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कंचनजंगा : एक अनछुआ पर्वत शिखर
कंचनजंगा राष्ट्रीय उद्यान या जीव मंडल निचय उत्तर-पूर्वी राज्य, सिक्किम, में स्थित है। इसे यूनेस्को के मिश्र विश्व धरोहर स्थल (2016) में सम्मिलित किया गया है। सिक्किम और नेपाल की सीमा पर स्थित इस राष्ट्रीय उद्यान में मैदान, घाटियाँ, पहाड़, हिमनद, तालाब, जंगल, और प्रचुर संख्या में वन्य प्राणी पाए जाते हैं। यह भारत का एकमात्र मिश्र विश्व धरोहर स्थल है। धरती पर स्वर्ग, कंचनजंगा की भव्यता का ‘राउंड कंचनजंगा’ (1903) में वर्णन इस प्रकार है, “यात्री की निगाह के सामने, इतने छोटे क्षेत्र में उष्ण कटिबंधीय विपुलता, वनीय सुंदरता, और पर्वतीय विशालता का ऐसा मेल, और कहीं भी नहीं आ सकता है….।”

कंचनजंगा पर सूर्योदय

मुखौटे की चित्रकारी करता हुआ एक सिक्किमी लड़का
दुनिया की इस तीसरी सबसे ऊँची चोटी के नाम का अर्थ, चांगपा तिब्बती भाषा में ‘शानदार बर्फ़ के पाँच भंडार या चट्टान’ है। सिक्किम और तिब्बत के लोग पहाड़ को पवित्र मानते हैं। कंचनजंगा पर्वत पर निवास करने वाले, ‘जोंगा’, सिक्किम के संरक्षक देवता तथा भूमि के स्वामी और संरक्षक हैं। उन्हीं के नाम पर इस पर्वत का नाम कंचनजंगा पड़ा है, जो पूर्णतः सार्थक है। भगवान ‘जोंगा’ और उनके परम सहायक, ‘यबडू’ पर्वत की चोटी पर निवास करते हैं, जहाँ से वे प्राकृतिक आपदाओं से अपनी संतानीय प्रजा की सुरक्षा करते हैं। पूर्वी हिमालय क्षेत्र के भूस्खलन-प्रवण और भूचाल-प्रवण होने के कारण, यह सुरक्षा विशेष रूप से महत्त्वपूर्ण थी।
जोंग’, जो एक प्राचीन स्थायी लेपचा बस्ती है, पहाड़ के नीचे स्थित है। लेपचा समुदाय में कविताओं, लोककथाओं, लोकगीतों, और भजनों की मौखिक परंपराएँ हैं, जो पहाड़, उनके राजा, और लेपचा समुदाय के लोगों के बीच के संबंध पर केंद्रित हैं। बौद्ध और ईसाई धर्म के आरंभ से पहले लेपचा समुदाय स्थानीय ‘मून’ धर्म का पालन करता था। ऐसा माना जाता है कि ‘बोंगथिंग’ (पुरोहित) ‘कोंग चेन’ के प्रथम सैनिक थे। ‘कोंग चेन’ का अनुवाद “बड़ा पत्थर” के रूप में किया जाता है। यह लेपचा की सृजन कथा से संबंधित है जिसमें पहाड़ को सबसे बड़ा भाई माना गया है। किंवदंती के अनुसार सबसे पहला लेपचा दंपति, ‘तुकबोथिंग’ और ‘नाज़ोंग न्यू’ को ‘इत्बू मू’ द्वारा पहाड़ की चोटी की सबसे ताज़ी बर्फ़ से बनाया गया था। नुंग, जो तालुंग घाटी में स्थित लेपचा समुदाय का छोटा गाँव था, वहाँ खुली हवा में एक स्थायी वेदी (‘ल्हा-तू’) थी, जहाँ कंचनजंगा को चढ़ावे चढ़ाए जाते थे, और उनकी पूजा की जाती थी। इस तरह नुंग के ‘बोंगथिंग’ को ‘कंचनजंगा बोंगथिंग’ भी कहा जाने लगा। मुख्य पूजा-अर्चना ‘कुरसोंग’ (फ़रवरी-मार्च) नामक लेपचा महीने में की जाती थी। खुद चोग्याल अपने गंगटोक स्थित महल से एक नर याक को चढ़ावे के रूप में भेजते थे। याक गंगटोक का मूल प्राणी नहीं है। इसलिए हो सकता है कि उन्हें भूटिया नामक चरवाहा समुदाय से प्राप्त किया जाता हो। इससे यह बात स्पष्ट होती है कि न्यिंग्मा बौद्ध राजा कंचनजंगा के आशीर्वाद को कितना महत्त्वपूर्ण मानते थे। 2011 में अंतिम ‘नुंग बोंगथिंग’ के निधन के बाद यह विस्तृत प्रथा दुर्भाग्यवश जारी नहीं रही. और मून रीति-रिवाज अब कमज़ोर पड़ गए हैं।
कंचनजंगा और उसके हिमाच्छादित पर्वत शिखर कवियों, दार्शनिकों, कलाकारों, और छायाकारों की कल्पना और जिज्ञासा को सदा ही उत्तेजित करते रहे है। इनमें, अभारतीय नवरत्नों में निकोलस रोएरिच, प्रसिद्ध पर्वतारोही-छायाकार विट्टोरियो सेल्ला, और एडवर्ड लियर शामिल हैं, जिन्होंने पहाड़ को “भगवान-जैसा और विस्मयकारी कहा” है।

कंचनजंगा (खंगचेंगजोंगा), हिमालय #93, निकोलस रोएरिच द्वारा 1936 में निर्मित

लाल पांडा, सिक्किम का राज्य पशु
सिक्किम के लोगों के लिए धर्म और जातीयता से परे जाकर कंचनजंगा का विशेष महत्त्व है। ये लोग कंचनजंगा पहाड़ की चोटी को बोधक्षम प्राणियों का निवासस्थान मानते हैं। उनके लिए यह एक पवित्र पहाड़ है। 1955 में पर्वतारोही चार्ल्स बैंड और जो ब्राउन कंचनजंगा पहाड़ पर चढ़ने वाले पहले व्यक्ति बने, लेकिन सिक्किम के लोगों की मान्यता का सम्मान करते हुए वे चोटी से कुछ फ़ीट नीचे ही रुक गए। इस तरह उन्होंने उसे एक “अनछुआ पर्वत शिखर” नाम दिया।