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अंगामी नागा परिधान
अंगामी नागा लोग भारत के उत्तरपूर्वी हिस्से में रहने वाली प्रमुख नागा जनजातियों में से एक हैं, और ये मुख्य रूप से कोहिमा और दीमापुर ज़िलों में रहते हैं। उन्हें उनके भौगोलिक स्थानों के आधार पर चार खंडों में विभाजित किया गया है, लेकिन उनके बीच कई समान नागा सांस्कृतिक तत्व हैं, जिनका उनकी विरासत से बहुत गहरा संबंध है। अंगामी लोग ‘तेन्यीदी’ भाषा बोलते हैं, जो तिब्बती-बर्मी मूल की एक भाषा है, जिसे अधिकतर रोमन लिपि का उपयोग करके लिखा जाता है।

अंगामी पुरुष और महिलाएँ ‘सेक्रेनी’ उत्सव मनाते हुए। छवि स्रोत: भारतीय संस्कृति पोर्टल

‘सेक्रेनी’ उत्सव के दौरान अंगामी पुरुष। छवि स्रोत: भारतीय संस्कृति पोर्टल
अंगामी पुरुषों के पारंपरिक पारिधन में ‘नीथो’ शामिल है, जो घाघरे (कील्ट) जैसा परिधान होता है, जिसे आमतौर पर हाथ से बुने गए सूती कपड़े से बनाया जाता है। इसके आंतरिक किनारों पर आमतौर पर दो लंबी डोरियाँ होती हैं, जिनसे इसे कमर पर, शरीर के अधोभाग को ढकने के लिए, सुरक्षित रूप से बाँधा जाता है। कुछ ‘नीथो’ को कौड़ीयों से अलंकृत किया जाता है, जिन्हें परिधान की किनारी पर सिला जाता है। कुछ जगह के अंतराल पर, तीन आड़ी रेखाओं से सुसज्जित नीथो, जिस व्यक्ति द्वारा पहना जाता है, वह उसकी उपलब्धियों या औहदे का सूचक होता है। कौड़ी की चार पंक्तियों वाले नीथो से यह पता चलता है कि पहनने वाले ने दुश्मन को मार डाला है और इसका उपयोग युद्ध में दर्शायी गई वीरता के प्रतीक के रूप में किया जाता है।
अपने धड़ को ढकने के लिए, अंगामी पुरुष ‘तेरहा’ (पटका) पहनते हैं, जिसमें एक बहुरंगा समचतुर्भुज पैटर्न बना होता है। इसे आमतौर पर, पीले ऑरकिड के रूपांकन वाली, लाल रंग की बेंत से बनी, मिलती -जुलती बाहु-पट्टियों और हाथी दाँत या जानवरों की हड्डियों से बने बाजूबंद के साथ पहना जाता है।

अंगमियों का 20वीं शताब्दी का, समचतुर्भुज रूपांकन वाला पटका। छवि स्रोत : भारतीय संस्कृति पोर्टल

सेक्रेनी उत्सव के दौरान ‘सुला’ (शिरोभूषा) पहने हुए अंगमी पुरुष। छवि स्रोत : यूट्यूब
सेक्रेनी (फसल का त्योहार) समारोह के दौरान, अंगामी पुरुष बाँस की डंडियों से बनी तथा मुर्गे के पंखों और रंगीन धागों से सजी एक आनुष्ठानिक शिरोभूषा पहनते हैं। इसे पीछे की ओर से कई लंबे पटकों और रंगीन फीतों से सजाया जाता है। शिरोभूषा अपेक्षाकृत भारी होती है और इसे एक डोरी की मदद से जगह पर बाँधा जाता है, जो एक फ़्रेम से बंधी होती है, और शिरोभूषा पहनने वाला इस डोरी को अपनी छाती के सामने पकड़ता है।
‘फिकू-फ़े’ एक विशिष्ट शॉल है, जिसे अंगामी नागा पुजारी विशेष तौर पर धार्मिक समारोहों और अनुष्ठानों के दौरान पहनते हैं। यह समुदाय में उनकी आध्यात्मिक भूमिका और प्राधिकार का प्रतीक है।
अंगामी महिलाओं के पारंपरिक परिधान का केंद्रीय भाग ‘लोरमुहु’ है। यह एक सफ़ेद रंग का घाघरा होता है, जो लपेटकर पहना जाता है, और चार काली पट्टियों से कमर पर लंबाई और चौड़ाई में कसकर बाँधा जाता है। प्रत्येक काली पट्टी पर गुलाबी या लाल संकीर्ण चिह्न बने होते हैं। इसके नीचे, महिलाएँ अपने शरीर के अधोभाग को अतिरिक्त रूप से ढकने के लिए, ‘नेखरो’ नामक एक परिधान पहनती हैं।
अपने दैनिक उपयोग के लिए, अंगामी महिलाएँ, दो टुकड़ों वाला एक व्यावहारिक और आरामदायक परिधान पहनती हैं, जिसे ‘लोहे सूट’ कहा जाता है। ‘लोहे’ मुख्य रूप से काले रंग का होता है, जिसके किनारे पर लाल और हरी पट्टियाँ बनी होती हैं। परंपरागत रूप से, अंगामी महिलाएँ बिना आस्तीन वाली चोली भी पहनती थीं, जिसे ‘वाची’ कहा जाता था, लेकिन अब इसकी जगह बड़े पैमाने पर आधुनिक चोलियाँ पहनी जाती हैं। अंगामियों द्वारा बुनाई के लिए उपयोग किए जाने वाले बुनियादी कच्चे माल में कपास, रेशम, और ऊनी धागे शामिल होते हैं।

‘लोरमुहु’ और पारंपरिक आभूषण पहने एक अंगामी महिला। छवि स्रोत : केटौलहौनुओ खेझी

लोहे सूट पहने एक अंगामी महिला। छवि स्रोत : केटौलहौनुओ खेझी
अंगामी महिलाएँ रंग-बिरंगे मनकों के हार पहनने के लिए भी प्रसिद्ध हैं। ये हार विभिन्न प्रकार के मनकों के संयोजन से बनते हैं, जिनमें आयताकार लाल कार्नेलियन मनके, सफ़ेद शंख के मनके, और काले काँच के मनके शामिल हैं। मनकों के बीच में जगह रखने के लिए, हड्डी के अंतरकों का उपयोग किया जाता है, जिससे एक योजनाबद्ध तथा आकर्षक हार बनकार तैयार होता है।
पारंपरिक अंगामी परिधान के ये तत्व संस्कृति और विरासत को दर्शाने के लिए विशेष तौर पर सांस्कृतिक कार्यक्रमों, त्योहारों, और समारोहों के दौरान बहुत श्रद्धा के साथ पहने जाते हैं। इनकी विविधता और विशिष्टता उत्तर-पूर्वी भारत के जीवंत सांस्कृतिक मेल-जोल का प्रमाण है।