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सिक्किम के रेशम मार्ग

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प्राचीन रेशम मार्ग, ज़ूलुक, सिक्किम। छवि स्रोत : पेक्सेल्स

ऐसा माना जाता है कि “रेशम मार्ग” (सिल्क रोड) का नाम एक जर्मन भूगोल शास्त्री, फ़र्डिनांड वॉन रिखथोफ़ेन ने 19वीं शताब्दी में दिया था। 119 ईसा पूर्व तक चलने वाले एक दशकीय युद्ध में चीनियों ने गांसु मार्ग पर अपना अधिकार जमा लिया था। इससे रेशम मार्गों का जन्म हुआ। हान साम्राज्य के समय पर, रेशम (कच्चे रेशम के गट्ठों) का उपयोग सैन्य बलों का वेतन देने के लिए किया जाता था, क्योंकि तब चीन का पूरी तरह मुद्रीकरण नहीं हुआ था। इसके अतिरिक्त, जो भिक्षु मठ के नियमों का उल्लंघन करते थे, उनसे जुर्माने के रूप में भी रेशम की वसूली की जाती थी। वैसे तो वाणिज्य प्राचीन रेशम मार्गों का एक महत्वपूर्ण भाग था, जिससे कई महाद्वीप एक दूसरे से जुड़े हुए थे, किंतु विभिन्न सभ्यताओं के बीच होने वाला सांस्कृतिक लेन-देन इससे कहीं अधिक महत्वपूर्ण था।
रेशम मार्ग विश्व के इतिहास का एक महत्वपूर्ण भाग हैं, क्योंकि ये धरती के सबसे प्रसिद्ध सांस्कृतिक मार्ग भी बन गए थे। इसका एक हिस्सा, दक्षिण-पश्चिमी रेशम मार्ग था, जिसे सिक्किम रेशम मार्ग भी कहा जाता है, और यह चीन के युनान प्रांत को तिब्बत और उत्तर-पूर्वी भारत से जोड़ता था।

उपयोग में लाया गया मार्ग

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नाथुला दर्रे के निकट घुमावदार रास्ते। छवि स्रोत : पिक्साहाइव

सिक्किम रेशम मार्ग, भारत के पूर्वी क्षेत्र को चीन के दक्षिणी क्षेत्र से जोड़ने वाले सबसे पुराने और दुर्गम मार्गों में से एक है, और यह एक ऐसा एक स्थल मार्ग है, जिसका सबसे कम अध्ययन किया गया है। यह एक कम प्रसिद्ध प्राचीन मार्ग था, जो संपूर्ण रेशम मार्ग के तंत्र का एक भाग था, और यह मध्य एशियाई रेशम मार्ग के स्थापित होने से पहले से ही अस्तित्व में था। हान साम्राज्य के महाराजा वू, अपनी राजधानी चांगान को, युनान के रास्ते, उत्तर-पूर्वी भारत और तिब्बत को जोड़ने वाले एक मार्ग की स्थापना करना चाहते थे। इसके परिणामस्वरूप, यहाँ जो मार्ग स्थापित किया गया, वह वाणिज्य के संचार के अतिरिक्त, विचारों, नवाचारों, आविष्कारों, खोजोंं, मिथकों, आस्थाओं, और धर्मों के आदान-प्रदान का भी वाहक बना। यह मार्ग लगभग 2000 किलोमीटर लंबा था और म्यांमार के रास्ते पूर्वी तथा उत्तर-पूर्वी भारत को चीन के युनान प्रांत से जोड़ता था। यह तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व में स्थापित हुआ और यह इतना लोकप्रिय हुआ कि सातवीं ईस्वी तक इसमें कई उप-मार्ग जुड़ गए थे।

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तुंगू गाँव, सिक्किम। छवि स्रोत : (पुस्तक) हिमालयन जर्नल्स ; ऑर नोट्स ऑफ़ अ नैचरलिस्ट इन बंगाल, द सिक्किम एंड नेपाल, हिमालय, खासिया माउंटेन्स, एट्सेटरा, वॉल. II

