भारत अपनी प्रदर्शन कला, हस्तशिल्प, चित्रकला, मूर्तिकला और वास्तुकला के माध्यम से प्रदर्शित समृद्ध, विविध संस्कृति के लिए जाना जाता है। देश के विभिन्न समुदायों की विचारधाराओं, भाषाओं और परंपराओं के परिणामस्वरूप विभिन्न प्रकार की प्रदर्शन कला शैलियों ने जन्म लिया है। इन कला शैलियों में से एक, नृत्य, की प्राचीन काल से भारतीय समाज में एक महत्वपूर्ण भूमिका रही है।
पारंपरिक कथाओं के अनुसार, इंद्र देव (वायु भगवान) के दरबार में देवताओं और राक्षसों के सामने पहला नृत्य नाटक प्रस्तुत किया गया था। राक्षसों पर इंद्र देव की जीत पर आधारित यह नृत्य नाटक, भरत मुनि द्वारा निर्देशित और निर्मित किया गया था, जिसमें उनके सौ बेटों ने अभिनेताओं के रूप में भाग लिया था। पूर्वाभ्यास के दौरान, भरत को महिलाओं द्वारा ही महिला पात्रों की भूमिकाओं को निभाने की आवश्यकता महसूस हुई। वे तब सृष्टि के सृजनकर्ता, ब्रह्मदेव के पास पहुँचे। उनकी बात सुनकर, ब्रह्मदेव ने अप्सराओं की रचना की, जिन्होंने न केवल नाटक में भाग लिया, बल्कि वे इंद्र देव के दरबार का भाग भी बन गईं।
भारतीय नृत्य शैलियों को शास्त्रीय नृत्य और लोकनृत्य नामक दो श्रेणियों में सामान्यत: वर्गीकृत किया जा सकता है। इनमें से अधिकांश नृत्य शैलियों का, चाहे वे शास्त्रीय हों या लोक हों, धर्म से सीधा संबंध रहा है। ये नृत्य प्रायः नृत्य देवता के प्रति भक्ति व्यक्त करने के रूप में प्रस्तुत किए जाते थे।
सभी शास्त्रीय नृत्य शैलियाँ पाँचवे वेद, जिसे नाट्य शास्त्र कहा जाता है, पर आधारित हैं। यद्यपि इस ग्रंथ की रचना की सही तिथि का पता नहीं लगाया जा सकता है, परंतु पौराणिक रूप से, यह माना जाता है कि भगवान ब्रह्मा जी की आज्ञा पर, ऋषि भरत ने नाट्य शास्त्र को संहिताबद्ध कर उसकी रचना की थी।
ब्रह्मदेव
भरत मुनि
नाथाथ शास्त्रं नाथाथ शिल्पं न स विद्या I
न स कला न असौयोग्यो नथतः कर्म ॥
यतः नाट्य न दृष्यथे I
‘ऐसा कोई शास्त्र नहीं है, कोई मूर्तिकला नहीं है,
कोई ज्ञान नहीं है, कोई कला नहीं है, कोई योग नहीं है
और न ही कोई क्रिया है
जिसे नाट्य के रूप में प्रस्तुत नहीं किया जा सकता है।‘
नाट्य शास्त्र सभी प्रदर्शन कला शैलियों के लिए एक पवित्र ग्रंथ माना जाता है। नाट्य शास्त्र के मुख्य पहलुओं में से एक, अभिनय (अभिनेता द्वारा भाव व्यक्त करने के तरीके) का इस ग्रंथ में बहुत विस्तार से उल्लेख किया गया है। नृत्य, नाटक और अन्य प्रदर्शन कलाओं में उपयोग किए जाने वाले अन्य पहलुओं, जैसे आकर्षक शारीरिक संचलन और अंग विन्यास, मुद्रा (हाथ के भाव) और रस (सौंदर्य अनुभव) के बारे में भी विस्तृत रूप में लिखा गया है।
नाट्य शास्त्र के अनुसार, कला शैलियों को तीन प्रमुख श्रेणियों में वर्गीकृत किया जा सकता है:
नृत्त: यह सम्पूर्णत: गानों की लय पर शरीर के संचालन पर आधारित है। इसमें प्रस्तुति के लिए अभिनय कला का उपयोग नहीं किया जाता है।
