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अतुल चंद्र घोष
मानभूम केसरी

अतुल चंद्र घोष का जन्म 1881 में, वर्तमान पश्चिम बंगाल के बर्धमान ज़िले के खंडघोष गाँव में हुआ था। 1908 में, अतुल चंद्र ने अपनी कानून की परीक्षा उत्तीर्ण की और पुरुलिया ज़िले में वकालत करना शुरू किया। सन् 1920 में, महात्मा गांधी द्वारा शुरू किया गया असहयोग आंदोलन देश भर में फैल रहा था और देशभक्ति की भावनाओं को जगा रहा था। इसी ने अतुल चंद्र घोष को अपनी वकालत छोड़ने और स्वतंत्रता संग्राम में उतरने के लिए प्रेरित किया।

अतुल चंद्र घोष
 

शिल्पाश्रम
 

मानभूम में स्वतंत्रता संग्राम का नेतृत्व अतुल चंद्र घोष के ससुर निवारण चंद्र दासगुप्ता ने किया था। निवारण चंद्र दासगुप्ता को असहयोग आंदोलन के दौरान गिरफ़्तार कर लिया गया। अपनी रिहाई के बाद, उन्होंने अतुल चंद्र के साथ मिलकर ‘शिल्पाश्रम’ की स्थापना की, जो एक ज़मीनी स्तर पर कार्यरत संस्था थी और मानभूम ज़िले में स्वतंत्रता संग्राम का केंद्र बनी।

ब्रिटिश सरकार ने सन् 1856 में ग्राम चौकीदारी अधिनियम प्रस्तावित किया, ताकि ग्रामीणों से उन्हें चौकीदारी सेवा प्रदान करने के लिए कर वसूला जा सके। चौकीदारों को ग्रामीण नापसंद करते थे क्योंकि वे ब्रिटिश सरकार के लिए जासूसों के रूप में काम करते थे और स्थानीय ज़मींदारों के सेवक हुआ करते थे। नमक कानूनों को तोड़ने के लिए महात्मा गांधी द्वारा सन् 1930 में शुरू किए गए सविनय अवज्ञा आंदोलन को पूर्वी भारत में समर्थन मिला। 8 अप्रैल 1930 को राष्ट्रीय सविनय अवज्ञा आंदोलन के हिस्से के रूप में राँची में एक विशाल सभा का आयोजन किया गया, जहाँ मानभूम ज़िला सत्याग्रह समिति के सचिव अतुल चंद्र घोष ने लोगों से चौकीदारी कर का भुगतान न करने का आह्वान किया। इस 'नो चौकीदारी टैक्स' अभियान ने अंततः चौकीदारों को इस्तीफ़ा देने के लिए मजबूर कर दिया।

सविनय अवज्ञा आंदोलन के परिणामस्वरूप, इस आंदोलन से जुड़े मानभूम के कई नेताओं को गिरफ़्तार कर लिया गया। उनकी रिहाई के बाद, इन नेताओं ने लोक सेवक संघ (एलएसएस) की स्थापना की। यह एक सामाजिक सुधार संस्था थी, जिसका उद्देश्य क्षेत्र के तथाकथित अछूत लोगों और आदिवासियों का उत्थान करना था। अतुल चंद्र घोष एलएसएस के नेता होने के साथ ही ज़िला कांग्रेस कमेटी के नेताओं में से भी एक थे। 9 अगस्त 1942 को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने भारत छोड़ो आंदोलन की शुरुआत की। एलएसएस के उन कार्यकर्ताओं को, जो मानभूम ज़िला कांग्रेस कमेटी का भी हिस्सा थे, तुरंत गिरफ़्तार कर लिया गया, और उनके कार्यालय को ब्रिटिश सरकार द्वारा बंद कर दिया गया। अतुल चंद्र घोष जो कि ज़िले की तरफ़ से अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी की बैठक में भाग ले रहे थे, उन्हें घर लौटते ही उनकी पत्नी और बेटी के साथ गिरफ़्तार कर लिया गया।

सन् 1947 में भारत को स्वतंत्रता मिलने के बाद, मानभूम ज़िले को, जिसमें एक बड़ी आबादी बंगाली भाषियों की थी, बिहार राज्य का हिस्सा बना दिया गया। कांग्रेस ज़िला समिति के अध्यक्ष के रूप में, अतुल चंद्र घोष ने मानभूम को पश्चिम बंगाल में शामिल करने के लिए एक प्रस्ताव पेश किया। उनके प्रस्ताव को खारिज कर दिया गया, जिसके बाद उन्होंने कांग्रेस पार्टी से इस्तीफ़ा दे दिया। सन् 1948 में, अतुल चंद्र घोष, विभूति दासगुप्ता और अन्य लोगों ने मिलकर एलएसएस को सामाजिक सुधार संस्था से एक पूर्ण राजनीतिक दल में बदल दिया, ताकि पश्चिम बंगाल में मानभूम को शामिल करने के लिए एक जन आंदोलन की शुरुआत की जा सके।

एलएसएस के अध्यक्ष अतुल चंद्र घोष ने पूरे ज़िले में 'भाषा सत्याग्रह' का आयोजन किया और बाद में 'बंग सत्याग्रह अभियान' नामक एक लंबा मार्च आयोजित किया। वे एक पत्रिका 'मुक्ति' के संपादक भी बने, जिसे उनके ससुर ने शुरू किया था, और इसे ‘बंग सत्याग्रह’ की आवाज़ बनाया था। एलएसएस के प्रयास आखिरकार सफल हुए, और सन् 1953 में राज्य पुनर्गठन आयोग ने उनकी माँगों पर सहमति व्यक्त की। 1 नवंबर 1956 को मानभूम में से एक नया ज़िला पुरुलिया बनाकर, उसे पश्चिम बंगाल का हिस्सा बना दिया गया। आंदोलन में उनकी भूमिका और योगदान के लिए, अतुल चंद्र घोष को 'मानभूम केसरी' की उपाधि दी गई। वर्ष 1969 में उनका निधन हो गया और उन्होंने अपने पीछे सामाजिक सुधारों और प्रगतिशील राजनीति की विरासत छोड़ी। लाबन्या प्रभा घोष, उनकी पत्नी, जो एक स्वतंत्रता सेनानी भी थीं, उनकी मृत्यु के बाद ‘मुक्ति’ के संपादक के रूप में बनी रहीं।