सुशीला मोहन/दीदी
भारत की जोन ऑफ़ आर्क
‘सुशीला दीदी’ के नाम से मशहूर सुशीला मोहन भारत की सबसे साहसी महिला क्रांतिकारियों में से एक थीं। वे 05 मार्च 1905 को ब्रिटिश भारत के पंजाब प्रांत में जन्मी थीं तथा उनकी शिक्षा जालंधर के आर्य महिला कॉलेज में हुई थी, जहाँ से वे भारत के स्वतंत्रता संग्राम में शामिल हुईं। आर्य महिला कॉलेज राजनीतिक गतिविधियों का एक केंद्र था, क्योंकि कॉलेज की तत्कालीन प्रधानाचार्या शन्नो देवी और पूर्व प्रधानाचार्या कुमारी लज्जावती प्रख्यात कार्यकर्ता थीं।
हिंदी साहित्य पर एक सम्मेलन में भाग लेने के लिए देहरादून जाने की यात्रा के दौरान, वे लाहौर नेशनल कॉलेज के छात्रों के संपर्क में आईं, जो क्रांतिकारी गतिविधियों में संलग्न थे। बाद में, वे भगवती चरण वोहरा और उनकी पत्नी दुर्गा देवी से मिलीं और स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल हो गईं। काकोरी कांड (जिसमें इन राष्ट्रवादियों ने सरकारी धन लेकर जा रही एक ट्रेन को लूटा था) के बाद रामप्रसाद बिस्मिल, अशफ़ाक़ उल्लाह खान, रोशन सिंह और राजेंद्र लाहिड़ी की फाँसी ने उन्हें हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन की स्थायी कार्यकर्ता बनने के लिए प्रेरित किया। उनके पिता, जो ब्रिटिश भारतीय सेना में एक डॉक्टर थे, ने उनके राजनीति में शामिल होने पर आपत्ति जताई। सुशीला का विद्रोही स्वभाव तब सामने आया जब उन्होंने अपना घर छोड़ दिया और कलकत्ता (वर्तमान कोलकाता) चली गईं, जहाँ उन्होंने सर छज्जूराम चौधरी की बेटी के लिए एक शिक्षक के रूप में काम किया।
17 दिसंबर 1927 में जॉन सॉन्डर्स की हत्या के बाद, जब भगत सिंह कलकत्ता पहुँचे, तब वे सुशीला दीदी ही थीं जिन्होंने उनके ठहरने की व्यवस्था की। कलकत्ता में रहते हुए, उन्होंने साइमन कमीशन के खिलाफ़ सुभाष चंद्र बोस के नेतृत्व में हो रहे विरोध प्रदर्शनों में सक्रिय रूप से भाग लिया। बाद में, जब भगत सिंह और अन्य क्रांतिकारियों को दिल्ली और लाहौर षडयंत्र मामलों में शामिल होने के कारण गिरफ़्तार किया गया, तो उन्होंने और अन्य महिला कार्यकर्ताओं ने लाहौर और दिल्ली षडयंत्र मामलों के अभियोगाधीनों के मुकदमे लड़ने के लिए धन इकट्ठा करने हेतु भगत सिंह रक्षा समिति का गठन किया। उनकी इस निस्वार्थता और सेवा-उन्मुख प्रवृत्ति के कारण उन्हें प्यार से दीदी कहा जाता था।
जब सन् 1930 में भगवती चरण वोहरा और अन्य क्रांतिकारियों ने वायसराय इरविन की हत्या करने का फ़ैसला किया, तो सुशीला दीदी को जानकारी एकत्र करने और उस ट्रेन का प्राथमिक सर्वेक्षण करने का काम सौंपा गया, जो वायसराय को ले जाने वाली थी। मगर यह योजना अंततः तब विफल हो गई जब भगवती चरण वोहरा के हाथों में गलती से एक बम फट गया, जिससे उनकी तुरंत मृत्यु हो गई। भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु की फाँसी और चंद्रशेखर आज़ाद की मृत्यु के बाद, सुशीला दीदी ने हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन की कमान संभाली। उन्होंने पंजाब सरकार के सचिव सर हेनरी किर्क की हत्या करके उन सब की मौत का बदला लेने का फ़ैसला किया। दुर्भाग्य से, यह योजना विफल हो गई, क्योंकि पुलिस को इसकी भनक लग गई थी और एहतियातन कई क्रांतिकारियों को गिरफ़्तार कर लिया गया था। सुशीला दीदी को भी गिरफ़्तार किया गया था और संसद मार्ग पुलिस थाने में हिरासत में रखा गया था। हालाँकि, उस योजना में उनकी भूमिका साबित करने में पुलिस असमर्थ रही, इसलिए उन्हें रिहा करना पड़ा।
1932 में, सुशीला दीदी ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के दिल्ली अधिवेशन में भाग लिया, एक ऐसा कार्यक्रम जिसे ब्रिटिश सरकार द्वारा प्रतिबंधित कर दिया गया था। इसके लिए उन्हें गिरफ़्तार किया गया और छह महीने की जेल हुई। 1933 में, उन्होंने एक वकील और कांग्रेस कार्यकर्ता श्याम मोहन से शादी की। 1937 में, जब अंडमान जेल में बंद काकोरी क्रांतिकारियों को रिहा किया गया, तब सुशीला दीदी और दुर्गा देवी ने उन्हें सम्मानित करने के लिए दिल्ली में एक राजनीतिक रैली आयोजित करने का फ़ैसला किया। उस रैली को पुलिस ने इस आदेश के साथ प्रतिबंधित कर दिया था कि इसमें जो कोई भी शामिल होगा, उसे गिरफ़्तार कर लिया जाएगा। इस धमकी भरे आदेश के बावजूद सुशीला दीदी और दुर्गा देवी ने सफलतापूर्वक इस कार्यक्रम का आयोजन किया। सुशीला दीदी की निर्भीकता देखकर, झाँसी के पंडित परमानंद ने उन्हें 'भारत की जोन ऑफ़ आर्क' का नाम दिया।
भारत छोड़ो आंदोलन (1942) के दौरान, उन्हें और उनके पति को गिरफ़्तार कर जेल भेज दिया गया था। भारत को स्वतंत्रता मिलने के बाद, सुशीला दीदी पुरानी दिल्ली में बस गईं, जहाँ उन्होंने सैकड़ों दलित महिलाओं को लघु हस्तशिल्प तकनीकों में प्रशिक्षित किया। उन्होंने कुछ समय के लिए दिल्ली नगर निगम की सदस्य के रूप में कार्य किया और बाद में, उन्हें दिल्ली कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष के रूप में चुना गया। 13 जनवरी, 1963 को उनका निधन हो गया। उनके सम्मान में दिल्ली की खारी बावली में 'सुशीला मोहन मार्ग', उनके नाम पर रखा गया है, जो कि इतने ऊँचे रुतबे की महिला के लिए एक छोटी-सी श्रद्धांजलि है।