पांडुरंग सदाशिव साने
(24 दिसंबर 1899 - 11 जून 1950)
आमतौर पर ‘भारत के राष्ट्रीय शिक्षक’ और ‘गुरुजी’ के रूप में याद किए जाने वाले, पांडुरंग सदाशिव साने एक प्रसिद्ध मराठी लेखक, स्वतंत्रता सेनानी, सामाजिक कार्यकर्ता और शिक्षक थे। एक खोत (कर उगाहनेवाले) परिवार में जन्मे, साने ने आर्थिक तंगी के बावजूद अपनी शिक्षा पूरी की। महाराष्ट्र के अमलनेर में एक ग्रामीण स्कूल में पढ़ाकर, उन्होंने अपनी अध्यापन-कला (मराठी, अंग्रेज़ी और संस्कृत में स्नातकोत्तर) का इस्तेमाल सामाजिक भलाई के लिए किया। स्कूल में पढ़ाते हुए, उन्होंने ‘विद्यार्थी’ नामक पत्रिका शुरू की, जिसके माध्यम से उन्होंने बच्चों को सुदृढ़ नैतिक मूल्य प्रदान किए। उनके प्रति उनकी माँ का प्रगाढ़ स्नेह उनके द्वारा पढ़ाए गए बच्चों के प्रति उनके प्रेम में परिलक्षित होता था, और वे बदले में उन्हें ‘साने गुरुजी’ के नाम से बुलाते थे। साने गुरुजी एक देशभक्त भी थे और राष्ट्र की सेवा में पूरी तरह समर्पित थे। हालाँकि उनके अधिकांश जीवन में उनकी माँ उनके लिए प्रेरणा-शक्ति रहीं, लेकिन भारत के स्वतंत्रता संग्राम के प्रति उत्साह और प्रतिबद्धता उन्हें अपने पिता सदाशिवराव से मिली, जो राष्ट्रवादी नेता लोकमान्य तिलक के एक निष्ठावान समर्थक थे।
गांधीजी के अहिंसक स्वतंत्रता संग्राम के आह्वान की प्रतिक्रिया में, साने गुरुजी ने भारत के स्वतंत्रता संग्राम में खुद को पूरी तरह समर्पित करने के लिए अपने शिक्षण के पेशे को छोड़ दिया। वे सविनय अवज्ञा आंदोलन में शामिल हो गए और अपनी भागीदारी के कारण कई बार जेल गए। साने गुरुजी 1930 के दशक में विनोबा भावे से मिले, जब वे एक साथ जेल में थे। भावे गीता से श्लोक सुनाया करते, जिसे साने गुरुजी लिख लिया करते थे। श्लोकों के इस संग्रह को बाद में ‘गीता प्रवचने’ के रूप में जाना गया। उन्होंने अपनी माँ को प्रसिद्ध पुस्तक ‘श्यामची आई’ के माध्यम से यश प्रदान किया, जिसे उन्होंने सत्याग्रह आंदोलन में भाग लेने की वजह से नासिक में जेल जाने पर लिखा था। धुले जेल और त्रिचनापल्ली में समय बिताने के दौरान साने गुरुजी को भारतीय भाषाओं के महत्त्व और आवश्यकता का एहसास हुआ। इस जागरुकता ने उन्हें ‘अंतर भारती’ आंदोलन शुरू करने के लिए प्रेरित किया, जिसका उद्देश्य क्षेत्रीय पूर्वाग्रहों को दूर करना था, ताकि राष्ट्र को एकजुट किया जा सके।
स्वतंत्रता मिलने के बाद साने गुरुजी ने अपनी समाजवादी विचारधारा को फैलाने के लिए सन् 1948 में ‘साधना’ नामक एक साप्ताहिक पत्रिका शुरू की। उन्हें उम्मीद थी कि एकाधिक भाषाओं, रीति-रिवाजों और प्रथाओं के अध्ययन को बढ़ावा देकर क्षेत्रीय विभाजन को दूर किया जा सकता है। इस लक्ष्य को पाने के लिए, साने गुरुजी टैगोर के शांति निकेतन के समरूप एक परिसर या संगठन स्थापित करना चाहते थे। समावेशी भारत का उनका सपना अब उनका लक्ष्य था।
उनके द्वारा लिखे गए 70 से अधिक साहित्यिक कार्यों के अलावा, साने गुरुजी ने सी. आर. दास तथा गोपाल कृष्ण गोखले जैसे कई स्वतंत्रता सेनानियों और देशभक्तों की जीवनियाँ भी लिखीं। उनकी किताबें, ‘स्वीट टेल्स ऑफ़ गांधीजी’ तथा ‘पीक्स ऑफ़ हिमालय’ भी बहुत लोकप्रिय हुईं।
सन् 1947 में, एक उत्कट गांधीवादी, साने गुरुजी अस्पृश्यता के मुद्दे पर मुखर थे। उन्होंने विट्ठल मंदिर में हरिजनों के प्रवेश के लिए अभियान चलाते हुए पूरे महाराष्ट्र की यात्रा की। उन्होंने अनवरत उपवास किया और आखिरकार 11 मई 1947 को इस समुदाय के लिए विट्ठल मंदिर के द्वार खोल दिए गए। सन् 1948 में गांधीजी की हत्या की खबर सुनकर उन्हें अत्यंत दुख पहुँचा। इस खौफ़नाक घटना के बाद उन्होंने प्रायश्चित के रूप में 21 दिनों तक अनशन किया। स्वतंत्रता मिलने के बाद देश के मामलों से साने गुरुजी के मोहभंग ने उन्हें 11 जून 1950 को अपने प्राण लेने के लिए विवश कर दिया।
उनकी स्मृति को उनके नाम पर रखे गए संस्थानों, डाक टिकटों और सड़कों के माध्यम से सम्मानित किया गया है और उनकी विरासत उनके साहित्यिक कार्यों के रूप में जीवित है। नासिक जेल की कोठरी में, जहाँ उन्होंने ‘श्यामची आई’ लिखी थी, वहाँ विस्तृत भित्ति चित्रों के माध्यम से उनके जीवन को दर्शाया गया है।