नृत्य: यह नृत्त एवं अभिनय का संयोजन है। अभिनय के दो प्रमुख तत्वों में रस (भाव) और भाव (चेहरे की अभिव्यक्ति) शामिल हैं।
नाट्य: नाट्य ऐसा कला रूप है जिसमें संगीत और नृत्य के साथ संवादों का भी उपयोग होता है। अर्थात, यह कहानी कहने का नाटकीय निरूपण है।
भारत के अधिकांश शास्त्रीय नृत्य, जो पूर्णत: नाट्य शास्त्र पर आधारित हैं, उनकी उत्पत्ति मंदिरों में हुई थी। इसका एक उदाहरण तमिलनाडु का सादिर अट्टम है, जो आज भरतनाट्यम के नाम से प्रचलित है।
वर्तमान में राष्ट्रीय संग्रहालय, नई दिल्ली, में भगवान नटराज की कांस्य मूर्ति
दक्षिण भारत की देवदासियाँ
पौराणिक रूप से, यह माना जाता है कि इंद्र देव के दरबार की अप्सराओं में से एक, उर्वशी ने देवदासियों को नृत्य सिखाया था। देवदासी शब्द में देव का अर्थ है ‘ईश्वर’ और दासी का अर्थ है ‘भक्त’, और वह दक्षिण भारत के मंदिर की नर्तिका होती थी। देवदासी परंपरा में बहुत कम आयु की लड़कियों को मंदिर सेवा में समर्पित कर दिया जाता था और उन्हें देवताओं के साथ विवाहित माना जाता था। इसके लिए पोट्टूकट्टल नामक एक समारोह किया जाता था, जिसमे लड़कियों को उनके गले में एक बोट्टू (सोने की चेन) पहनाई जाती थी, जो देवता के साथ उनके विवाह का प्रतीक थी। देवदासियों को अक्सर नित्य सुमंगली (सदा विवाहित) कहे जाने के भी उल्लेख मिलते हैं। जब एक लड़की देवदासी बन जाती थी, तो उनको सादिर अट्टम, जिसे दासी अट्टम भी कहा जाता है, नृत्य कला में, नट्टुवनार या कूथिलियार नामक नृत्य गुरुओं द्वारा, प्रशिक्षण दिया जाता था। नट्टुवनार एक गुरु की भूमिका निभाते थे और यह सुनिश्चित करते थे कि यह कला शैली पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़े। कई वर्षों के प्रशिक्षण के बाद, अपने अरंगेत्रम (प्रथम नृत्य प्रदर्शन) के अवसर पर, देवदासियाँ थलईकोल की उपाधि अर्जित करती थीं।
राजाओं और समाज के अन्य प्रभावशाली वर्गों द्वारा संरक्षित, देवदासियाँ मंदिर परिसरों मे नृत्य मंडप (नाट्यमंडप) में प्रदर्शन किया करती थीं। वे मंदिर से जुड़ी अन्य गतिविधियों में भी शामिल होती थीं और उनके नृत्य को अनुष्ठान पूजा का एक महत्वपूर्ण भाग माना जाता था।
नृत्य करती और वाद्य यंत्र बजाती देवदासियाँ
चित्र सौजन्य – पीएसबीटी
नृत्य प्रदर्शन के अवसर के आधार पर दासियों को अलग-अलग नाम दिए जाते थे, जैसे कि विवाह एवं अन्य समारोहों मे नृत्य करने वाली ‘अलंकार दासियाँ’ और शाही समारोह में नृत्य प्रदर्शन करने वाली ‘राजदासियाँ’। ऐसा कहा जाता है कि महान चोल राजा, राजा राजा देव प्रथम ने लगभग चार सौ देवदासियों का संरक्षण किया, जो तंजौर के बृहदेश्वर मंदिर में अनुष्ठान नृत्य और अन्य समारोहों में प्रदर्शन किया करती थीं।
