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बिश्नी देवी साह

बिश्नी देवी साह का जन्म 12 अक्टूबर 1902 को वर्तमान उत्तराखंड के बागेश्वर में हुआ था। ऐसा कहा जाता है कि वे, स्वतंत्रता संग्राम के दौरान जेल जाने वाली, उत्तराखंड की पहली महिला स्वतंत्रता सेनानी थीं। बिश्नी देवी का शुरुआती जीवन मुसीबतों और पीड़ाओं से भरा रहा। वे चौथी कक्षा के बाद अपनी पढ़ाई जारी नहीं रख सकी थीं। तेरह साल की उम्र में उनकी शादी कर दी गई थी और दुर्भाग्यवश सोलह साल की उम्र में ही वे विधवा हो गईं। विधवा होने के कारण उनके ससुराल और मायके, दोनों जगहों से उन्हें बहिष्कृत कर दिया गया। हालाँकि, इससे बिश्नी देवी के हौसले में कोई कमी नहीं आई।

बिश्नी देवी ने अपना जीवन स्वतंत्रता संग्राम और अन्य सामाजिक कार्यों के लिए समर्पित कर दिया था। उन्होंने अल्मोड़ा के नंदा देवी मंदिर में काफ़ी समय बिताया, जहाँ उन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन से संबंधित बैठकों में सक्रिय रूप से भाग लिया। वे जेल जाने वाले प्रदर्शनकारियों को फूल दिया करती थीं और उनकी आरती करके उन्हें प्रोत्साहित किया करती थीं। उन्होंने जेल में बंद प्रदर्शनकारियों के परिवारों के लिए भी गुप्त तरीके से धन इकट्ठा किया। बिश्नी देवी कुमाउनी कवि ‘गौर्दा’ से प्रेरित थीं, जिन्होंने छुआछूत और अंधविश्वास जैसे विषयों पर कविताएँ लिखीं और अपनी कविताओं पर आधारित गीत गाए।

बिश्नी देवी साह
 

नंदा देवी मंदिर (अल्मोड़ा)
 

25 मई 1930 को अल्मोड़ा नगर पालिका पर भारतीय राष्ट्रीय ध्वज फहराने का फ़ैसला किया गया। स्वयंसेवकों के एक जुलूस, जिसमें महिलाएँ भी शामिल थीं, को गोरखा सैनिकों द्वारा रोक लिया गया। इस घटना के बाद हुए हमले में मोहनलाल जोशी और शांतिलाल त्रिवेदी जैसे नेता घायल हो गए थे। इस सब के बावजूद, महिलाओं ने बिश्नी देवी, दुर्गा देवी पंत, तुलसी देवी रावत आदि के नेतृत्व में फिर से संगठित होकर सफलतापूर्वक ध्वजारोहण किया। उसी साल, बिश्नी देवी साह को गिरफ़्तार करके अल्मोड़ा जेल में बंद कर दिया गया। जेल की दयनीय परिस्थितियाँ भी उनके हौसले को नहीं तोड़ पाईं। जेल से छूटने के बाद उन्होंने अपनी स्वतंत्रता-संग्राम संबंधित गतिविधियों को फिर से शुरू कर दिया।

इस बीच, स्वदेशी आंदोलन धीमा पड़ने लगा, क्योंकि स्वदेशी वस्तुओं को वितरित करने के लिए स्वयंसेवकों की कमी थी। इस कारण, दुकानदार उन वस्तुओं की अत्यधिक कीमत वसूलने लगे और स्थानीय रूप से निर्मित उत्पाद भी आम आदमी की खरीदने की क्षमता से बाहर हो गए। जेल से रिहा होने पर, बिश्नी देवी ने घर-घर जाकर चरखों को 5 रुपये में बेचने का फ़ैसला किया, जबकि बाज़ार में चरखे का दाम 10 रुपये था। उन्होंने महिलाओं को चरखा चलाना भी सिखाया और ऐसा करके उन्होंने खादी के प्रसार में मदद की।

अल्मोड़ा में हरगोविंद पंत के नेतृत्व में कांग्रेस समिति का गठन किया गया था। बिश्नी देवी को समिति की महिला प्रबंधक के रूप में चुना गया। विजयलक्ष्मी पंडित जैसे प्रमुख नेता और अन्य समिति सदस्य, बिश्नी देवी के अथक कार्यों से बहुत प्रभावित थे। हालाँकि, 1931 में, स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लेने के लिए उन्हें फिर से गिरफ़्तार कर लिया गया था। जेल से रिहा होने के बाद, उन्होंने अपनी ब्रिटिश विरोधी गतिविधियों को जारी रखा। उन्होंने व्यक्तिगत सत्याग्रह में भाग लिया, शराब की दुकानों के सामने विरोध प्रदर्शन व धरने दिए, और विदेशी वस्तुओं एवं कपड़ों में सार्वजनिक रूप से आग लगाई। उनके कार्य स्वतंत्रता संग्राम में महिलाओं के अमूल्य योगदान को चिह्नांकित करते हैं। अदम्य साहस और हौसले की धनी बिश्नी देवी साह के अंतिम दिन गरीबी में बीते और 1972 में उनका निधन हो गया। अक्टूबर 2021 में, डाक विभाग ने उनके सम्मान में एक विशेष आवरण जारी किया।

बिश्नी देवी के सम्मान में जारी, एक विशेष आवरण