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ऊपरकोट किला: जूनागढ़ की रहस्यमय गाथा

गुजरात के सौराष्ट्र क्षेत्र में गिरनार पहाड़ियों की तलहटी में स्थित जूनागढ़ शहर, मिथकों और किंवदंतियों में लिपटा किसी इतिहास के खज़ाने जैसा लगता है। इस प्राचीन शहर के दुर्लभ स्थापत्य कौशल और भव्य स्मारक देखने लायक हैं। यहाँ स्थित ऊपरकोट किला इतिहास में डूबी एक ऐसी ही भव्य संरचना है।

ऊपरकोट किले की दीवार का एक दृश्य। छवि स्रोत- फ़्लिकर

हर किले की अनूठी कहानियाँ होती हैं, जो इसके स्थापत्य स्थलों को जीवंत बनाती हैं। ऊपरकोट किले से जुड़ी लोककथाएँ आकर्षक और महत्वपूर्ण हैं। कई किंवदंतियाँ किले की उत्पत्ति की व्याख्या करने का प्रयास करती हैं। ऐसी ही एक कथा के अनुसार, माना जाता है कि यह विशाल गढ़, भगवान कृष्ण के दादा यादव राजा उग्रसेन ने बनवाया था। तब इसे रेवतनगर के नाम से जाना जाता था। ऐतिहासिक रूप से, यह स्वीकार किया जाता है कि इस किले की पहली संरचना चौथी शताब्दी ईसा पूर्व में चंद्रगुप्त मौर्य के शासनकाल के दौरान हुई थी। इसे उनके अखिल भारतीय साम्राज्य की पश्चिमी चौकियों में से एक के रूप में बनाया गया था।

ऊपरकोट किला परिसर के भीतर एक संरचना। छवि स्रोत- फ़्लिकर

ऊपरकोट का विशाल किला विभिन्न राजवंशों के तहत जूनागढ़ राज्य की सत्ता की गद्दी रहा। गिरनार पहाड़ियों के पास एक शिलाभिलेख में तुशस्फ़ा नामक एक यवन (ग्रीक) राजा का उल्लेख है, जो सम्राट अशोक के अधीन इस क्षेत्र के राज्यपाल रह चुके थे। इस क्षेत्र के बाद के शासकों में शक और गुप्त वंश के राजा शामिल थे। मैत्रक वंश के शासन के दौरान जब इस क्षेत्र की राजधानी जूनागढ़ से वल्लभी स्थानांतरित कर दी गई, तब इस स्थल ने अपना रणनीतिक महत्व खो दिया। 7 वीं शताब्दी ईस्वी में शहर और किले दोनों को छोड़ दिया गया था।

ऐसा माना जाता है कि 10वीं शताब्दी ईस्वी में किले को फिर से खोजा गया था। एक स्थानीय किंवदंती के अनुसार, एक दिन एक लकड़हारा जंगल के बीच से अपना रास्ता बनाने में कामयाब रहा और एक पत्थर की दीवार और द्वार तक पहुँचा। पास में बैठे एक संत से पूछे जाने पर उन्होंने बताया कि उस स्थान का नाम "जूना" था, जिसका अर्थ है पुराना। लकड़हारे ने इस प्राचीन स्थल के बारे में चुडासमा वंश के राजा गृहरिपु को सूचित किया। राजा ने तब जंगल को साफ़ करने का आदेश दिया, ताकि किले को बहाल किया जा सके। समय के साथ, यह प्राचीन गढ़ एक बार फिर एक अभेद्य किले में परिवर्तित हो गया।

चुडासमाओं ने 15वीं शताब्दी के अंत तक इस क्षेत्र पर शासन किया। राजवंश के अंतिम राजा, मंडलिका तृतीय को गुजरात सल्तनत के महमूद बेगड़ा ने हराया था। उसने इस क्षेत्र पर कब्ज़ा कर लिया और जूनागढ़ का नाम बदलकर मुस्तफ़ाबाद कर दिया। इसके बाद, मुगलों ने लगभग दो शताब्दियों तक इस क्षेत्र पर शासन किया। जूनागढ़ के नवाब इस किले पर शासन करने वाले अंतिम राजवंशीय शासक थे। जूनागढ़ राज्य 1807 ई. में ब्रिटिश संरक्षित राज्य बन गया। 1818 ईस्वी तक, ईस्ट इंडिया कंपनी ने राज्य पर पूर्ण नियंत्रण कर लिया था।

ऊपरकोट किले से जूनागढ़ का दृश्य। छवि स्रोत- फ़्लिकर

घेराबंदी

एक हज़ार वर्षों की अवधि के दौरान, ऊपरकोट किले को 16 बार घेराबंद किया गया। एक किंवदंती का दावा है कि एक विशेष घेराबंदी लगभग 12 वर्षों तक चली! यह घेराबंदी रानी रणकदेवी की कहानी से जुड़ी है। ऐसा माना जाता है कि चुडासमा राजा रा खेंगर ने सुंदर युवती रणकदेवी से शादी की और ऊपरकोट किले को उनका निवास स्थान बनाया। हालाँकि, सोलंकी राजा सिद्धराज जयसिंह, रणकदेवी से प्यार करते थे और उनसे शादी करना चाहते थे। इसलिए, उन्होंने रा खेंगर के दुश्मन बन चुके उनके दो भतीजों के साथ ऊपरकोट किले पर आक्रमण की साजिश रची। घेराबंदी के दौरान, राजा रा खेंगर, साथ ही उनके दो पुत्रों को सिद्धराज ने मार डाला था। कहा जाता है कि सिद्धराज के हाथ आने से पहले ही रानी रणकदेवी ने आत्मदाह कर लिया था। इस किंवदंती के विभिन्न संस्करण सौराष्ट्र क्षेत्र में लोकप्रिय हैं।

