हरगोविंद पंत
उत्तराखंड के जननायक
हरगोविंद पंत एक स्वतंत्रता सेनानी, परिवर्तन कर्ता और कुमाऊँ पर्वतीय क्षेत्र (जो वर्तमान में उत्तराखंड राज्य का हिस्सा है ) के प्रवक्ता थे। उनका जन्म 19 मई 1885 को, ब्रिटिश भारत के संयुक्त प्रांत में, अल्मोड़ा के चिट्टई गाँव में हुआ था। पंत ने 1909 में, इलाहाबाद (प्रयागराज) के स्कूल ऑफ़ लॉ से एलएलबी (कानून) की पढ़ाई पूरी की और 1910 में रानीखेत में वकालत शुरू की। यह वह समय था जब, शिक्षित भारतीयों के मध्य, राष्ट्रवाद और स्वतंत्रता के आदर्शों का प्रसार, जंगल की आग की तरह फैल रहा था।
पंत ने अपनी शिक्षा और कुमाऊँ के लोगों से अपनी जान-पहचान का बहुत प्रभावी ढंग से उपयोग किया। उन्होंने, उन लोगों को शिक्षित करने और देश में हो रहे राजनीतिक जागरण के बारे में, उनकी जागरूकता बढ़ाने के लिए अथक प्रयास किए। वह उनके मन में राष्ट्रवाद की भावना जगाने के प्रयास में जुट गए। हरगोविंद पंत ने कुमाऊँ के अन्य नेताओं के साथ मिलकर 1916 में, कुमाऊँ परिषद् की नींव रखी। इस परिषद् का उद्देश्य, लोगों के स्थानीय मुद्दों को सामने लाना और उन समस्याओं के उन्मूलन की दिशा में काम करने के लिए, उन्हें संगठित करना था। काशीपुर में आयोजित कुमाऊँ परिषद् के वार्षिक सत्र के अध्यक्ष के रूप में, पंत ने ‘कुली बेगार प्रथा’ के निर्मूलन का आह्वान किया। कुली बेगार उस कानून को कहा जाता था, जिसके तहत कुमाऊँ के पहाड़ी इलाकों में रहने वाले स्थानीय लोगों को, यात्रा पर आने वाले ब्रिटिश अधिकारियों, सैनिकों, सर्वेक्षकों आदि के सामान को मुफ़्त में ढोने हेतु बाध्य किया जाता था। यह एक शोषणकारी प्रथा थी, जिसमें बिना किसी भुगतान के, वहाँ के लोगों से जबरन मज़दूरी कराई जाती थी। इसमें गाँव के मुखिया से एक नियत अवधि के लिए, कुलियों को प्रदान करने की अपेक्षा की जाती थी। 14 जनवरी 1921 को, उत्तरायणी उत्सव के दौरान, सरयू और गोमती नदियों के संगम के मैदान से, कुली बेगार आंदोलन का उद्घोष हुआ। उत्सव में आए कई समुदायों के लोगों ने इस आंदोलन में हिस्सा लिया, और देखते ही देखते यह एक विशाल प्रदर्शन में परिवर्तित हो गया। हरगोविंद पंत ने खादी की टोपी पहनकर 'गांधीजी की जय' और 'वंदे मातरम्' के नारे लगाते हुए, स्थानीय लोगों के प्रदर्शन का नेतृत्व किया। उन्होंने कुली बेगार प्रथा के खिलाफ़ विद्रोह करने हेतु, ग्रामीणों को गाँव के मुखिया की अवज्ञा करने के लिए प्रोत्साहित किया। उन्होंने घोषणा की, कि "हम कुली नहीं बनेंगे, भले ही वे हमें हज़ार टुकड़ों में काट डालें"। इस प्रकार अंग्रेज़ों पर दबाव बनाया गया और कुली बेगार जैसी निंदनीय प्रथा समाप्त हो गई।
सन् 1925 में, पंत 3 साल के लिए अल्मोड़ा ज़िला परिषद् के अध्यक्ष चुने गए। इस कार्यकाल के दौरान, पंत ने इस क्षेत्र में सामाजिक सुधारों पर ध्यान दिया। उत्तरांचल (उत्तराखंड) के ब्राह्मण स्वयं खेत की जुताई नहीं करते थे, बल्कि इस काम के लिए गाँवों के मज़दूरों का इस्तेमाल करते थे। पंत, जो कि एक ब्राह्मण थे, उन्होंने 1928 में, बागेश्वर में स्वयं खेत जोतकर इस कुप्रथा को चुनौती दी। इस प्रकार, पहाड़ों में एक सामाजिक परिवर्तन की शुरुआत हुई। ग्रामीण सुधारों के लिए काम करना उनकी सर्वोच्च प्राथमिकता बन गई। उन्होंने प्राथमिक और माध्यमिक विद्यालय जाने वाले बच्चों के लिए कई स्कूल खोले। उन्होंने छात्रों को देशभक्ति के गीत सिखाए जाने पर भी ज़ोर दिया।
सन् 1942 में, पंत को अल्मोड़ा में, नमक सत्याग्रह और भारत छोड़ो आंदोलन को शुरू करने और उसका प्रचार-प्रसार करने का श्रेय दिया जाता है। भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान, पंत अल्मोड़ा में नज़रबंद रहे और बाद में उन्हें छह साल की कैद भी हुई। सन् 1946 में, वह प्रांतीय सभा के लिए चुने गए। इसके उपरांत वह 1950 तक, विधान परिषद् के एक महत्वपूर्ण सदस्य रहे और संयुक्त प्रांत के पर्वतीय क्षेत्र के लोगों के हितों का प्रतिनिधित्व करते रहे। 04 जनवरी 1951 को, उन्हें संयुक्त प्रांत विधानमंडल के उपाध्यक्ष के रूप में चुना गया था। हरगोविंद पंत बहुत ही शिक्षित एवं विद्वान व्यक्ति थे, इसके बावजूद वे सादगी और विनम्रता के प्रतीक थे। सन् 1957 में, वह भारी बहुमत से लोकसभा के लिए चुने गए और बाद में लोकसभा के उपाध्यक्ष भी बने। किंतु ऐसा माना जाता है कि संदिग्ध परिस्थितियों में, उसी वर्ष उनका देहांत हो गया।