पुराना किला एक सदियों पुराना स्मारक है, जो वर्तमान में नई दिल्ली शहर के दक्षिण-पश्चिमी भाग में स्थित है। दिल्ली का भूदृश्य ऐसी कई भव्य और अनोखी संरचनाओं से सुशोभित है, जो समय की मार सहकर भी अपने स्थान पर टिकी हुई हैं। औपनिवेशी इतिहासज्ञों ने रोम की सात पहाड़ियों और दिल्ली के सात शहरों के बीच की समरूपता का वर्णन किया है। दोनों ही शहर ऐसे थे जिनपर कई शासकों ने अपना अधिकार स्थापित किया और इनका कई बार गठन, विगठन और पुनर्गठन किया।
पुराने किले का एक दृश्य। छवि स्रोत - विकिमीडिया कॉमन्स
लाल कोट, तोमर राजपूतों द्वारा बनवाया गया एक सशक्त किला था, जिसे 12वीं सदी में पृथ्वीराज चौहान ने किला राय पिथौड़ा का नाम दिया था। यह दिल्ली की सबसे पुरानी संरचनाओं में से एक है। ऐसा कहा जाता है कि पृथ्वीराज ने उसे 1192 ई. में मोहम्मद गोरी के हाथों खो दिया था। गोरी का सेनापति ऐबक, जिसे हिंदुस्तान के शासन की ज़िम्मेदारी सौंपी गई थी, ने मौजूदा किले का विकास किया और उसके परिसर में कुव्वत-उल-इस्लाम मस्जिद और कुत्ब मीनार बनवाई। यह स्थल परंपरागत तौर पर दिल्ली के प्रथम शहर के रूप में प्रसिद्ध है। इसके बाद जैसे-जैसे अन्य राजवंशों के हाथों सत्ता आती गई, वैसे-वैसे सीरी, तुगलकाबाद, जहाँपनाह, फ़िरोज़ाबाद, दीनपनाह और शाहजहाँंनाबाद जैसे अधिकाधिक शहर भी यहाँ उभरते गए।
पुराना किला मुगल बादशाह हुमायूँ द्वारा 16वीं सदी में उनके नए शहर दीनपनाह के एक भाग के रूप में बनवाया गया था। हो सकता है कि कई लोग यह जानने के लिए उत्सुक हों कि दिल्ली में इस किले से काफ़ी पुराने किले होते हुए भी यह किला विशिष्ट रूप से “पुराना किला” के रूप में क्यों प्रसिद्ध है। इस प्रश्न का उत्तर एक ऐसे युग में छिपा है, जिसके बारे में हम स्मारकों और भौतिक संस्कृति के मुकाबले, विभिन्न मिथक कथाओं और आख्यानों के माध्यम से ज़्यादा जानते हैं।
पुराने किले की खंदक का एक दृश्य। छवि स्रोत - फ़्लिकर
एक महत्वपूर्ण स्थानीय मान्यता के अनुसार, जिस क्षेत्र में आज पुराना किला खड़ा है, वह पहले इंद्रप्रस्थ था, जो महाकाव्य महाभारत में पांडवों की राजधानी रही थी। इसी कारण पुराने किले को अक्सर “पांडवों का किला” कहा जाता है। इतिहासज्ञों ने इस दावे की सत्यता को परखने के लिए पुरातत्व की सहायता ली है। बी.बी. लाल के नेतृत्व में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने 1954-55 और 1969-1973 में इस स्थल पर उत्खनन-अभियान चलाए थे, जिनमें चित्रित धूसर मृद्भाण्ड अर्थात पेंटेड ग्रे वेयर (पीजीडब्लू) किस्म की मिट्टी के बर्तनों के कुछ टुकड़े पाए गए थे। इन्हें इतिहासज्ञ महाभारत के समय (ईसा-पूर्व 1500-1000) का बताते हैं। इतिहासज्ञों ने चौथी सदी ई. से शुरू करते हुए सीधे उन्नीसवीं सदी ई. तक 8 समयावधियों में पाई जाने वाली स्तरीकृत परतों की जाँच की, जिससे इस बात की पुष्टि होती है कि इस स्थल पर सदियों से लोगों का निरंतर और प्रदीर्घ निवास रहा है। पुरातत्व के अतिरिक्त अबुल फ़ज़ल कीआईन-ए-अकबरी (16वीं सदी) जैसे लिखित स्रोतों में यह उल्लेख है, कि हुमायूँ ने पांडवों की प्राचीन राजधानी इंद्रप्रस्थ के क्षेत्र में यह किला बनवाया था। यहाँ तक कि, 1913 तक किले की दीवारों के भीतर इंद्रपत नाम के एक गाँव का अस्तित्व रहा था। जब अंग्रेज़ों ने राजधानी दिल्ली का आधुनिक निर्माण शुरू किया, तब उस गाँव को स्थानांतरित कर दिया गया था।