किंग साम्राज्य (1644-1912 ईस्वी) ने दक्षिणी रेशम मार्ग के सांस्कृतिक आदान-प्रदानों को बहुत विस्तृत रूप से आलेखित किया था। आधुनिक विद्वानों का ऐसा मानना है कि, प्राचीन रेशम मार्ग के माध्यम से 13वीं शताब्दी ईस्वी में असम और अरुणाचल प्रदेश में आ बसे, ताई खामती समुदाय का मूल संबंध युनान प्रांत से था।
इस मार्ग का एक भाग ल्हासा से शुरू होकर चुंबी घाटी, नथुला दर्रे, कलिम्पोंग, और ताम्रलिप्ती बंदरगाह से होते हुए समुद्री रास्तों के माध्यम से श्रीलंका, दक्षिण-पूर्वी एशिया, और पूर्वी एशिया तक जाता था। इसका एक अन्य भाग म्यांमार से होकर कामरूप (वर्तमान असम) के रास्ते भारत तक आता था, जिसके पश्चात इसके हिस्से उत्तर में तिब्बत और दक्षिण में बंगाल के बंदरगाहों की ओर जाते थे।

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सिंघिक, सिक्किम, के पास ऐलिस एस. कैंडल द्वारा खींची गई, लेपचा पुरुष और महिला की तस्वीर (लगभग 1965)। छवि स्रोत : पिक्रिल

ल्हासा और ताम्रलिप्ति (तामलुक) के बीच की दूरी लगभग 900 किलोमीटर थी। यह रास्ता चीन के युनान में स्थित हेंगदुआन पर्वत और पूर्वोत्तर भारत के अन्य भागों से होकर गुज़रता था। खच्चरों के काफ़िले शक्कर, पशुलोम, नमक, ताँबा, कपास, ऊन, याक की पूँछ जैसी वस्तुओं को ढोया करते थे। केवल अधिक कीमती वस्तुओं को दूरवर्ती क्षेत्रों में पहुँचाया जाता था, जिनमें रेशम, चाय, और घोड़े प्रमुख रूप से शामिल थे। रेशम का कपड़ा अपने हल्केपन और बुनावट के लिए बहुत पसंद किया जाता था। यह प्रतिष्ठा और ताकत का प्रतीक भी था। आज की ही तरह, उस समय के धनवान व्यक्ति भी स्वयं और आम लोगों में फ़र्क करते थे, और रेशमी वस्त्र पहनकर अपनी प्रतिष्ठा का प्रदर्शन करते थे।
चीन में घोड़ों की बहुत ज़्यादा माँग हुआ करती थी। सामंतों पर नियंत्रण रखने के लिए उपयोग की जाने वाली बड़ी सेनाओं के लिए राजाओं को घोड़ों की आवश्यकता पड़ती थी। आदिवासी समुदायों के मुखिया और स्थानीय व्यापारी, जैसे कि यूज़ी खानाबदोश जनजातियाँ, घोड़ों को लगभग दस गुना अधिक दाम में बेचते थे। घोड़े और चाय भी रेशम के जितने ही लोकप्रिय थे, इसलिए चीनी लोगों ने इस मार्ग को “डायनज़ांग चामा गुड्डो” या “चाय और घोड़ों का प्राचीन मार्ग” नाम दिया था। घोड़ों और ऊँटों को इतना अधिक महत्त्व दिया जाता था कि बड़े रेशम मार्ग के साथ सक्रिय एक अन्य मार्ग पर ऐसा मिथक प्रचलित था कि दो कूबड़ वाले ऊँट धूल की आँधियों का पूर्वानुमान भी लगा सकते थे।

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उत्तर सिक्किम के लाचुंग क्षेत्र में एक महिला और छोटी लड़की पुल पार करते हुए (लगभग 1965 में ऐलिस एस. कैंडल द्वारा ली गई तस्वीर)। छवि स्रोत : पिक्रिल

