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दीदारगंज यक्षी
बीते समय के आख्यानों में, इतिहास उन खोजों से समृद्ध हुआ है, जिन्होंने प्राचीन मान्यताओं और सिद्धांतों की सीमाओं को झकझोरा है। भारत ऐसे कई खज़ानों से भरा हुआ है, जिनमें दीदारगंज यक्षी के नाम से प्रसिद्ध, एक चौरी-धारक की प्रतिमा भी शामिल है। मौर्यकालीन सुंदरता के मानकों तथा बौद्ध कला के तत्वों के एक सुंदर मिश्रण को अपने आप में समेटे हुए, यह प्रतिमा कई दिशाओं से रुचि उजागर करने में सक्षम रही है। एक आधार पर, 5'2'' की ऊँचाई पर खड़ी यह अनुकरणीय शैल-प्रतिमा, चुनार के चमकदार बलुआ पत्थर से बनी है और पहली ही नज़र में एक उत्कृष्ट तथा विस्तृत शिल्प-कौशल का प्रमाण प्रस्तुत करती है। प्रतिमा इस प्रकार आश्चर्यचकित करती है कि पत्थर केवल पत्थर नहीं रह जाता, अपितु जीवंत लगने लगता है- मानो किसी ने इस पत्थर में जान फूँक दी हो, और जो अपनी कहानी बताने की प्रतीक्षा कर रहा हो।

दीदारगंज की चौरी-धारक, बिहार संग्रहालय

Another view of the Chauri-bearer from Didarganj
1917 में, बिहार के दीदारगंज शहर में गंगा नदी के कीचड़ भरे तटों पर मिली इस मूर्ति की खोज के बारे में अलग-अलग कहानियाँ प्रचलित हैं। इन्ही विवरणों में से एक कहता है कि प्रतिमा का आधार, नदी के तट से बाहर निकलता हुआ दिखाई दिया था, जिसकी खुदाई करने पर दीदारगंज यक्षी की मूर्ति प्राप्त हुई। एक गोपनीय पुलिस रिपोर्ट पर आधारित अन्य नाटकीय विवरण यह भी है कि उस क्षेत्र के गाँववासी एक बार किसी सर्प की तलाश में निकले, जो अपना बचाव करने के लिए रेंगते हुए इस प्रतिमा के पास जा पहुँचा, जिसके बाद उन्होंने इस दफ़न प्रतिमा को वहाँ से खोद निकाला। जैसा कि हम जानते हैं कि इतिहास के साथ प्रायः यह होता है कि निरपेक्ष तथ्य दुर्लभ होते हैं और कई व्याख्याएँ एक साथ चलती हैं। इस प्रतिमा को गणिका, एक बहुत कुशल वैश्या के रूप में भी देखा गया है। इसी तरह, चौरी-धारक प्रतिमा की तिथि को लेकर और इसकी शैली के संबंध में भी अलग-अलग विवरण मिलते हैं। कुछ विद्वान इस प्रतिमा की चमक के आधार पर इसे तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व से संबंधित करते हैं, जिसे प्रायः मौर्य कला का युग कहा जाता है, जबकि कुछ इसे कुषाणों के भी बाद के काल का मानते हैं और इसकी तुलना दूसरी शताब्दी ईस्वी की मथुरा यक्षियों से करते हैं।
इस प्रतिमा से जुड़े असंख्य पहलुओं ने विद्वानों को बहुत चकित किया है। यह मूर्ति प्राचीन कला का एक प्रतीक है, जिसके दाहिने हाथ में एक जटिल चौरी-जैसा अवयव है। मुद्रा के साथ-साथ उसका एक पैर भी संभवतः चौरी के कारण थोड़ा मुड़ा हुआ दिखाया गया है। उत्कृष्ट केशविन्यास के साथ, भारी ज़ेवरों से लैस उसके ऊपरी भाग में मात्र एक कपड़े को उकेरा गया है और कमर के नीचे, पत्थरों से बनी मनकेदार सजावट से ढके निचले हिस्से में उनकी कमी के विपरीत यह, एक विशेष अनुभूति देता है। कहा जाता है कि यह मूर्ति 'ग्रीवा त्रिवली' जो गर्दन पर तीन रेखाओं से बनी एक तह की तरह होती है और 'कात्यावली', जो कमर पर माँस की एक तह होती है, जैसी सुंदरता की पहचानों को धारण किए हुए है। प्रतिमा का समृद्ध छवि-निरूपण देखने में अत्यंत आनंदमयी है। वर्तमान में इसे बिहार संग्रहालय में रखा गया है, जहाँ इस प्राचीन अतुलनीय प्रतिमा के वैभव और गौरव को देखने के लिए, हज़ारों की मात्रा में लोग आते हैं। यह अपने आप में इस बात का प्रतीक है कि यह प्रतिमा आज दूर-दूर तक विख्यात है। दीदारगंज यक्षी, मूर्तिकला का एक ऐसा रत्न है जो समय की मार से बचा हुआ है और प्राचीन शिल्प-कौशल के नमूने के रूप में आज भी हमारे समक्ष खड़ा है। दिलचस्प बात यह है कि इसकी छवि का प्रयोग 1985 में, फ़ेस्टिवल ऑफ़ इंडिया के स्टाम्प के रूप में भी किया गया था।

The Festival of India stamp (1985)