भारत में अंग्रेज़ों के आने से पहले तक देवदासियाँ का समाज में एक सम्मानजनक स्थान हुआ करता था। अंग्रेज़ों ने नृत्य की भारतीय अवधारणाओं को पश्चिमी विचारधाराओं से निचले दर्जे का माना। जल्द ही, देवदासियों को समाज के निचले स्तर पर धकेल दिया गया और उन्हें केवल दासियों और वेश्याओं के रूप में देखा जाने लगा। शासक वर्ग ने इस कला शैली और कलाकारों का संरक्षण बंद कर किया और जल्द ही देवदासी प्रथा लुप्त हो गई। ऐसा कहा जाता है कि इसके परिणामस्वरूप, जीवित रहने के लिए, देवदासियों को वेश्यावृत्ति करने पर मजबूर होना पड़ा। एक समय तक स्थिति इतनी खराब हो गई थी कि देवदासी शब्द को भी अपमानजनक और निम्न दर्जे का माना जाने लगा था।
इसके साथ, वर्ष 1947 में एक विधेयक पारित किया गया, जिससे देवदासी व्यवस्था को समाप्त कर दिया गया, जिसके परिणामस्वरूप देवदासी समुदाय समाज से पूरी तरह लुप्त हो गया। आज भी, इन परिवारों का कोई निशान नहीं है जो दशकों से नृत्य प्रदर्शन में लगे हुए थे।
इस दौरान, कई हस्तियों द्वारा इस कला शैली को पुनर्जीवित करने के बहुत प्रयास किए गए। इसमे वकील एवं स्वतंत्रता सेनानी, ई कृष्णा अय्यर, एक प्रमुख हस्ती थे, जिन्होंने स्वयं इस कला को सीखा और इसका प्रदर्शन किया।
प्रसिद्ध भरतनाट्यम नर्तकी, टी. बालासरस्वती
कलाक्षेत्र संस्थान, चेन्नई, की संस्थापक, रुक्मिणी देवी अरुंडेल।
प्रदर्शन जारी रखने वाली कुछ अंतिम देवदासियों में टी. बालासरस्वती थीं। उन्हें इस पारंपरिक कला को संरक्षित करने का श्रेय दिया जाता है।
एक अन्य प्रमुख हस्ती हैं, रुक्मिणी देवी, जिन्होंने वर्ष 1935 में अपने प्रथम प्रस्तुति के साथ लोगों की सोच को बदल दिया। उन्होंने चेन्नई में कलाक्षेत्र संस्थान की स्थापना की जिसके प्रयासों द्वारा प्रदर्शन कला रूपों को प्रोत्साहन मिला।
भरतनाट्यम का उद्भव सादिर अट्टम के प्राचीन नृत्य से जुड़ा हुआ है। सादिर का भरतनाट्यम के रूप में परिवर्तन कब हुआ यह तो नहीं पता, लेकिन यह एक शास्त्रीय नृत्य शैली है जो कभी समाप्ती पर थी, और आज वर्षों से जीवित रहने में सफल रही है।
तमिलनाडु की देवदासियाँ
चित्र सौजन्य – पीएसबीटी
भरतनाट्यम काफी हद तक एक नया शब्द है और यह शब्द भाव (अभिव्यक्ति), राग (संगीत), ताल (लयबद्ध पैटर्न) और नाट्यम (नृत्य) से लिया गया है। भरतनाट्यम केवल ‘नाट्य शास्त्र’ पर ही आधारित नहीं है, बल्कि ‘अभिनय दर्पण’ पर भी आधारित है जिसे नंदिकेश्वर द्वारा लिखित माना जाता है।
नाट्य शास्त्र की तरह, अभिनय दर्पण भी मुद्राओं, शरीर के संचालन और अन्य हाव-भावों पर एक विस्तृत ग्रंथ है, जो इस कला का आधार है।
जैसा कि नाट्य शास्त्र में उल्लेखित है, भरतनाट्यम तांडव और लास्य की अवधारणाओं पर आधारित है। कहा जाता है कि ये अवधारणाएँ भगवान शिव के नृत्य से उत्पन्न हुई हैं।