ल्हासा और लान्ज़ू के उपमार्ग पूर्वी हिमालय से होते हुए सिक्किम के ऊँचे दर्रों तक जाते थे। जेलेपला से एक अन्य वैकल्पिक मार्ग निकलता था। नाथुला दर्रे के विपरीत जेलेपला दर्रा सालभर खुला रहता था। ये सभी उपमार्ग पूर्वी सिक्किम ज़िले में एक दूसरे से मिलते थे, जिसके बाद ये मार्ग पश्चिम बंगाल और बांग्लादेश के बंदरगाहों की ओर जाते थे। पूर्वोत्तर भारत से होकर जाने वाले इन मार्गों को मोटे तौर पर दो समूहों में वर्गीकृत किया जा सकता है :
1. ल्हासा-नाथुला/जेलेप ला-कलिम्पोंग-तामलुक-दक्षिणपूर्वी एशिया
2. युनान-म्यांमार-कामरूप-भारतीय उपमहाद्वीप के पूर्वी तट-दक्षिणपूर्व एशिया
सिक्किम एक पहाड़ी प्रदेश है, जहाँ अधिकतर पहाड़ी दर्रे नवंबर से अप्रैल तक हिमाच्छादित रहते हैं और इसी कारण पहला मार्ग अधिक लोकप्रिय नहीं था। चूँकि इसका उपयोग मौसम की अनुकूलता को देखते हुए ही किया जा सकता था, और सुरक्षा की दृष्टि से भी अनुकूल ना होने के कारण, इस मार्ग का महत्त्व समय के साथ धीरे-धीर कम होता गया। यात्रा की सुरक्षा के लिए आज भी सिक्किम के लोगों के बीच इन दर्रों पर प्रार्थना-ध्वज स्थापित करने की परंपरा है।

वस्तुएँ, व्यापारी, और दलाल

हर व्यापार की तरह, इसमें भी दलाल ही सबसे अधिक मुनाफ़ा कमाते थे। ल्हासा और कलिम्पोंग के बीच का व्यापार केवल एक ही जातीय समूह तक सीमित नहीं था। विख्यात पाश्चात्य मानचित्रकारों से पहले, एशियाई यात्रियों, राजनेताओं, व्यापारियों, और धर्मगुरुओं ने आदान-प्रदान की जाने वाली वस्तुओं और उनसे उत्पन्न सभी प्रयोजनों के बारे में विस्तृत ब्यौरे अभिलिखित किए थे।

तिब्बत के कुलीन लोगों, लामाओं, सिक्किम के काज़ियों, लद्दाख के कारवाँ-चालकों से लेकर मारवाड़ी व्यापारियों तक प्रत्येक व्यक्ति इस आर्थिक और अंतर-सांस्कृतिक लेन-देन का भाग था और इससे प्रभावित था। ल्हासा और सिक्किम के बीच 1950 के दशक तक व्यापार जारी रहा, जिसके चलते कलिम्पोंग और गंगटोक के बाज़ारों में खच्चर चालक दिखाई देना एक आम बात हुआ करती थी। यह मार्ग इसलिए और भी लोकप्रिय था क्योंकि तिब्बत के माध्यम से भारतीय व्यापारी चीन के बड़े बाज़ारों में वस्तुएँ बेचने के इच्छुक थे।

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1954 में कलिम्पोंग (भूतपूर्व सिक्किम राज्य का भाग) में ली गई एक तिब्बती खच्चर चालक की तस्वीर। छवि स्रोत : फ़्लिकर कॉमन्स

