सोहन लाल पाठक
सोहन लाल पाठक का जन्म 07 जनवरी 1883 को, वर्तमान पंजाब के अमृतसर ज़िले के पट्टी में, पंडित चंदा राम के घर में हुआ था। सोहन लाल एक मेधावी छात्र थे। उन्होंने अपने स्थानीय विद्यालय में कई छात्रवृत्तियाँ और सम्मान प्राप्त किए थे। हालाँकि, घर की आर्थिक स्थिति ने उन्हें माध्यमिक विद्यालय छोड़ने और सिंचाई विभाग में नौकरी करने के लिए मजबूर कर दिया था। नौकरी में एक संक्षिप्त कार्यकाल के बाद, उन्होंने उसे छोड़ दिया और लाहौर के नॉर्मल ट्रेनिंग स्कूल में दाखिला ले लिया। अपना पाठ्यक्रम पूरा करने के बाद, उन्होंने एक विद्यालय में शिक्षक के रूप में काम करना शुरू कर दिया।
लाहौर में रहने के दौरान ही, सोहन लाल पाठक देश में व्याप्त एवं बढ़ती हुई राष्ट्रवादी भावनाओं और विचारों से प्रभावित होने लगे थे। दुनिया भर में चल रहे 'क्रांतिकारी विद्रोह' ने उन पर गहरा मनोवैज्ञानिक प्रभाव डाला और उन्होंने भारत में क्रांतिकारियों के साथ अपनी सहानुभूति व्यक्त करने के लिए, लाला लाजपत राय एवं अन्य महत्वपूर्ण हस्तियों से संपर्क किया। इस बीच, कार्यस्थल पर उनके स्कूल के प्रधानाध्यापक ने उन्हें उन क्रांतिकारियों के साथ संबंध तोड़ने की सलाह दी, जो देश की आज़ादी के लिए ब्रिटिश शासन के खिलाफ़ लड़ रहे थे। उन्होंने इस आदेश की अवहेलना करते हुए, 1908 में, राष्ट्रीय स्वतंत्रता के लिए कार्य करने हेतु अपनी नौकरी छोड़ दी। प्रारंभ में, उन्होंने लाला लाजपत राय की उर्दू पत्रिका, 'वंदे मातरम' के लिए संयुक्त संपादक के रूप में काम किया। बाद में, वह लाहौर में लाला हरदयाल की कक्षाओं के साथ जुड़ गए, जिनका उद्देश्य युवाओं को ब्रिटिश अधिकारियों के खिलाफ़ विद्रोह करने के लिए प्रोत्साहित करना था।
अपने पारिवारिक जीवन में उन्हें बहुत दुखों का सामना करना पड़ा, खासकर जब उन्होंने अपनी पत्नी और बच्चे को खो दिया। इस दर्दनाक आपबीती के बाद उन्होंने स्याम (वर्तमान थाईलैंड) जाने के लिए भारत छोड़ दिया। स्याम से वह अमरीका चले गए और वहीं पर वह गदर पार्टी के संस्थापक, लाल हरदयाल के साथ फिर से जुड़ गए। गदर पार्टी का उद्देश्य भारत में ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध विद्रोह करना था। सोहन लाल ने इस पार्टी का सक्रिय कार्यकर्ता बनने में कोई कसर नहीं छोड़ी। जब पार्टी ने क्रांतिकारियों के समूहों को भारत भेजना शुरू किया, तो सोहन लाल ने बर्मा, मलेशिया और सिंगापुर में तैनात ब्रिटिश सेना के भारतीय सैनिकों के बीच विद्रोह जागृत करने की पहल की। आंदोलन ने धीरे-धीरे गति पकड़ी और 1915 में, सिंगापुर में स्थित भारतीय सैनिकों द्वारा निर्भीक विद्रोह का सामना अंग्रेज़ों ने क्रूरता से किया। इसके बावजूद, सोहन लाल पाठक डटे रहे।
उन्होंने स्वतंत्रता के अपने आदर्शों को प्रसारित करने और भारतीय सेना की सहायता करने के लिए बर्मा की यात्रा की। उनके निडर और कठोर रवैये ने, ब्रिटिश शासन का ध्यान उनकी ओर आकर्षित किया। उन्होंने सोहन लाल को पकड़ने के लिए छापेमारी शुरू की। एक अवसर पर, वह भारतीय सैनिकों के एक समूह को संबोधित कर रहे थे, जब उन्हें सूचित किया गया कि पुलिस उन्हें गिरफ़्तार करने आ रही है। वह जल्दी से जंगल में भाग गए और एक गाँव में छिप गए। खतरनाक समझे जाने वाले निडर क्रांतिकारी को पकड़ने के लिए तुरंत एक तलाशी अभियान शुरू किया गया। उन्हें पकड़ना मुश्किल था क्योंकि वह स्थानीय भाषा बोलते थे और स्थानीय लोगों जैसे ही कपड़े पहनकर उनके बीच घूमते थे। अंत में, ग्रामीणों में से एक मुखबिर ने अंग्रेज़ों को गाँव में उनके छिपने के स्थान के बारे में सूचना दे दी। सोहन लाल को 1915 के अगस्त में, मेम्यो (बर्मा) में गिरफ़्तार कर लिया गया और मांडले किले में हिरासत में लिया गया।
ऐसा कहा जाता है कि बर्मा के गवर्नर उस व्यक्ति से मिलने के लिए बेहद उत्सुक थे, जो उनके ही इलाके में सरकार के खिलाफ़, सैनिकों को विद्रोह के लिए उकसा रहा था। खबरों के मुताबिक, जब गवर्नर ने सोहन लाल से कहा कि अगर वह अपने गलत कामों के लिए औपचारिक रूप से माफ़ी माँगते हैं तो उनकी जान बच जाएगी। सोहल लाल ने गवर्नर को बहादुरी से जवाब दिया और कहा कि माफ़ी माँगने की ज़रूरत उन्हें नहीं, ब्रिटिश सरकार को थी।
यद्यपि एक प्रमुख क्रांतिकारी नेता और वकील, रास बिहारी बोस, कलकत्ता से उनकी वकालत करने के लिए आए थे, लेकिन सोहन लाल को पहले ही दोषी करार दिया गया था और बर्मा उच्च न्यायालय द्वारा मौत की सज़ा सुनाई जा चुकी थी। गदर पार्टी के सबसे प्रमुख नेताओं में से एक, सोहन लाल पाठक को राष्ट्रवादी भावनाओं को भड़काने और इस प्रकार ब्रिटिश शासन के खिलाफ़ विद्रोह को भड़काने के लिए 10 फरवरी 1916, को मांडले जेल में फाँसी दे दी गई।