प्राचीन कथाओं के अनुसार, ऋषि भरत द्वारा रचित, समुद्रमंथन पर आधारित एक नाटक, कैलाश पर्वत पर भगवान शिव के सामने प्रस्तुत किया गया। प्रस्तुति को देखकर भगवान शिव इस कदर प्रसन्न हो गए कि वह तांडव करने के लिए तैयार हो गए। प्रदोष के शुभ मुहूर्त पर, भगवान शिव ने तांडव किया और उसमें से प्रसिद्ध 108 करण (मुद्राएँ) उत्पन्न हुईं, जिन्हे तमिलनाडु के प्रमुख मंदिरों की दीवारों पर देखा जा सकता है। भगवान शिव ने अनुभव किया कि नृत्य नाज़ुक भावों (लास्य) के बिना अपूर्ण था। उन्होनें अपनी अर्धांगिनी, देवी पार्वती को लास्य सिखाया, जिन्होंने फिर भगवान शिव के लिए इसकी प्रस्तुती दी। इन्हें तब ऋषि भरत ने प्रलेखित किया और ये नाट्य शास्त्र का आधार बने।
चिदंबरम के नटराज मंदिर की दीवारों पर दर्शाए गए 108 करणों में से एक, विक्षिप्त करण
चिदंबरम के नटराज मंदिर की दीवारों पर दर्शाए गए 108 करणों में से एक, विषकम्भ करण
चिदंबरम के नटराज मंदिर की दीवारों पर दर्शाए गए 108 करणों में से एक, पार्श्वजनु करण
चिदंबरम के नटराज मंदिर की दीवारों पर दर्शाए गए 108 करणों में से एक, अर्गला करण
भरतनाट्यम के दो मुख्य तत्व हैं, ‘नृत्त’ जिसमें शुद्ध नृत्य और पैरों को तेज़ी से चलाना होता है, और ‘नृत्य’ जिसमे अभिनय (भाव व्यक्त करना) के साथ पैरों को चलाना होता है।
भरतनाट्यम में नृत्त की मूल इकाई अडवु (पैरों को चलाना) है। पैरोंं के चलाने के साथ कुछ मुद्राएँ हैं, जो इस नृत्य को दूसरों से अलग बनाती हैं। इनमे स्थानं (खड़े होने की मुद्रा), अराइमंडी (आधा बैठने की मुद्रा) और मुज़ुमंडी (पूर्ण बैठने की मुद्रा) शामिल हैं।
पैरोंं का चलाना संगीत की ताल के अनुसार होता है। इन तालों को मंद, मध्यम और तेज़, इन तीन प्रकारों में वर्गीकृत किया जा सकता है। भारत के अन्य शास्त्रीय नृत्यों से अलग, भरतनाट्यम अपनी रीतिबद्ध मुद्राओं, लयबद्ध गति और पैरोंं के कठोर संचालन के लिए जाना जाता है।
पैरोंं का संचालन हाथ की मुद्राओं या हस्त के साथ होता है जो अभिव्यक्ति के माध्यम के रूप में कार्य करते हैं। इन्हें दो प्रकार में वर्गीकृत किया जा सकता है; ‘असम्युत हस्त’ (एक हाथ की मुद्रा) और ‘सम्युत हस्त’ (दोनों हाथों की मुद्रा) जो कि नाट्यशास्त्र और अभिनय दर्पण में उल्लिखित श्लोकों के अनुसार होती हैं।
असमयुत हस्त, एक हाथ की मुद्रा
नृत्य का एक महत्वपूर्ण पहलू अभिनय है, जो इस कला के आधार का निर्माण करता है। एक भरतनाट्यम कलाकार अभिनय का उपयोग दर्शकों के बीच विचारों को व्यक्त करने और भावनाओं को जागृत करने के लिए करता है। अभिनय को चार प्रकारों में वर्गीकृत किया जा सकता है:
प्रसिद्ध तंजौर चौकड़ी, चिन्नय्या, पोन्नय्या, शिवानंदम और वडीवेलु जो कर्नाटक संगीत और नृत्य के क्षेत्र में योगदान के लिए जाने जाते हैं, उनके द्वारा भरतनाट्यम के ढांचे की उचित संरचना की गई थी। तंजौर के मराठों के शाही दरबार के सदस्य, इन महान संगीतकारों को नृत्य को एक परिष्कृत कला के रूप में बदलने और भरतनाट्यम के मौजूदा रूप के घटकों को निर्मिति करने के लिए श्रेय दिया जाता है।