वर्ष 1962 में हुए भारत-चीन युद्ध के दौरान बंद होने से पहले, लगभग 400 वर्ष तक इन मार्गों का अधिकतर उपयोग ल्हासा के नेवारों द्वारा किया जाता था। ये मार्ग अंततः वर्ष 2005 में पुनः खोले गए। व्यापारियों के इस समुदाय का मूल संबंध काठमांडू घाटी से था और, स्थानिक बाधाओं से गुजरते हुए, ये लोग रेशम मार्ग पर तिब्बत-नेपाल-गंगा के मैदानों के बीच व्यापार करते थे। उनके कारवाँ नाथुला और जेलेपला दर्रों से होकर कलिम्पलोंग, गंगटोक, और पश्चिम बंगाल के अन्य भागों की ओर जाते थे।

तिब्बत कस्तूरी, पशुलोम, ऊन, बोरेक्स, और स्वर्ण के लिए प्रसिद्ध था। रेशम, सिचुआन या शू की कढ़ाई वाला कपड़ा, ज़रदोज़ी वाला वस्त्र, बाँस की लाठी, लोहे के बर्तन, हस्तशिल्प, घोड़े, चाय, ब्रिक चाय भी अत्यंत लोकप्रिय थे। इनमें तिब्बत का ऊन और सिचुआन का रेशम बहुमूल्य थे। यहाँ ऊन का लेन-देन इतना आम था कि इस मार्ग को ‘ऊन मार्ग’ (वुल रोड) भी कहा जाता था।

कारवाँ महीने भर के सफ़र को चरणों में पूरा करते थे। तिब्बत की खानाबदोश जनजातियाँ या न्गारी अथवा चांगथांग के दलाल ऊन को ल्हासा तक ले जाते थे। ल्हासा में इसके गट्ठे बनाकर इन्हें खच्चरों पर लादा जाता था। इन खच्चरों के पड़ाव ग्यांत्से, फारी, और यातुंग में होते थे। इसके बाद वे जेलेपला को पार कर कलिम्पोंग पहुँचते थे। यहाँ ऊन का वज़न किया जाता था, इसे अलग-अलग समूहों में बाँटा जाता था, और कोलकाता ले जाने से पहले भंडारण की व्यवथाओं में संग्रहीत किया जाता था। ल्हासा को देसी अनाज, मसाले, नमक, और सूत निर्यात किया जाता था। इससे कलिम्पोंग व्यापार का एक मुख्य केंद्र बन गया था।

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गंगटोक, सिक्किम, के बाज़ार का एक दृश्य (लगभग 1969, ऐलिस एस. कैंडल द्वारा ली गई तस्वीर)। छवि स्रोत : पिक्रिल

कलिम्पोंग (सिक्किम के ज़रिए) और तिब्बत के बीच के आर्थिक संबंध इस क्षेत्र के लिए इतने महत्त्वपूर्ण हो गए थे कि 20वीं शताब्दी के मध्य में कई तिब्बती लोग समूचे भारत को “कलिम्पोंग” कहते थे। दुर्गम मार्गों के कारण यहाँ विश्राम स्थलों के निर्माण की आवश्यकता महसूस की गई। पूर्वी सिक्किम में रिनाक नामक एक छोटा कस्बा है, जो पहला विश्राम स्थल बना। ल्हासा-कलिम्पोंग की यात्रा पर निकले यात्रियों के विश्राम के लिए रिनाक में डाक बंगला भी बनाया गया था। वर्तमान हाट बाज़ार भी रेशम मार्ग के समय से ही यहाँ मौजूद है। यहाँ पर व्यापारी अपना डेरा डाला करते थे। इस मार्ग पर कई अन्य छोटे व्यवसाय शुरू हुए, जिनके कारण यहाँ की अर्थव्यवस्था और लोगों की आबादी में वृद्धि हुई, जिसके परिणामस्वरूप व्यापार करने वाले कस्बों का विस्तार हुआ।

कलाएँ, संस्कृति, और जीवित परंपराएँ

स्थानीय समुदायों के व्यापार जैसे-जैसे बढ़ते गए, वैसे-वैसे उनके समाज अधिक उदार तथा विश्ववादी बनते गए। सिक्किम की संस्कृति, धर्म, पहनावा, और खानपान इस प्रदेश और उसके पड़ोसी प्रदेशों के साझा इतिहास को दर्शाते हैं।

