शचींद्रनाथ सान्याल
एक पक्के राष्ट्रवादी और स्वतंत्रता सेनानी, शचींद्रनाथ सान्याल, क्रांतिकारी संगठन हिंदुस्तान रिपब्लिकन असोसिएशन (एचआरए) के संस्थापकों में से एक थे, जो आगे चलकर, 1928 में हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन असोसिएशन (एचएसआरए) बन गया था। हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन असोसिएशन की सर्वोच्च प्राथमिकता, भारत में ब्रिटिश शासन का विरोध करने के लिए हथियारों, बल और अन्य कठोर उपायों का प्रयोग करना था। उन्होंने देश भर में कई युवा समर्थकों को प्रेरित किया और चंद्रशेखर आज़ाद और भगत सिंह जैसे क्रांतिकारियों का मार्गदर्शन किया।
सान्याल बंगाली ब्राह्मण समुदाय से थे और हिंदू धर्म में अटूट विश्वास रखते थे। 03 अप्रैल 1893 को, बनारस के उत्तर-पश्चिमी प्रांत में जन्में शचींद्रनाथ, बहुत छोटी उम्र से ही अपने स्वतंत्र और क्रांतिकारी विचारों के लिए जाने जाते थे। उन्होंने प्रतिभा सान्याल से शादी की, जो ब्रिटिश शासन के खिलाफ़ उनकी लड़ाई में उनके साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़ी रहीं।
1913 से, भारत में ब्रिटिश राज के दौरान क्रांतिकारी विचारों को जागृत करने में सान्याल ने प्रमुख भूमिका निभाई थी। इस दौरान, उन्होंने पटना में अनुशीलन समिति नाम के संगठन की एक शाखा की स्थापना की थी। यह अखाड़ों के स्थानीय युवाओं का एक समूह था जिसने भारत में ब्रिटिश शासन के खिलाफ़ हिंसक उपायों का समर्थन किया।
रास बिहारी बोस के करीबी सहयोगी, सान्याल को, बोस के जापान जाने के बाद भारत के क्रांतिकारी आंदोलन का सर्वोच्च पदस्थ नेता माना जाता था। शचींद्रनाथ सान्याल भी गदर पार्टी की योजना का हिस्सा थे, जिसके अंतर्गत देश भर में ब्रिटिश-विरोधी गतिविधियाँ शुरू करने के लिए, भारत में बड़े पैमाने पर हथियारों और गोला-बारूद की तस्करी करना शामिल था। हालाँकि, उनकी योजनाएँ विफ़ल हो गईं क्योंकि ब्रिटिश अधिकारियों को इसकी खबर पहले ही मिल गई थी और 1915 के फरवरी में आंदोलन को कुचल दिया गया। ब्रिटिश कार्रवाई से बचने और स्वतंत्रता संग्राम को जारी रखने के लिए सान्याल भूमिगत हो गए। इस योजना में शामिल होने के लिए सान्याल को उम्रकैद की सज़ा सुनाई गई थी। अंडमान और निकोबार द्वीप समूह में, सेलुलर जेल में कारावास के दौरान, 1922 में उन्होंने अपनी पुस्तक "बंदी जीवन" (1922) लिखी।
सान्याल को अज्ञात कारणों से कुछ समय के लिए जेल से रिहा कर दिया गया था और उन्होंने फिर से ब्रिटिश -विरोधी गतिविधियों में भाग लेना शुरू कर दिया, जिससे ब्रिटिश अधिकारी नाराज़ हो गए। गुस्से में, उन्होंने सान्याल को एक बार फिर कैद कर लिया और इस बार उन्होंने बनारस में सान्याल की पुश्तैनी संपत्ति को भी ज़ब्त कर लिया। सान्याल को सेलुलर जेल (पोर्ट ब्लेयर) में दो बार कैद होने का अनूठा गौरव प्राप्त है, जो उस समय के सबसे भयानक जेलों में से एक था। दुर्भाग्य से, अपने दूसरे कारावास के दौरान, उन्हें तपेदिक (टीबी) की बीमारी हो गई, जो अंततः घातक साबित हुई। अपने जीवन के अंतिम दिनों में, उनके खराब स्वास्थ्य के कारण, उन्हें गोरखपुर जेल में स्थानांतरित कर दिया गया था। 7 फ़रवरी 1942 को उनका निधन हो गया।
सान्याल और महात्मा गांधी के बीच हुई एक तार्किक बहस की बड़ी दिलचस्प कथा है। 'यंग इंडिया' पुस्तक में प्रकाशित यह चर्चा, हिंसा और अहिंसा के मुद्दे पर हुई थी । ऐसा कहा जाता है कि जहाँ एक ओर सान्याल ने गांधी जी के क्रमिकवादी दृष्टिकोण का पुरज़ोर विरोध किया, वहीं दूसरी ओर गांधी जी ने उनका प्रतिवाद करते हुए कहा कि अहिंसा ही आगे बढ़ने का एकमात्र विवेकपूर्ण तरीका है।
वर्तमान में, वैसे तो शचींद्रनाथ सान्याल के योगदान को काफ़ी हद तक अनदेखा कर दिया गया है किंतु वे अब भी उन सैकड़ों अकीर्तित नायकों में से एक हैं, जो अपनी नि:स्वार्थता और देशभक्ति के लिए प्रसिद्ध थे। यह एक ज्ञात तथ्य है कि वह भारतीय क्रांतिकारी आंदोलन के पीछे की प्रेरक शक्ति थे।