ऊपरकोट किले की लड़ाई का एक दृश्य। छवि स्रोत- फ़्लिकर

स्थापत्य

ऊपरकोट किला भारत के महान पुरातन युग की एक विशाल प्रभावशाली संरचना है। किले के प्रवेश पर तीन संकेंद्रित द्वार हैं। ये प्रवेश द्वार प्राचीन मेहराबों के साथ पत्थर की गहन कला और चिनाई के काम से सजाए गए हैं, जो वास्तुकला की हिंदू तोरण शैली का एक बेहतरीन उदाहरण है। किले की मोर्चा-चाहरदीवारियाँ प्रभावशाली हैं और कई स्थानों पर इसकी प्राचीर लगभग 20 मीटर ऊँची है। किले की रक्षा के लिए 300 फ़ुट गहरी खाई भी है। किले की मोटी और मज़बूत दीवारों पर नियमित अंतराल पर गढ़ बने हैं।

ऊपरकोट किले में कुछ लुभावनी बावड़ियाँ भी स्थित हैं। किले के परिसर में दो शैलकर्तित सीढ़ीदार कुएँ हैं, जिन्हें आदि-कडी वाव और नवघन कुवो कहा जाता है। असामान्य टेढ़ी-मेढ़ी सीढ़ियाँ इन कुओं की एक दिलचस्प विशेषता हैं। सजावटी डिज़ाइनों की कमी के बावजूद, किनारे की दीवारों के साथ चट्टान की परत स्वत: ही इन कुओं को लुभावना बना देती हैं। आदि-कडी वाव के साथ एक स्थानीय किंवदंती जुड़ी हुई है। माना जाता है कि इस बावड़ी का नाम दो दासियों के नाम पर रखा गया था। ये भी कहा जाता है कि जल देवताओं को प्रसन्न करने हेतु बावड़ी का निर्माण करने के लिए राजा ने इन लड़कियों की बलि दी थी। दूसरी ओर, नवघन कुवो, प्रारंभिक शैलकर्तित वास्तुकला का एक शानदार उदाहरण है। कहा जाता है कि कई घेराबंदियों के बावजूद इस बावड़ी ने ऊपरकोट किले को बनाए रखा। वास्तव में, यह देश की सबसे पुरानी बावड़ियों में से एक मानी जाती है।

आदि कडी वाव। छवि स्रोत- विकिमीडिया कॉमन्स

किला परिसर के अंदर नीलम और मानेक नामक दो विशाल तोपें रखी हैं। इन जुड़वा मध्ययुगीन तोपों का इस्तेमाल 1538 ईस्वी में दीव में पुर्तगाली आक्रमणकारियों के खिलाफ़ सम्राट सुलेमान के तुर्की नौसेना बल ने किया था, जिसे सुल्तान बहादुर शाह ने आमंत्रित किया था। तुर्क पराजित हुए और तोपों को पीछे छोड़ गए। इन शिल्पकृतियों को बाद में जूनागढ़ लाया गया और किले के परिसर में स्थापित किया गया। नीलम और मानेक के पास ही 15वीं सदी की जामा मस्जिद स्थित है। इसमें तीन अष्टकोणीय द्वारों के साथ एक असामान्य छत वाला आँगन है।

ऊपरकोट किले में रखीं तोपें। छवि स्रोत- विकिमीडिया कॉमन्स

किला परिसर के भीतर वास्तुशिल्पीय अजूबों की एक अन्य शृंखला भी मौजूद हैं- बौद्ध गुफ़ाएँ। सातवाहन शैली में अलंकृत स्तंभों और नक्काशीदार प्रवेश द्वारों के साथ, ये शैलकर्तित वास्तुकला के कुछ बेहतरीन उदाहरण हैं। ये प्राकृतिक गुफ़ाएँ नहीं हैं, बल्कि चट्टानों को तराश कर बनाए गए कुछ कक्ष हैं। ये रहस्यमयी कक्ष कभी बौद्ध भिक्षुओं के विश्राम स्थल हुआ करते थे।

बौद्ध गुफ़ाओं का दृश्य। छवि स्रोत- विकिमीडिया कॉमन्स

ऊपरकोट का प्राचीन किला एक गौरवशाली अतीत की दास्ताँ बयाँ करता है। अपने निर्माण के हज़ारों साल बाद, आज भी यह गढ़ एक शक्तिशाली विरासत के वाहक के रूप में खड़ा है। लुभावनी और ऐतिहासिक, यह कालातीत संरचना इस क्षेत्र के आकर्षक इतिहास की साक्षी है।