तिलेश्वरी बरुआ
महिलाओं की भागीदारी के बिना भारत के स्वतंत्रता संग्राम का स्वरूप बहुत अलग होता। ऐसी कई महिलाएँ थीं जिन्होंने अलग-अलग तरीकों से स्वतंत्रता आंदोलन में अपना योगदान दिया। बारह वर्षीय तिलेश्वरी बरुआ ऐसी ही एक शख्स थीं, क्योंकि उन्होंने इस बात का उदाहरण हमारे सामने प्रस्तुत किया कि महिलाएँ अपने अधिकारों की माँग करने एवं अपने देश की आज़ादी के लिए लड़ने में सक्षम हैं और इसके लिए कोई भी कीमत चुकाने को तैयार हैं। उनका जन्म असम के ढेकियाजुली ज़िले के निज-बोरगाँव में भाभाकांत बरुआ नामक एक साधारण किसान की सबसे बड़ी संतान के रूप में हुआ था। बहुत कम उम्र से ही, तिलेश्वरी स्वतंत्रता संग्राम से जुड़े नेताओं द्वारा गाए गए देशभक्ति गीतों से प्रभावित रहा करती थीं।
तिलेश्वरी बरुआ, 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में पूरे उत्साह से शामिल हो गईं। गांधीजी ने महिलाओं को भारत छोड़ो आंदोलन में हिस्सा लेने के लिए प्रोत्साहित किया, क्योंकि उनका मानना था कि महिलाएँ अपने स्वभाव के कारण इस अभियान में महत्वपूर्ण योगदान दे सकती थीं। इनमें से कई महिलाएँ ‘मृत्यु वाहिनी’ (आत्मघाती दस्ता) नामक एक समूह की सदस्य बनीं। इन महिलाओं ने पुलिस थानों पर राष्ट्रीय ध्वज फहराने का दृढ़ संकल्प लिया था, चाहे इस प्रयास में उन्हें अपने जीवन का बलिदान ही क्यों न देना पड़े। महज़ 12 साल की उम्र में निडर तिलेश्वरी बरुआ मृत्यु वाहिनी में शामिल हो गईं। आंदोलन के ही हिस्से के रूप में, स्वतंत्रता सेनानियों के जुलूस, औपनिवेशिक पुलिस थानों पर ध्वज फहराने के लिए निकल पड़े। सत्याग्रहियों ने ज्योति प्रसाद अग्रवाल द्वारा रचित गीत गाए, जो आम तौर पर असमिया संस्कृति के ‘रूपकुँवर’ के नाम से जाने जाते हैं।
20 सितंबर 1942 को, मनबर नाथ के नेतृत्व में ‘मृत्यु वाहिनी’ की महिलाएँ ढेकियाजुली पुलिस थाने पहुँचीं। उन्होंने पुलिस अधिकारी के आदेशों को नहीं माना और थाने के ऊपर चढ़कर ध्वज फहराने की कोशिश की। उन्हें तुरंत मार गिराया गया, और दस्ते के अन्य स्वयंसेवकों पर भी हमला कर दिया गया। तिलेश्वरी बरुआ जुलूस का हिस्सा थीं और अंधाधुंध गोलीबारी में उन्हें भी गोली लग गई। स्वयंसेवकों ने उनके खून से लथपथ शरीर को उठाया और पास ही की एक दुकान के बरामदे में रख दिया। जब स्वयंसेवक उन्हें प्राथमिक उपचार देने का प्रयास कर रहे थे, उनके मामा नंदीराम भूयम की नज़र उन पर पड़ी। हालाँकि, वे उनकी मदद करने में असमर्थ थे, क्योंकि वहाँ मौजूद कुछ बदमाशों ने, जिन्हें कथित तौर पर पुलिस का समर्थन प्राप्त था, बलवा करके उन पर हमला कर दिया। हंगामे के बीच उनके मामा बदमाशों से बचते हुए दूर चले गए। हालाँकि उन्होंने अपनी भांजी को बचाने और उसे अस्पताल ले जाने के लिए एक उपयुक्त क्षण की प्रतीक्षा की, लेकिन उनकी प्रतीक्षा व्यर्थ गई।
बवाल और मार-काट के बीच, वे पुलिस को तिलेश्वरी बरुआ के क्षत-विक्षत शव को ले जाते हुए देखने के अलावा कुछ नहीं कर सके। इसलिए, तिलेश्वरी बरुआ की मृत्यु के सही कारण और समय का पता नहीं चल सका है। भोगेश्वरी फुकननी, खाहुली देवी, कुमाली देवी और पदुमी गोगोई, वे उल्लेखनीय असमिया स्वतंत्रता सेनानी हैं जिन्हें ढेकियाजुली वारदात में गोली मार दी गई थी। बताया जाता है कि गोलीबारी में एक भिखारी और एक साधु की भी मौत हो गई थी। पुलिस द्वारा की गई अंधाधुंध गोलीबारी और किराए के बदमाशों द्वारा घात लगाकर हमला करने से कई लोगों की जानें गईं और कई लोग घायल हो गए थे।
20 सितंबर का दिन, जिस दिन तिलेश्वरी बरुआ ने शहादत प्राप्त की, असम में शहीद दिवस के रूप में मनाया जाता है। माननीय प्रधानमंत्री ने अपने ढेकियाजुली ज़िले के दौरे के दौरान तिलेश्वरी बरुआ को श्रद्धांजलि दी। भारत सरकार ने अपने राष्ट्रव्यापी ‘हर घर तिरंगा’ अभियान में तिलेश्वरी बरुआ को एक शहीद के रूप में याद किया और उनके बलिदान की सराहना की। कहा जाता है कि वे भारत के स्वतंत्रता संग्राम के दौरान शहीद होने वाली सबसे कम उम्र की लड़की थीं।
फ़रवरी 2021 में, ढेकियाजुली के हमले का उल्लेख ‘ढेकियाजुली 1942: दी अनटोल्ड स्टोरी’ नामक पुस्तक में किया गया। यह किताब समुद्र गुप्त कश्यप द्वारा लिखी गई है, और इसके माध्यम से जनता पहली बार इस विस्मृत घटना के बारे में जान पाई। इस पुस्तक के प्रकाशन के बाद, ढेकियाजुली पुलिस थाने को, जहाँ भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान सबसे भीषण हत्याकांड हुआ था, असम सरकार द्वारा एक विरासत स्थल घोषित कर दिया गया।