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लाबन्या प्रभा घोष
मानभूम जननी

लाबन्या प्रभा घोष का जन्म 14 अगस्त 1897 को हुआ था। उनके पिता, ॠषि नबरुन चंद्र, एक स्वतंत्रता सेनानी और एक विद्यालय में अध्यापक थे। इसके बावजूद, लाबन्या कभी भी विद्यालय नहीं गईं। उनके पिता उन्हें घर पर ही पढ़ाया करते थे। जब वह बमुश्किल 11 वर्ष की थीं, तब उनकी शादी पुरुलिया के रहने वाले अतुल चंद्र घोष से करा दी गई। वे भारत के स्वतंत्रता संग्राम की प्रमुख शख्सियतों में से एक थे। 1921 में, महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन में शामिल होने के कारण, उनके पिता को पुरुलिया ज़िला सरकार ने हिरासत में ले लिया था। उन्हें कितने समय तक बंदी बनाकर रखा गया, इसकी कोई जानकारी नहीं है।

बहरहाल, उनकी रिहाई के बाद, लाबन्या के पिता और पति ने पुरुलिया के तेलकलपाड़ा में 'शिल्पाश्रम' नामक एक संगठन बनाया, जिसने उस क्षेत्र से आने वाले क्रांतिकारियों और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अन्य सदस्यों के लिए, एक केंद्र के रूप में कार्य किया। सुभाष चंद्र बोस, चितरंजन दास और महात्मा गांधी जैसे विभिन्न स्वतंत्रता सेनानियों ने इस स्थल पर, कई अवसरों पर बैठकें की थीं। लाबन्या प्रभा घोष स्वयं भी, स्वतंत्रता आंदोलन से संबंधित संगठन के कार्य से जुड़ीं थीं।

पुरुलिया के लोगों द्वारा लोकप्रिय रूप से ‘मानभूम जननी’ पुकारे जाने वाली लाबन्या घोष को, 1926 में, मानभूम से ज़िला कांग्रेस कमेटी के लिए चुना गया था, जिसमें उस समय पुरुलिया भी शामिल था। यहाँ तक कि, वह पुरुलिया में लोक सेवक संघ के सदस्य के रूप में चुनी गईं पहली महिला थीं। इस बीच, गांधीजी का 1930 का नमक सत्याग्रह आंदोलन पूरे देश में फैल रहा था। इस आंदोलन के समर्थन में, लाबन्या ने स्थानीय स्तर पर इसी तरह के मार्च आयोजित करके, एक प्रमुख भूमिका निभाई। 1941 में, वह सत्याग्रह आंदोलन में शामिल हुईं और उन्हें अंग्रेज़ों ने गिरफ़्तार कर लिया। उन्होंने 1945 में, कोनापाड़ा में एक ‘ध्वज सत्याग्रह’ का आयोजन किया। ब्रिटिश अधिकारियों द्वारा कई बार जेल में डालने के बावजूद, वह पीछे नहीं हटीं।

लाबन्या प्रभा घोष
 

शिल्पाश्रम (छवि साभार- पुरुलिया ज़िला प्रशासन)

लाबन्या के पिता, एक पाक्षिक बंगाली समाचार पत्र ‘मुक्ति’ के संस्थापक-संपादक थे। 1925 में शुरू किया गया और मानभूम से प्रकाशित, ‘मुक्ति’ एक प्रभावशाली क्रांतिकारी अखबार था, जिसने स्वतंत्रता संग्राम में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। 1947 में, भारत को स्वतंत्रता मिलने के बाद भी लाबन्या का काम नहीं रुका। स्वतंत्रता के बाद, 1940 और 1950 के दशक में, उन्होंने बंगाली भाषियों पर अनिवार्य रूप से हिंदी थोपने के खिलाफ़, तत्कालीन मानभूम ज़िले में एक भाषा आंदोलन का नेतृत्व किया। उनके विरोध के इन कृत्यों के लिए, उन्हें कई बार कैद किया गया और बिहार सरकार ने उन पर ज़ुर्माना भी लगाया। भाषा आंदोलन के परिणामस्वरूप, पुरुलिया को मानभूम ज़िले (बिहार में) से अलग कर पश्चिम बंगाल में शामिल कर दिया गया।

यद्यपि, लाबन्या घोष ने कोई औपचारिक शिक्षा ग्रहण नहीं की थी और वह सिर्फ़ घर पर ही पढ़ीं थीं, तथापि उन्होंने ‘मुक्ति’ के लिए कई लेख लिखे। 1969 में, अपने पति के निधन के बाद, वह इसकी संपादक बनीं और उन्होंने शिल्पाश्रम का कार्यभार भी संभाला। 1957 में, वह पुरुलिया विधानसभा क्षेत्र से, विधायक के रूप में चुनीं गईं। अभिलेखों के अनुसार, 1975 में, आपातकाल के दौरान पश्चिम बंगाल सरकार ने लाबन्या घोष को गिरफ़्तार कर लिया, हालाँकि इसका कारण स्पष्ट नहीं था।

लाबन्या प्रभा घोष बंगाल की एक प्रमुख महिला क्रांतिकारी थीं और उन्होंने अपने जीवन का अधिकांश हिस्सा,अन्य राष्ट्रवादियों के साथ, भारत की स्वतंत्रता के लिए लड़ने में बिता दिया। हालाँकि, उनकी आँखों की रोशनी में कमी, बोलने में कठिनाई और आर्थिक विषमताओं के कारण, उनके जीवन का उत्तरार्द्ध दु:ख और घोर गरीबी में बीता। 11 अप्रैल 2003 को उनका निधन हो गया।