बैकुंठ शुक्ल
बैकुंठ शुक्ल का जन्म 15 मई 1910 को उत्तरी बिहार के तत्कालीन मुज़फ़्फ़रपुर ज़िले (वर्तमान वैशाली) के जलालपुर गाँव में हुआ था। वे स्वतंत्रता सेनानियों के एक परिवार से थे। उनके चाचा, योगेंद्र शुक्ल ‘हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन’ (एचएसआरए) के संस्थापकों में से एक थे, और इसलिए वे एक ऐसे माहौल में पले-बढ़े जहाँ ब्रिटिश राज से मुक्ति ही सबके जीवन का प्रमुख लक्ष्य था। अपनी प्रारंभिक शिक्षा पूरी करने के बाद, वे जलालपुर से 4 किमी. दूर स्थित, मथुरापुर के एक निम्न प्राथमिक विद्यालय में पढ़ाने लगे।
1930 के दशक की शुरुआत में, वे किशोरी प्रसन्न सिंह और उनकी पत्नी सुनीता देवी से मिले, जो नमक सत्याग्रह आंदोलन के साथ सक्रिय रूप से जुड़े हुए थे। उनके विचारों का युवा बैकुंठ शुक्ल पर गहरा प्रभाव पड़ा और वे अंततः भारत की आज़ादी की लड़ाई में शामिल हो गए। 1930 के सविनय अवज्ञा आंदोलन के दौरान उन्हें जेल भेज दिया गया, और जब वे पटना कैंप जेल में बंद थे, तब उनकी मुलाकात विभूति भूषण दास गुप्ता से हुई, जिनकी क्रांतिकारी कहानियों और रवींद्रनाथ टैगोर की विपुल कविताओं के उनके पाठों ने, उनकी राष्ट्रवादी भावनाओं को उभारा। गांधी-इरविन समझौते के बाद, बैकुंठ और अन्य कार्यकर्ताओं को रिहा कर दिया गया था।
इसी बीच, किशोरी प्रसन्न सिंह और सुनीता देवी की विचारधारा में बदलाव आए और वे एचएसआरए में शामिल हो गए, जिसके साथ चंद्रशेखर आज़ाद, भगत सिंह और अन्य साथी, सदस्यों के रूप में जुड़े हुए थे। खबरों के अनुसार, सुनीता देवी ने बैकुंठ को क्रांतिकारियों से मिलवाने में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी, जिसके परिणामस्वरूप स्वतंत्रता आंदोलन को लेकर बैकुंठ का दृष्टिकोण काफ़ी बदल गया था। उनका मानना था कि आज़ादी ‘बिना समझौता किए, एक क्रांतिकारी संघर्ष' द्वारा ही हासिल की जा सकती है।
भगत सिंह के पराक्रम और बहादुरी ने बैकुंठ को बहुत प्रभावित किया और उन्होंने भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु के क्रांतिकारी विचारों और मतों का समर्थन किया। भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु की फाँसी ने देश को झकझोरकर रख दिया और देश-भर के युवाओं ने गांधीजी की निष्क्रिय नीतियों पर सवाल उठाना शुरू कर दिया। क्रोधित बैकुंठ बदला लेने के लिए बेताब थे। स्वतंत्रता संग्राम में वैचारिक संघर्ष चरम पर था।
एचएसआरए ने तीनों साहसी क्रांतिकारियों की मौत का बदला लेने का फ़ैसला किया। किशोरी प्रसन्न और उनके साथियों ने हाजीपुर स्टेशन के पास गांधी आश्रम में एक बैठक की। लगभग सभी ने इस काम को अंजाम देने की इच्छा जताई। बहुत विचार-विमर्श के बाद, इस काम के लिए बैकुंठ शुक्ल का नाम निश्चित हुआ, और उन्होंने घोष को 'दंड' देने की ज़िम्मेदारी उठाने का फ़ैसला किया। घोष को गद्दार करार दिया गया था और उसकी गवाही के कारण ही भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को गिरफ़्तार किया गया था और उन्हें फाँसी दे दी गई थी।
9 नवंबर 1932 को, बैकुंठ शुक्ल और उनके साथी चंद्रमा सिंह ने फणींद्रनाथ घोष को गोली मार दी। हालाँकि वे दोनों भाग निकले थे, लेकिन अंततः चंद्रमा सिंह को 5 जनवरी 1933 को कानपुर में और बैकुंठ को 6 जुलाई 1933 को हाजीपुर ब्रिज के पास गिरफ़्तार कर लिया गया।
बैकुंठ पर मुकदमा चलाया गया और उन्हें हत्या का दोषी ठहरा दिया गया। 14 मई 1934 को गया केंद्रीय कारागार में उन्हें फाँसी दे दी गई। उनके साथी विभूति भूषण दास गुप्ता ने इस घटना का आँखों देखा हाल सुनाते हुए कहा कि जब बैकुंठ को फाँसी के तख्ते की ओर ले जाया जा रहा था, तो उन्होंने यह गीत गाया था:
हासि हासि परब फाँसी/ माँ देखबे भारतबासी/ बिदाय दे माँ फिरे आसि!
(हँसते हुए मैं फाँसी पर चढूँगा/हे माँ, भारत के लोग देखेंगे/मुझे विदा करो माँ, मैं फिर आऊँगा!)