए उन्हें विशेष रूप से सुरक्षित रखा जाता है।
वर्तमान में 22,084 लोग इस क्षेत्र में स्थायी रूप से निवास करते हैं। उन्नत उपकरणों के अभाव के कारण स्थानीय अर्थव्यवस्था पिछड़ी हुई है। स्थानांतरी कृषि, यहाँ की प्रमुख और सबसे महत्वपूर्ण आर्थिक गतिविधि है जो नोकरेक के 17% क्षेत्र पर 85% आबादी द्वारा की जाती है। स्थानीय लोग लकड़ी, शहद और मोम जैसे प्राकृतिक वन उत्पादों पर निर्भर करते हैं जबकि केले, चावल, काजू और चाय को वाणिज्य के लिए निर्यात किया जाता है।
स्थानीय अधिकारी संरक्षित जैवमंडल के पारिस्थितिक तंत्र की रक्षा के लिए स्थानांतरी कृषि को समाप्त करने का प्रयास कर रहे हैं। पूरे संरक्षित जैवमंडल में शहद इकट्ठा करने वाले बक्सों को वितरित किया गया है और स्क्वॉश की खेती के लिए धातु के ढाँचों का उपयोग किया जाता है। बागवानी फ़सलों की प्रजातियों की खेती के लिए बगीचे तैयार किए गए हैं और मीठे पानी के तालाबों का निर्माण किया जा रहा है।
पुरातत्वीय जाँच-परिणाम यह साबित करते हैं कि मानव मध्य प्रातिनूतन युग के पुरापाषाण काल से पहले इस क्षेत्र में बस गए थे। खेती-बाड़ी और शिकार नवपाषाण काल के आगमन तक किया जाता रहा, जिसके बाद उनका स्थान झूम कृषि और स्थानांतरी कृषि जैसी अधिक प्रभावी आर्थिक गतिविधियों ने ले लिया। मुगल साम्राज्य के दौरान दैनिक कार्यों में इस्तेमाल की जाने वाली सामग्रियों के लिए लकड़ी और मोम जैसे कृषि उत्पादों का व्यापार किया जाता था। ईस्ट इंडिया कंपनी के आगमन और शासन के बाद इस स्थान ने मुख्य रूप से कोयले जैसे खनिजों के निष्कर्षण की ओर ध्यान आकर्षित किया।
वर्तमान में इस क्षेत्र में मुख्य रूप से गारो जनजाति के लोग निवास करते हैं। हालाँकि बनिया या हैजोंग जैसी अन्य जनजातियाँ भी इस क्षेत्र में मौजूद हैं। गारो खुद को आचिक मंडे (पहाड़ियों का आदमी) के रूप में संदर्भित करते हैं। ईसाई धर्म के अनुयायी होने के बावजूद भी वे पुनर्जन्म में विश्वास करते हैं और कई देवताओं की पूजा करते हैं। गारो लोग सालजोंग देवता को सबसे अधिक पूजते हैं, जिनके समक्ष मुर्गों और बंदरों की बलि चढ़ाई जाती है और बदले में अपने खेतों की रक्षा के लिए प्रार्थना की जाती है।
नोकरेक संरक्षित जैवमंडल भारत के उत्तर-पूर्वी राज्य, मेघालय में स्थित है। यह तुरा पर्वतमाला पर स्थित है जो गारो पहाड़ियों का एक भाग है। नोकेरेक इस पर्वतमाला की सबसे ऊँची चोटी (1,412 मीटर) है। इस क्षेत्र को 2009 में यूनेस्को संरक्षित जैवमंडल के रूप में चिह्नांकित किया गया था। इसकी स्थलाकृति पर्वतीय है, जिसके उत्तरी भाग में कम-अधिक ऊँचाई की पहाड़ियाँ हैं और दक्षिण में गहरी ढलानें हैं। इस क्षेत्र की भौतिक विशेषताएँ और साथ-ही-साथ इसकी जलवायु की स्थिति के कारण यहाँ अनोखी वनस्पतियाँ और जीव-जंतू पनपते हैं। यहाँ की भूमि और जल संसाधनों के साथ मानव आबादी का संबंध काफ़ी पुराना है। इस क्षेत्र को संरक्षित जैवमंडल चिह्नांकित करने से इसे मनुष्य और प्रकृति के सह-अस्तित्व को कुशलता से संतुलित करने में सहायता मिलती है।