अलारिप्पु - भरतनाट्यम नर्तक इसके साथ अपना नृत्य शुरू करता है, जिसका शाब्दिक अर्थ ‘फूल का खिलना’ है। इस नृत्य कृति की रचना नृत्त की अवधारणा का उपयोग करते हुए, एक फूल के खिलने के विचार के आसपास केंद्रित होती है।
जातीस्वरम - विस्तृत पद संचालन, भावों और मुद्राओं का उपयोग करते हुए, जातीस्वरम, स्वरों के मधुर प्रकारों से रचित होता है।
तंजौर चौकड़ी
भरतनाट्यम नर्तकी द्वारा अभिनय (भाव या अभिव्यक्ति)
शब्दम - इसमे एक पौराणिक कहानी या किंवदंती को चित्रित करने के लिए कलाकार अभिनय का उपयोग करता है। नृ्त्य की संकल्पना के आधार पर, जिस गीत पर इस भाग का प्रदर्शन किया जाता है, वह भी इस बात का स्पष्टीकरण होता है कि कहानी किस बारे में है। भरतनाट्यम नृत्य में सबसे प्रसिद्ध शब्दम में से एक महाभारत शब्दम है, जिसमें चौसर के खेल का दृश्य और इसके आगे के परिणामों को दर्शाया जाता है।
वर्णम - यह दोनों, नृत्य और अभिनय, सहित सबसे लंबा और सबसे विस्तुत भाग होता है। सबसे अधिक भावबोधक नृत्य प्रदर्शनों में से एक, वर्णम, दर्शकों के बीच भाव (चेहरे की अभिव्यक्ति) और रस (भावना) का उपयोग करके नर्तक को विभिन्न मनोदशाओं को चित्रित करने में सक्षम बनाता है।
पदम - पदम, नृत्य की संकल्पना पर आधारित है, और कलाकार द्वारा व्यक्त की गई भावनाओं के संदर्भ में अधिक विस्तृत है। यह खंड कलाकार को, भाव और रस के पहलुओं का उपयोग करके, पात्र के विचारों और भावनाओं के साथ गहराई से जोड़ता है।
तिल्लाना - तिल्लाना भरतनाट्यम प्रदर्शनों की सूची का अंतिम हिस्सा होता है जो पूरी तरह से नृत्त की अवधारणा पर आधारित है। अंतिम प्रदर्शन के रूप में, यह एक लयबद्ध खंड है जो पैरोंं के ज़ोरदार संचालान, मुद्राओं और हाथों की मुद्राओं का उपयोग करके दर्शकों का ध्यान आकर्षित करता है।
प्रदर्शनों की सूची में कीर्तनम, जवाली, भजन और मंगलम जैसे अन्य नृत्य खंड भी शामिल होते हैं।
भरतनाट्यम प्रदर्शन में, नर्तक के साथ एक वादक समूह भी होता है। इसमें न केवल वाद्य वादक बल्कि गुरु भी शामिल होते हैं, जो ताल (सोल्लुकेट्टू) का उच्चारण करते हैं और नट्टूवंगम का उपयोग करते हुए नर्तक का मार्गदर्शन करते हैं।
एक भरतनाट्यम नृत्य मुद्रा
संगीत और वाद्ययंत्र वाचिका अभिनय (गीत और संगीत के माध्यम से अभिव्यक्ति) का एक भाग होते हैं। भरतनाट्यम नृत्य कर्नाटक संगीत की ताल और लय पर किया जाता है। प्रस्तुति की शुरुआत गायन के साथ होती है जिसके बाद वाद्य यंत्रों द्वारा ताल बजाई जाती है। नृत्य, स्वर संगीत और वाद्य संगीत के इस संयोजन को प्रयोग कहा जाता है।