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नंग्याल इंस्टीट्यूट ऑफ़ तिब्बतोलॉजी, गंगटोक, में मौजूद एक थंगका। छवि सौजन्य : विकिमीडिया कॉमन्स

रेशम मार्ग का सबसे बड़ा प्रभाव निश्चित रूप से इस क्षेत्र के धर्म पर पड़ा है। बौद्ध धर्म इन्हीं मार्गों के माध्यम से इस क्षेत्र में फैला और विकसित हुआ। शासकों ने इन मठों को आर्थिक संरक्षण प्रदान किया, और यहाँ होने वाले संस्कृतियों के मेल के कारण मठवासियों की नृत्य शैलियाँ अत्यंत लोकप्रिय हुईं। ल्हासा स्वयं एक मुख्य तीर्थस्थल बन गया और बरखोर या बरकुओ वहाँ का एक मुख्य बाज़ार बन गया। यहाँ दुकानदार अफ़गानिस्तान के लाजवर्द और खोटन (वर्तमान शिंजियांग) के किशमिश बेचते थे। परस्पर विकास के कारण गंगटोक और कलिम्पोंग जैसे कस्बों का विस्तार होने लगा, जिसके परिणामस्वरूप यहाँ के लोगों को कई लाभ प्राप्त हुए, क्योंकि ल्हासा व्यापार और ज्ञान के प्रचार-प्रसार का एक केंद्र बन गया। 7वीं शताब्दी में तिब्बती बौद्ध धर्म सिक्किम में फैला। इसे नंग्याल चोग्याल जैसे ताकतवर शासकों ने आर्थिक संरक्षण प्रदान किया। इसी शासनकाल में सिक्किम एक बौद्ध राज्य बन गया। वर्तमान में, हिंदू धर्म के बाद, बौद्ध धर्म इस राज्य का दूसरा सबसे बड़ा धर्म है।

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कलाकार रुमटेक मठ, सिक्किम, में मुखौटा नृत्य करते समय रेशमी वस्त्रों से लदे होते हैं। छवि स्रोत : विकिमीडिया कॉमन्स

सिक्किम और तिब्बत के बीच हुए बड़े पैमाने के व्यापार के कारण सस्ते और बेहतर गुणवत्ता वाले ऊनी, रेशमी, और सूती वस्त्र उपलब्ध होने लगे। हिमालय के पार होने वाले व्यापार पर मारवाड़ी समुदाय का आधिपत्य था। यह समुदाय वस्त्रों को मुख्य रूप से कलिम्पोंग (पश्चिम बंगाल) ले जाता था, जो भारत, सिक्किम, नेपाल, भूटान, तिब्बत, और चीन के बीच का एक मुख्य व्यापार केंद्र था। वर्ष 1959 में चीन ने तिब्बत पर आक्रमण कर दिया, जिसके बाद तिब्बती लोगों ने आश्रय के लिए बड़ी संख्या में सिक्किम की ओर पलायन किया। इन लोगों में उलाह शामिल थे, जो तिब्बत के अलग-अलग क्षेत्रों के अतिकुशल पुरुष और महिला दर्ज़ियों के एक समूह के सदस्य थे।

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भूटिया समुदाय के सदस्य, पारंपरिक रूप से रेशम और पशुलोम से बनाई जाने वाली पारंपरिक पोशाकों में। छवि स्रोत : भारतीय संस्कृति पोर्टल

13वीं शताब्दी में देन्जोंगपा या जो भूटिया लोग तिब्बत से आकर यहाँ बसे थे, वे ‘खो’ और उसके साथ जरदोजी वाले चीनी वस्त्र से बना हुआ ‘जजा’ या वास्कट पहनते हैं। इस वस्त्र को ड्रैगन के डिज़ाइन, ‘टंका’, ‘खोर्लो’ (तिब्बती भाषा में धर्म चक्र) या अन्य बौद्ध रूपांकनों से सजाया जाता है। ‘मो खो’ ऊन का बिना आस्तीन का वस्त्र है जो कमर पर बाँधा जाता है। इसे किसी भी उपलब्ध कपड़े से बनाया जा सकता है, लेकिन धनवान लोग इसे बनाने के लिए ज़रदोज़ी वाले चीनी वस्त्र पसंद करते थे।