इस संरक्षित जैवमंडल को गनोल, डारेंग और सिमसंग जैसी नदियों से जल मिलता है, जिनमें से सिमसंग सबसे लंबी और सबसे बड़ी नदी है। इन नदियों को उनके-उनके जलसंभरों द्वारा जल प्रदान किया जाता है जो इस क्षेत्र के पहाड़ों में स्थित हैं। वे आस-पास के शहरों और गाँवों के लिए जल के स्रोत हैं। यहाँ की जलवायु उच्च तापमान, उच्च आर्द्रता और मानसून की वर्षा से युक्त है, जो अप्रैल से अक्टूबर तक रहती है। यह जलवायु सदाबहार और अर्ध-सदाबहार पर्णपाती वनों और बाँस के जंगलों की उगने में मदद करती है। इस क्षेत्र का 90% भाग सदाबहार वनों से ढका है। सिट्रस इंडिका (भारतीय जंगली संतरा) एक महत्त्वपूर्ण स्थानिक पैदावर है। अन्य प्रजातियों में बॉम्बैक्स सीइबा (कपास का पौधा), स्टेरकुलिया विलोसा (हेयरी स्टर्क्युलिया) और कैसिया फ़िस्टुला (गोल्डन शॉवर ट्री) शामिल हैं।
यह संरक्षित जैवमंडल स्लो लोरिस, पेटौरिस्टा फिलिपेंसिस (विशालकाय उड़ती गिलहरी) और मकाका लियोनिना (पिग-टेल्ड मैकाक) जैसी लुप्तप्राय प्रजातियों का भी घर है। इसके अतिरिक्त यहाँ बाघ, तेंदुए और हाथी जैसे अन्य लुप्तप्राय जानवर रहते हैं। यहाँ पाए जाने वाले हूलॉक बंदर भारत के सबसे लुप्तप्राय बंदरों में आते हैं।
मानव आबादी में गारो, बनिया और हैजोंग जैसी जनजातियाँ शामिल हैं। मध्य प्रातिनूतन युग के पुरापाषाण काल से इस क्षेत्र में मानव निवास का एक लंबा इतिहास रहा है। पुरातन समय से जीविका कमाने के साधनों में शिकार और संग्रह करने से लेकर झूम कृषि वाली स्थानांतरी कृषि पद्धति शामिल है। मध्ययुग में लकड़ी और मोम का व्यापार प्रचलित था। अंग्रेज़ों के शासनकाल में कोयले की खोज के बाद खनन गतिविधियाँ शुरू हुईं। हालाँकि विकल्पों के अभाव के कारण लोग अभी भी अधिकतर स्थानांतरी कृषि, प्राकृतिक वन उत्पादों को इकट्ठा करने और केले, चावल, काजू और चाय की पैदावार और बिक्री करने पर निर्भर रहते हैं।
हालाँकि स्थानीय आबादी के भरण-पोषण में सहायता करने वाला पारिस्थितिक तंत्र खुद स्थानांतरी कृषि और अंधाधुंध खनन के दुष्प्रभावों के कारण क्षति का सामना कर रहा है। इस ह्रास को रोकने के लिए संरक्षण, विकास और संभार-तंत्र का विकास – इन तीन संबंधित विषयों के आधार पर प्रयास किए जा रहे हैं। स्थानीय समुदायों को स्वस्थ संधारणीय विकास पद्धतियों और वैज्ञानिक अनुसंधान पर आधारित जीविका कमाने के विकल्प प्रदान कर उन्हें इस गतिविधि में सहभागी होने के लिए प्रेरित किया जा रहा है। उदाहरण के लिए, शहद के संचय के लिए बक्सों का और स्क्वॉश की खेती के लिए धातु के ढाँचों का वितरण, बागवानी पौधों की पैदावार को बढ़ावा देना और मीठे पानी के तालाबों का निर्माण करना।