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बसोहली चित्रकारियाँ
पहाड़ी चित्रकला शैली, 17वीं और 19वीं शताब्दी के बीच बसोहली, कुल्लू, गुलेर, काँगड़ा, जम्मू और गढ़वाल जैसे पहाड़ी क्षेत्रों में विकसित हुई। इनमें से, बसोहली अपने गहरे और अत्यलंकृत निजी अंदाज़ के कारण, पहाड़ी शैली का पहला केंद्र बना। गुलेर शैली में महीन आरेखों और शांत रंगों के कारण, तीव्रता का प्रमाण कुछ कम हो जाता है। तत्पश्चात, जम्मू शैली का स्पष्ट वैयक्तिकरण और उसकी सरलता, अंततः काँगड़ा शैली की लयबद्ध और मनोहर चित्रकारियों में परिवर्तित हुई। फिर भी, वह बसोहली ही है जिसने पहाड़ी शैली को जन्म दिया और चित्रकला शैलियों के अन्य केंद्रों के फलने-फूलने का मार्ग प्रशस्त किया।

बसोहली चित्रकारी - पौराणिक दृश्य - विराजित देवी

भानुदत्त की रसमंजरी में राधा और कृष्ण, बसोहली, 1670 ई.
जम्मू क्षेत्र में स्थित एक साधारण शहर, बसोहली, पहाड़ी चित्रकारियों का उद्गम स्थल था। यहाँ लघु चित्रकारियों की एक अनूठी शैली को जन्म मिला, जिसमें पौराणिक कथाओं और पारंपरिक लोक कलाओं का मिश्रण देखा गया। संग्राम पाल (1635-1673 ई.) और तत्पश्चात कृपाल पाल (1678-1693 ई.) के शासनकाल में बसोहली चित्रकारियों का असली विकास हुआ। संग्राम पाल के शासनकाल में वैष्णववाद अपनाया गया था, जिसके कारण बसोहली की प्रारंभिक चित्रकारियाँ, जिनमें विशेष रूप से रसमंजरी शृंखला शामिल है, कृष्ण को नायक के रूप में दर्शाती हैं। यह पौराणिक कथाओं और प्रेम के भाव का एक चतुर संश्लेषण था, जिसने बसोहली चित्रकारियों को एक अपरंपरागत सुषमा प्रदान की। किनारों और एक औसतन सपाट पृष्ठभूमि में लाल, पीले और नीले जैसे चमकीले और गहरे रंगों का प्रयोग, इन चित्रकारियों की अनोखी विशेषताएँ थी। चेहरे की विशेषताओं, जैसे उभरी नाक और कमल के आकार की आँखों का चित्रण, इनका एक अन्य विशिष्ट भाग था।
इनमें महिलाओं की आकृतियों को उनकी पोशाकों के अनुसार तीन प्रकारों में वर्गीकृत किया जा सकता है। पुरुषों और महिलाओं, दोनों की पोशाकें मुगल या राजपूत दरबार में पहने जाने वाले कपड़ों से मेल खाती हैं। इनके वास्तुकला-संबधी तत्व, मुगल और राजपुताना वास्तुकला की याद दिलाते हैं, जो अपनी जटिल जड़ाइयों, आलों और भव्य रूप से सुसज्जित अंदरूनी हिस्सों के लिए प्रसिद्ध थे।
बसोहली चित्रकारियों में वनस्पति का चित्रण असामान्य नहीं था। बुरुंश (रोडोडेंड्रन) के चमकीले लाल फूल कलाकारों के सबसे पसंदीदा थे। हालाँकि, आभूषणों का चित्रण इन चित्रकारियों की सबसे अनोखी विशेषता थी, जिनमें मोतियों को दर्शाने के लिए उभरते सफ़ेद रंगों का, और पन्ना रंग दिखाने के लिए, झींगुर के पंख के आवरणों का प्रयोग किया जाता था।
कृपाल सिंह के आश्रय में, बसोहली चित्रकारियों का उत्तरवर्ती चरण परिपक्व हुआ। उनके शासनकाल के दौरान, रसमंजरी शृंखला में की गई वृद्धियाँ, शासक के वैष्णववादी धार्मिक संबंधों को स्पष्टता से दर्शाने के लिए चित्रित की गई थीं। इस चरण में प्रकृतिवाद की प्रमुखता के साथ-साथ, रचनाएँ अधिक परिष्कृत भी हो गई थीं। यद्यपि अभिलेखों में कलाकारों का उल्लेख दुर्लभ था, परंतु दो कलाकारों, देवीदास और मनकू को असाधारण रूप से प्रतिभाशाली माना जाता था, जिन्होंने श्रेष्ठतम कृतियों का निर्माण किया था।
हालाँकि बसोहली चित्रकारियों के उत्तरवर्ती चरण को अधिक परिष्कृत माना जाता है, इनकी पहले चरण की रचनाएँ भी उतनी ही उल्लेखनीय थीं। उत्तरवर्ती काल में मनकू द्वारा रचित 'गीत गोविंद शृंखला' का बहुत महत्व है। बसोहली शैली 18वीं शताब्दी के मध्य तक जारी रही और अन्य शहरों में भी इसका विस्तार हुआ। यह शैली कभी भी पूरी तरह से क्षीण नहीं हुई और माना जाता है, कि इसने कला के अन्य केंद्रों को भी प्रेरित किया।

मनकू द्वारा गीत गोविंद लघुचित्र