मृदंगम, वीणा, बांसुरी, वायलिन, तालम, घटम, कांजीरा, तंबूरा, नादस्वरम और हारमोनियम कुछ सामान्य वाद्ययंत्र हैं जो भरतनाट्यम नर्तक का साथ देते हैं।
वाद्ययंत्रों का एक समूह जिसका उपयोग भरतनाट्यम नृत्य में किया जाता है।
इस कला रूप की मूल संरचना समान होती है, लेकिन उसमें घरानों या शैलियों के आधार पर भिन्नताएँ भी होती हैं। भरतनाट्यम की विभिन्न शैलियों का उदय, जिन्हें बानी कहा जाता है, इस नृत्य के, तंजौर के सांस्कृतिक केंद्र से बाहर निकलकर दक्षिण भारत के अन्य स्थानों तक पहुँचने के कारण हुआ। गुरु और शिक्षक वर्षों से इस कला रूप को संशोधित और बदते आ रहे हैं, जिसके परिणामस्वरूप ये विभिन्न शैलियाँ उभरकर सामने आईं हैं:
1. तंजावुर शैली -यह बानी तंजावुर के शासकों के दरबार में उत्पन्न हुई है और इसे सबसे पुरानी बानियों में से एक माना जाता है। इस शैली के गुरु प्रसिद्ध तंजौर चौकड़ी के प्रत्यक्ष वंशज हैं। कंडप्पा पिल्लई, इस शैली के प्रसिद्ध नट्टुवनारों (गुरु/शिक्षक) में से एक और तंजौर चौकड़ी के प्रत्यक्ष वंशज थे जो प्रसिद्ध कन्नुस्वामी पिल्लई द्वारा प्रशिक्षित थे। ‘बड़ौदा’ कन्नुस्वामी पिल्लई के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने बड़ौदा दरबार में नर्तकों के समूह का नेतृत्व किया, जिसे तंजावुर मराठा राजकुमारी के साथ बड़ौदा के राजकुमार के साथ विवाह के दौरान दहेज के रूप में भेजा गया था। कंडप्पा पिल्लई के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने मूल तंजावुर शैली से थोड़ा हटकर, संगीत और लय की भूमिका पर जोर देते हुए, शैलीगत बदलाव प्रस्तुत किए। कंडप्पा पिल्लई ने प्रसिद्ध नर्तकी टी. बालासरस्वती को प्रशिक्षित किया, जिन्हें इस कला को उस समय संरक्षित करने का श्रेय दिया जाता है जब यह कला समाप्ती के कगार पर थी। भरतनाट्यम की यह शैली अभिनय और नृत्त, दोनों की संकल्पनाओं को समान महत्व देती है।
2. पंडानल्लूर शैली - पंडानल्लूर शैली का श्रेय प्रसिद्ध मिनाक्षिसुंदरम पिल्लई को दिया जाता है, जो तंजौर चौकड़ी के प्रत्यक्ष वंशज थे। कन्नुस्वामी पिल्लई के बहनोई, मिनाक्षिसुंदरम पिल्लई ने पारंपरिक तंजावुर शैली में कुछ बदलाव किए और अपनी स्वयं की रचना को बनाया और उसे अपने गाँव, पंडानल्लूर, का नाम दिया। यह पारंपरिक तंजावुर शैली से अलग है क्योंकि यह रेखीय ज्यामिति पर आधारित है और सटीक मुद्राओं पर अधिक ध्यान केंद्रित करती है। भरतनाट्यम की पंडानल्लूर शैली को रेखीय हस्त मुद्राओं के अधिक उपयोग के साथ साथ सूक्ष्म गति, और कोमल और स्पष्ट पद संचालन के लिए जाना जाता है।