आधुनिक इतिहास में

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सिक्किम के धनवान लोग ज़रदोज़ी वाले चीनी वस्त्र पसंद करते थे, जैसे कि यह बंडी। छवि स्रोत : भारतीय संस्कृति पोर्टल

17वीं शताब्दी में भूटान राज्य ने तिब्बत पर आक्रमण कर दिया और वर्तमान सिक्किम के अधिकतर भाग तथा पश्चिम बंगाल के कुछ भागों पर भी अपना कब्ज़ा जमा लिया। लेपचा समुदाय के कई लोगों को स्थानीय नेताओं के रूप में नियुक्त किया गया और उन्हें कलिम्पोंग के प्रशासन में अधिकार और पद दिए गए। लेकिन वर्ष 1865 में भूटान ने कलिम्पोंग और उसके पड़ोसी क्षेत्रों को अंग्रेज़ों को सौंप दिया। वर्ष 1893 में चीन-ब्रिटिश संधि हुई जिसके परिणामस्वरूप जेलेपला और नाथुला दर्रों पर व्यापार पुनः आरंभ हुआ। कलिम्पोंग दक्षिणी रेशम मार्ग के छोर पर स्थित था, जिसके कारण वहाँ हमेशा विविध संस्कृतियों के बीच आदान-प्रदान होता रहा। लेकिन स्थानांतरण के कारण यहाँ बड़े पैमाने पर तिब्बती आ बसे। पहला तिब्बती अखबार, ‘द टिबेट मिरर’ (वर्ष 1925 में स्थापित), सबसे पहले कलिम्पोंग में ही प्रकाशित हुआ था। तिब्बत के व्यापार मार्ग पर बसे कई लोग यह अखबार पढ़ते थे। इसलिए इसमें नियमित रूप से अलग-अलग वस्तुओं की कीमतों की जानकारी दी जाती थी।

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यंगहज़बैंड के अभियान में सहभागी रहे सर जॉन क्लाउड वाइट द्वारा ली गई तिब्बत के कांपा ज़ोंग की तस्वीर (1904)। छवि स्रोत : विकिमीडिया कॉमन्स

उपनिवेशवादियों ने प्राचीन मार्ग को पुनर्स्थापित करने के कई प्रयास किए। चीनी घुसपैठ पर नज़र रखने के लिए पूर्वोत्तर क्षेत्र एक महत्त्वपूर्ण मध्यवर्ती क्षेत्र था। पूर्वोत्तर क्षेत्र पर अपनी सत्ता स्थापित करने के लिए, वर्ष 1885 में, अंग्रेज़ों ने प्राचीन मार्ग पर अपना अधकार जमाने का प्रयास किया। वर्ष 1904 में जब फ़्रांसिस यंगहज़बैंड तिब्बत की यात्रा पर थे, तब उन्होंने इसी प्राचीन मार्ग से तिब्बत में प्रवेश किया था। यह मार्ग अब उत्तर और पूर्वी सिक्किम से होकर गुज़रता है। सिलीगुड़ी से प्रस्थान करने के बाद, अंग्रेज़ी सेना रंगपो, नाथांग और वहाँ से जेलेपला दर्रे को पार करके तिब्बत की चुंबी घाटी से होकर ल्हासा पहुँची। सर जॉन क्लाउड वाइट इस यात्रा के एक महत्वपूर्ण सदस्य थे, जो सिक्किम के पहले राजनीतिक अधिकारी भी थे। वे एक शौकीन छायाकार थे और उन्होंने निषिद्ध शहर, ल्हासा, की प्रारंभिक तस्वीरें भी खींची थीं।

