सुखदेव थापर
सुखदेव थापर उन प्रमुख क्रांतिकारियों में से एक हैं जिन्होंने भारत की स्वतंत्रता के लिए लड़ाई लड़ी, लेकिन फिर भी, सार्वजनिक तौर पर उनके बारे में बहुत कम जानकारी उपलब्ध है। सुखदेव का जन्म 15 मई 1907 को लुधियाना, पंजाब के नौघरा गाँव में हुआ था। सुखदेव जब तीन वर्ष के थे, तब उनके पिता, श्री रामलीला थापर, जो एक छोटे व्यवसायी थे, का निधन हो गया। युवा सुखदेव लायलपुर में अपने चाचा, श्री अचिंतराम थापर की देखभाल में पले-बढ़े, जो एक प्रतिष्ठित नागरिक, स्वतंत्रता सेनानी और आर्य समाज के सदस्य थे। सुखदेव केवल बारह वर्ष के थे जब उनके चाचा को ब्रिटिश पुलिस ने रॉलेट एक्ट के खिलाफ़ विरोध प्रदर्शन आयोजित करने के आरोप में गिरफ़्तार कर लिया था। इस घटना ने सुखदेव पर इतना गहरा असर डाला कि ब्रिटिश अधिकारियों के प्रति उनका रोष बढ़ता चला गया। सन् 1921 में असहयोग आंदोलन के दौरान जब उनके चाचा को दोबारा गिरफ़्तार किया गया, तब सुखदेव इस हद तक आक्रोश से भर गए कि उन्होंने ठान लिया कि कानून का इस तरह अंधा उपयोग करने के लिए ब्रिटिश अधिकारियों को उसका मूल्य चुकाना ही पड़ेगा।
भारत के स्वतंत्रता संग्राम में सुखदेव की भागीदारी लाहौर में रहते हुए ही शुरू हो चुकी थी, जहाँ वे नेशनल कॉलेज में पढ़ रहे थे, जो राष्ट्रवादी राजनीति का केंद्र हुआ करता था। कॉलेज में पढ़ते हुए, कुछ समय के लिए सुखदेव ‘सत्याग्रह लीग’ के सदस्य बने जो भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से संबद्ध थी। बाद में, सुखदेव भगत सिंह, भगवती चरण वोहरा, यशपाल और उन अन्य लोगों के संपर्क में आए, जो हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन (एचआरए) नामक क्रांतिकारी संगठन से जुड़े हुए थे। पंजाब में एचआरए के समन्वयक उनके कॉलेज के प्रोफ़ेसर जयचंद्र विद्यालंकार थे जिन्होंने सुखदेव को क्रांतिकारी आंदोलन से परिचित कराया।
सन् 1926 में, भगत सिंह, सुखदेव, भगवती चरण वोहरा और अन्य साथियों ने मिलकर ‘नौजवान भारत सभा’. का गठन किया। सुखदेव इस संगठन की समिति के सदस्य के रूप में चुने गए। बाद के वर्षों में, संगठन चलाने की ज़िम्मेदारी उनके कंधों पर आ गई क्योंकि भगत सिंह और भगवती चरण वोहरा दोनों, क्रांतिकारी आंदोलन को पुनर्जीवित करने में व्यस्त थे।
जब हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन को हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन (एचएसआरए) में परिवर्तित किया गया, तो सुखदेव को इसकी केंद्रीय समिति में शामिल किया गया और उन्हें पंजाब क्षेत्र का उत्तरदायित्व सौंपा गया। उनके नेतृत्व में, पंजाब में एचएसआरए का तेज़ी से विकास हुआ। सुखदेव चौकन्ने थे और उन्होंने क्रांतिकारी दल में नए सदस्यों की भर्ती करते समय कई सावधानियाँ बरतीं।
इसी बीच, एचएसआरए ने प्रस्तावित औद्योगिक विवाद अधिनियम और सार्वजनिक सुरक्षा विधेयक के विरोध में केंद्रीय विधान सभा में धुएँ के बम फेंकने का काम बटुकेश्वर दत्त और बिजॉय कुमार सिन्हा को सौंपा। हालाँकि बैठक के दौरान सुखदेव मौजूद थे, लेकिन उन्होंने बमुश्किल एक भी शब्द कहा। कहा जाता है कि बैठक समाप्त होने के बाद, उनकी भगत सिंह के साथ ज़ोरदार बहस हुई जिसमें उन्होंने भगत सिंह को इस काम का नेतृत्व करने के लिए मनाने की पूरी कोशिश की। सुखदेव का तर्क था कि एक बार क्रांतिकारियों के पकड़े जाने के बाद, उन्हें दुनिया को अपने इरादों के बारे में यकीन दिलाना पड़ेगा, और उनके मुताबिक क्रांतिकारियों के विचारों और योजनाओं को विश्व स्तर पर प्रस्तुत करने की क्षमता केवल भगत सिंह में ही थी। भगत सिंह ने उनके निवेदन को स्वीकार किया। इसके बाद, उनके आदेश पर, एचएसआरए की केंद्रीय समिति ने फिर से एक और बैठक की और उनके द्वारा हमले का नेतृत्व करने का मार्ग प्रशस्त किया। इस घटना को बाद में ‘असेंबली बम मामले’ के रूप में जाना गया।
भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त को पकड़ लिया गया और उन पर ‘असेंबली बम मामले’ में मुकदमा चलाया गया। जाँच के दौरान, यह पाया गया कि भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु का कर्नल जे पी सॉन्डर्स की हत्या में हाथ था। उन्होंने सॉन्डर्स को गलती से वह पुलिस अधिकारी समझकर गोली मार दी थी, जिसने उस लाठीचार्ज का आदेश दिया था जिसमें लाला लाजपत राय गंभीर रूप से घायल हो गए थे। इस मामले की फिर से जाँच शुरू हुई और भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव पर सॉन्डर्स की हत्या का आरोप लगाया गया।
क्रांतिकारियों के निडर और विद्रोही रवैये की खबर अखबारों में छपने लगी। खबरों के अनुसार, वे 'इंकलाब ज़िंदाबाद', 'श्रमजीवी ज़िंदाबाद' जैसे नारे लगाते हुए और'सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है' जैसे गीत गाते हुए अदालत कक्ष में प्रवेश करते थे। सुखदेव और उनके साथी जेल की अमानवीय परिस्थितियों के विरोध में भूख हड़ताल पर बैठ गए। उनकी यह माँग थी, कि उनके साथ अपराधियों की तरह नहीं बल्कि राजनीतिक कैदियों की तरह व्यवहार किया जाए। पूरा देश इन क्रांतिकारियों के समर्थन में इनके पीछे उठ खड़ा हुआ। लेकिन अदालतों ने उन्हें दोषी ठहराया और 23 मार्च 1931 को, सुखदेव को भगत सिंह और राजगुरु के साथ लाहौर जेल में फाँसी दे दी गई। देश की स्वतंत्रता के लिए उनके निस्वार्थ बलिदान का सम्मान करने हेतु राष्ट्र इस दिन को‘शहीद दिवस’ के रूप में मनाता है।