3. वज़ुवूर शैली - वज़ुवूर शैली की उत्पत्ति तमिलनाडु के वज़ुवूर शहर के रमैया पिल्लई द्वारा की गई थी। जैसे ही यह शैली छोटे से गाँव वज़ुवूर में उत्पन्न हुई इसके अधिकांश प्रदर्शनों की शुरुआत इस गाँव के ग्राम देवता, ज्ञान सबेसा, की प्रार्थना से होती थी। पद्मा सुब्रमण्यम, एक प्रसिद्ध कलाकार और रमैया पिल्लई के शिष्यों में से एक हैं, जिन्हें उनके यथार्थवादी अभिनय के लिए जाना जाता है, जो इस शैली की प्रमुख विशेषता है। वज़ुवूर शैली में लास्य की अवधारणा सबसे महत्वपूर्ण है और यही इसे दूसरी शैलियों से अलग बनाती है। इस शैली का केंद्रबिंदु नृत्य के स्त्री-संबंधी पहलुओं पर आधारित है, जिसमें श्रृंगार रस का अधिक उपयोग किया जाता है। यथार्थवादी अभिनय इस शैली की प्रमुख विशेषताओं में से एक है।
भरतनाट्यम नर्तकी, पद्मा सुब्रमण्यम
भरतनाट्यम नर्तकी, रुक्मिणी देवी अरुंडेल
4. कलाक्षेत्र शैली - इस शैली का श्रेय मिनाक्षी सुंदरम पिल्लई की शिष्या और एक प्रसिद्ध भरतनाट्यम कलाकार, रुक्मिणी देवी अरुंडेलको दिया जाता है। रुक्मिणी देवी ने चेन्नई में कलाक्षेत्र संस्थान की स्थापना की, जिसने भरतनाट्यम को एक कला शैली के रूप में बढ़ावा देने के लिए एक मंच प्रदान किया। भरतनाट्यम की यह विशिष्ट शैली शैलीबद्ध अभिनय पर केंद्रित है। वज़ुवूर शैली के विपरीत, यह लास्य और श्रृंगार अभिव्यक्ति पर ध्यान केंद्रित नहीं करती है। कलाक्षेत्र शैली में कुछ हद तक, अडवुओं के साथ तुलनात्मक रूप से कठिन मुद्राओं का उपयोग होता है।
5. मेलत्तूर शैली इस शैली का श्रेय मंगुड़ी दोइरईराजा अय्यर को जाता है। यह अपने कोमल पद संचालन और श्रृंगार रस पर ज़ोर देने के लिए जानी जाती है। इस शैली के नर्तक फ़र्श पर पैरों को जोर से नहीं पटकते हैं, जिससे दर्शकों को संगीत की ताल और चलेंगा (घुंघरू) पर ध्यान केंद्रित करने का अवसर मिलता है।
भारतीय शास्त्रीय नृत्य की वेशभूषा और आभूषण राज्य के आधार पर भिन्न भिन्न होते हैं। वेशभूषा अभिव्यक्ति का एक रूप है, और हालाँकि मूल वेशभूषा शैली समान होती है, एक कलाकार को नृत्य में चित्रित पात्र को उजागर करने के लिए वस्तुओं और रंगमंच-सामग्री को जोड़ने की स्वतंत्रता होती है।
वेशभूषा, आभूषण और श्रृंगार भरतनाट्यम में आहार्य अभिनय का एक भाग हैं।
इस कला शैली की वेशभूषाओं और आभूषणों में पिछले कुछ वर्षों में कई बदलाव आए हैं।
सादिर अट्टम के समय से, साड़ी मूल वस्त्र था जिसे देवदासियों द्वारा नृत्य प्रदर्शन के समय पहना जाता था। उनकी साड़ी पायजामें के रूप में होती थी और साड़ी का पल्लू पंखे (विसरी) जैसा बनाया जाता था, जो आज भी वेशभूषा का एक अभिन्न अंग है।
धनंजय
तमिलनाडु की देवदासियाँ स्वयं को कीमती पत्थरों से जड़े शुद्ध सोने से बने आभूषणों से सजाती थीं। ये अक्सर उन्हें उनके संरक्षकों द्वारा उनकी सेवाओं के बदले में दिए जाते थे। जल्द ही, आभूषण केवल देवदासियों के लिए उनकी वेशभूषा का भाग ही नहीं थे, बल्कि यह उनका धन, शक्ति और समृद्धि के प्रतीक थे और उनकी आर्थिक सुरक्षा सुनिश्चित करते थे। इसके परिणामस्वरूप, देवदासियाँ प्रदर्शन करते समय उनके पास मौजूद सभी आभूषणों को पहन लिया करती थीं।