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स्टिलवेल सड़क के चिह्न के सामने खड़े मित्र राष्ट्र के सैनिक, लगभग 1944-45। छवि स्रोत : विकिमीडिया कॉमन्स

द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान, यह मार्ग, मित्र राष्ट्र सेना के लिए, पूर्वोत्तर भारत और ऊपरी म्यांमार के रास्ते चीन को आवश्यक वस्तुएँ पहुँचाने का एक मुख्य माध्यम था, जिसके कारण रणनीति के दृष्टिकोण से इस मार्ग का महत्त्व कई गुना अधिक बढ़ गया था। मार्ग की इसी क्षमता को देखते हुए लेडो-स्टिलवेल मार्ग का विकास हुआ। यह मार्ग असम में लेडो, अरुणाचल प्रदेश के कुछ भागों, और नागालैंड के रास्ते युनान स्थित कुनमिंग तक जाता था। शाही जापानी सेना के विरुद्ध युद्ध के दौरान आवश्यक वस्तुओं की पूर्ती के लिए भी इस मार्ग का उपयोग किया गया था। यह पूर्वोत्तर भारत और दक्षिण-पश्चिमी चीन को जोड़ने वाला सबसे छोटा थलमार्ग भी था। और इस प्रकार प्राचीन और नवीन, दोनों, मार्गों को जोड़कर आदान-प्रदान की एक व्यापक प्रणाली का निर्माण किया गया, जिसके परिणामस्वरूप यहाँ अंतर्राष्ट्रीय दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण सांस्कृतिक और राजनीतिक प्रक्रियाओं का जन्म हुआ।

वर्तमान मार्ग

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गंगटोक, सिक्किम (लगभग 1965), ऐलिस एस. कैंडल द्वारा ली गई तस्वीर। छवि स्रोत : पिक्रिल

हम वैश्वीकरण को एक विलक्षण आधुनिक घटना मानते हैं, लेकिन यह दो हज़ार वर्ष पहले से ही अस्तित्व में था। रेशम मार्ग वर्तमान सिक्किम के सर्वश्रेष्ठ पर्यटन स्थल हैं। आधुनिक विद्वानों का ऐसा मानना है कि इनके कारण ही भू-पर्यटन की शुरुआत हुई है, जो एक नए प्रकार का पर्यटन है, जिसमें एक क्षेत्र की भूवैज्ञानिक और भू-आकृति वैज्ञानिक धरोहर का मूल्यांकन, समर्थन, और अनावरण किया जाता है।

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वर्तमान गंगटोक का हवाई दृश्य। छवि स्रोत : विकिमीडिया कॉमन्स

ज़ुलुक, लाचेन, लाचुंग, पेदोंग, कलिम्पोंग, और नाथुला से होकर गुज़रने वाले प्राचीन रेशम मार्ग के इस हिस्से में पद-यात्राओं और पर्यटन के कई विकल्प हैं। स्थानीय विक्रेता और व्यवसायकर्ता भी अपनी दुकानों को “होटल सिल्क रूट” या “सिल्क रूट ट्रेडिंग कंपनी” जैसे नाम देकर रेशम मार्ग के नाम का धन कमाने के लिए उपयोग करते हैं। उत्पादों को अक्सर उनकी उत्पत्ति के स्थान से जोड़कर देखा जाता है, जिसके कारण किसी विशिष्ट उत्पाद को उसकी उत्पत्ति के स्थान का नाम देने से वह स्थान यादगार बन जाता है। रेशम मार्गों के कारण सभ्यताओं के बीच संपर्क स्थापित हुआ, इसीलिए ये उनके बीच सेतु के समान थे , जो अब दोबारा महत्वपूर्ण बनने लगे हैं, हालाँकि कुछ लोगों का कहना है कि इनका उपयोग कभी पूरी तरह बंद ही नहीं हुआ था।