पीर अली खान
आप मुझे या मुझ जैसों को हर रोज़ फाँसी पर लटका सकते हैं, लेकिन मेरी जगह पर हज़ारों खड़े होंगे और आपका मकसद कभी कामयाब नहीं होगा - पीर अली खान
भारत की आज़ादी की लड़ाई के इतिहास में वर्ष 1857 को हमेशा प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम से जोड़कर देखा जाएगा जो पूरे उत्तर, पश्चिम और मध्य भारत में फैल गया था। आज़ादी की लड़ाई की इस गौरवशाली कालावधि में महत्त्वपूर्ण शख्सियतें और नेता शामिल थे। हालाँकि लोग इस विद्रोह को मंगल पांडे, तात्या टोपे और रानी लक्ष्मीबाई जैसे कुछ नेताओं के लिए याद करते हैं, लेकिन ऐसे कई नेता हैं जिनके नाम और योगदान काफी पहले भुला दिए गए। ऐसे ही एक नायक हैं पीर अली खान।
1812 में उत्तर प्रदेश के आज़मगढ़ ज़िले में मोहम्मदपुर में जन्मे पीर अली खान केवल सात साल की आयु में अपने घर से भागकर पटना चले गए थे। जिस ज़मीनदार ने उन्हें आश्रय और शिक्षा दी, उसने उन्हें अपनी संतान की तरह पाल-पोसकर बड़ा किया। अंततः पीर ने पटना में एक किताबों की दुकान खोली जिसके बारे में 1857 के विद्रोह के दौरान यह समझा जाता था कि यह विद्रोहियों के मिलने की जगह थी। पटना विभाग के आयुक्त विलियम टेलर (1855-1857) अपनी किताब में लिखते हैं, “पीर अली लखनऊ के मूल निवासी थे, लेकिन वे कई सालों तक पटना में रहे; वे पेशे से पुस्तक-विक्रेता थे और मुझे पूरा शक है कि उन्होंने, मूल रूप से षड्यंत्र रचने के स्पष्ट उद्देश्य से, अपने व्यवसाय को यहाँ स्थापित किया था, और ये षड्यंत्र इस निष्फल विद्रोह में सामने आए हैं।”
निडर पीर अली खान जुलाई 1857 में पटना में हुए विद्रोह के नेता थे। उन्होंने गुप्त रूप से महत्त्वपूर्ण पत्रिकाएँ तथा पर्चे बाँटे और यहाँ तक कि अन्य क्रांतिकारियों को गुप्त संदेश भी भेजे। ऐसा कहा जाता है कि औपनिवेशिक सत्ता के खिलाफ़ विरोध प्रदर्शनों की योजना बनाने और उन्हें आयोजित करने के लिए क्रांतिकारियों के बीच हो रहे पत्र-व्यवहार के दौरान दो चिट्ठियाँ अधिकारियों के हाथ लग गईं। इस खोज से क्रांतिकारी आंदोलन में पीर अली खान का योगदान पूरी तरह सिद्ध हो गया। हालाँकि, पीर अली खान किसी भी हाल में अंग्रेज़ों से लड़ने के उनके संकल्प से पीछे हटने को तैयार नहीं थे।
पीर अली खान ने 03 जुलाई 1857 को पटना में हुए विद्रोह का नेतृत्व किया। उन्होंने सबसे पहले शहर के केंद्र में रह रहे एक ईसाई पादरी के घर पर धावा बोला, लेकिन पादरी बच निकला। फिर उन्होंने अफ़ीम के एक एजेंट के मुख्य सहायक, डॉ. लायल की हत्या की। इस घटना के तुरंत बाद पीर अली खान का पता लगाया गया और अन्य क्रांतिकारियों के साथ उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया। विद्रोह संबंधित जानकारी देने के बदले अपराध-क्षमा का जो प्रस्ताव उनके सामने रखा गया था, उन्होंने उसे ठुकरा दिया और उनके ये शब्द…”आप मुझे या मुझ जैसों को हर रोज़ फाँसी पर लटका सकते हैं, लेकिन मेरी जगह पर हज़ारों खड़े होंगे और आपका मकसद कभी कामयाब नहीं होगा”, इस सेनानी के निडर स्वभाव और दृढ़ता को दर्शाते हैं। पीर अली खान को 07 जुलाई 1857 को सरेआम फाँसी पर लटका दिया गया।
जिस स्थान पर पीर अली खान को फाँसी दी गई थी, उस स्थान पर शहीद पीर अली खान पार्क बनवाकर बिहार सरकार द्वारा पीर अली खान के साहस और अदम्य शक्ति को अमरत्व प्रदान किया गया है। एक सड़क का नाम भी इस महान आत्मा के नाम पर रखा गया है। इस अकीर्तित नायक की स्मृति को जनमानस में जीवित रखने में ऐसे प्रयास अवश्य सहायक होंगे।