आज, भरतनाट्यम एक नृत्य के रूप में अधिक संरचित और अनुशासित है। यह इसकी वेशभूषा के साथ-साथ आभूषणों में भी दिखाई देता है। वर्तमान समय में सबसे आम वेशभूषा कांचीपुरम रेशम से बना पाँच हिस्सों वाला वस्त्र है, जिसमें ब्लाउज़ (रविक्कई), पायजामा/पैंट (कलकच्छी), ऊपरी शरीर को ढकने वाला वस्त्र (मेलक्कू/धवानी), पीठ का वस्त्र (इडुप्पु कच्छई) और, विशिष्ट घटक, पंखा (विसरी) शामिल हैं। इस वेशभूषा में भिन्नताएँ हो सकती हैं, जिसमें पैंट की जगह, पंखे के साथ संलग्न तहों (प्लीटों) वाला लंबा घाघरा (स्कर्ट) पहना जा सकता है। वेशभूषा का एक और प्रकार, वांछित लंबाई में एक आधी-सिली साड़ी, है।
भरतनाट्यम पोशाक के घटक
पुरुष नर्तक, जिनका हालाँकि ऊपरी शरीर ज्यादातर खुला होता है, एक अंगवस्त्रम (ऊपरी आवरण) का उपयोग कर सकते हैं। पोशाक के अन्य तत्वों में पायजामा/पैंट, पीठ का वस्त्र, पंखा और वास्कट शामिल हैं।
भरतनाट्यम नर्तकियों द्वारा पहने गए आभूषण तमिलनाडु में तंजावुर के क्षेत्र की विशेषता हैं। नर्तकी अपने बालों की बेनी बनाती है और उसमे बहुत सारे मल्लिपू (चमेली के फूल) और कनकंबरम (नारंगी और पीले फूल) लगाती है।
नर्तकी के बालों को राककोटी कुंजलम के साथ सजाया जाता है, जो आमतौर पर तंजावुर की महिलाओं द्वारा पहना जाता है।
भरतनाट्यम में प्रयुक्त आभूषण
आभूषण सिर, नाक, कान, गर्दन, हाथ, उंगलियों, कमर और पैरों में पहने जाते हैं
सिर - सूर्य चंद्रन और नेत्री चुट्टी
नाक - मुकुथी, नथू
कान - जिमीक्की, टोडू, मट्टल
गर्दन - चोकर (पड़कम, मंगई मलाई) और लंबा हार (मुथुमलाई, कसुमलई)
हाथ - वलयाल, वंगी
उंगली - मोदीरम
कमर - ओट्टियानम
पैर - घुंघरू
इनके अलावा, चित्रित किए गए पात्रों से संबंधित कुछ आभूषणों का उपयोग, अभिनय और कहानी को बहतर रूप से बताने के लिए किया जा सकता है।
भरतनाट्यम एक कला के रूप में, शैली, वेशभूषा और आभूषणों के संबंध में, वर्षों से विकसित हुआ है। मंदिर परिसर से बाहर दुनिया भर के मंचों तक, भरतनाट्यम भारत के सबसे व्यापक रूप से ज्ञात शास्त्रीय नृत्यों में से एक है। इसने अन्य राष्ट्रों के युवा छात्रों को भी आकर्षित किया है जो इस कला शैली की जटिलताओं को सीखने और ज्ञान प्राप्त करने के लिए आते हैं।
भारत की नृत्य शैलियाँ समय के साथ विकसित हुई हैं और तेज़ी से बदलते वातावरण में इन्होनें अपने अस्तित्व को बनाए रखा है और यही भरतनाट्यम के साथ भी हुआ है। आज यह केवल कर्नाटक संगीत पर ही नहीं बल्कि अन्य प्रकार के गीतों पर भी किया जाता है, जो विभिन्न संस्कृतियों का समागम प्रदर्शित करता है। मूल रूप से एकल नृत्य के रूप में किया जाने वाला भरतनाट्यम, आज समाज, विज्ञान और संस्कृति से संबंधित विभिन्न विषयों पर सामूहिक प्रदर्शन के रूप में भी किया जाता है। इन सभी परिवर्तनों के बावजूद, इस नृत्य शैली का सार कभी नहीं बदला।