पुराने किले में चलाए गए उत्खनन-अभियानों में पाए गए पुरावशेष। छवि स्रोत - विकिमीडिया कॉमन्स
लेकिन इंद्रप्रस्थ को लेकर हमारी जानकारी का मुख्य स्रोत महाकाव्य महाभारत ही रहा है। महाकाव्य में इस स्थल को मूल रूप से खांडवप्रस्थ के नाम से जाना गया है। यह स्थल यमुना नदी के पश्चिमी किनारे पर बसा हुआ एक दूरस्थ भूमि प्रदेश था, जिसे पांडवों को सुपुर्द किया गया था। इस प्रदेश के पश्चिमी भाग में अरावली पर्वतमाला है, जो इसे प्राकृतिक रूप से रक्षा प्रदान करती थी। ऐसा कहा जाता है, कि पांडवों ने इस बंजर भूमि प्रदेश को एक समृद्ध शहर में तब्दील करते हुए उसे अपनी राजधानी का रूप दिया और उसे एक नवीन भव्य नाम दिया, “इंद्रप्रस्थ” या “देवताओं का शहर”।
इरावती कर्वे ने महाभारत के अध्ययन को लेकर अपनी सुप्रसिद्ध रचना ‘युगांत’ में इंद्रप्रस्थ के भव्य महल और मायासभा का इस प्रकार वर्णन किया है- “मायासभा का निर्माण चालाकी से किया गया था… बेचारे दुर्योधन…का सिर पहले दीवारों से टकराया, फिर उसे लगा कि वह पानी पर चल रहा है तो वह अपने वस्त्रों को सिकोड़कर चलने लगा, लेकिन जल्द ही उसे पता चला कि वह तो सूखी ज़मीन पर ही चल रहा था। अंततः जब उसे यह लगा कि वह ठोस ज़मीन पर पाँव रख रहा है, तब वह बावली में गिर पड़ा।” उसके गिरते ही देखने वालों ने उसका काफ़ी मज़ाक उड़ाया। इंद्रप्रस्थ की भव्यता देखने के बाद कौरवों के मन में पनपी ईर्ष्या की भावना और उसके साथ-साथ इंद्रप्रस्थ में हुए उनके अपमान के कारण महाभारत के भीषण युद्ध की नींव पड़ी।
इस विनाशकारी पतन के हज़ारों वर्ष बाद यहाँ एक दूसरा पतन भी देखा गया। पुराने किले के पहले निर्माता, मुगल बादशाह, हुमायूँ की इस किले के परिसर में अकस्मात् मृत्यु हो गई। दरअसल हुमायूँ का संपूर्ण शासनकाल ही बहुत अस्थिर था। 1530 में उनकी तख्तपोशी हुई और मुश्किल से 10 वर्ष के शासनकाल के बाद ही बंगाल और बिहार में शक्तिशाली, अफ़गान सरदार शेर शाह सूरी ने उनके तख्त पर कब्ज़ा कर लिया। पराजय के बाद हुमायूँ कुछ वर्ष तक ईरान के सफ़ावी साम्राज्य में शरणार्थी रहे। लेकिन 1555 में उन्होंने सूरों को हिंदुस्तान से भगा दिया और अपना राज्य उनसे वापिस ले लिया। लेकिन इसके एक वर्ष बाद ही हुमायूँ की मृत्यु हो गई। उनकी उथल-पुथल भरी ज़िंदगी को देखते हुए, अंग्रेज़ी पुरातत्ववेत्ता स्टैनली लेन पूल ने यह लिखा है कि किस्मत के मारे हुमायूँ “जीवनभर ठोकर खाते रहे और ठोकर खाकर ही मृत्यु को प्राप्त हो गए”।
मुगल बादशाह हुमायूँ। छवि स्त्रोत - विकिमीडिया कॉमन्स
1533 ई. में, हुमायूँ ने पुराने किले का निर्माण अपने सशक्त शहर के एक भाग के रूप में करवाया था, जिसे उन्होंने दीनपनाह या “आस्था का शरण-स्थान” का नाम दिया। 1534 ई. तक किले की दीवारें, बुर्ज, प्राचीर और प्रवेशद्वार लगभग पूरे हो चुके थे। यद्यपि दिल्ली में इस समय तक कई किले मौजूद थे, तथापि हुमायूँ ने अधिकतर शासकों की तरह ही अपनी तख्तपोशी को एक नए किले और शहर से चिह्नांकित करना चाहा। मुगलों के लिए इस स्थल का प्रतीकात्मक एवं पवित्र महत्त्व अवश्य रहा होगा, जिसका प्रमाण है दिल्ली के परमपूज्य सूफ़ी संत, निज़ामुद्दीन औलिया की दरगाह का पास मे ही स्थित होना। बाद में हुमायूँ का मकबरा भी पुराने किले के पास ही बनवाया गया था।
यह अनुमान लगाना कठिन है कि जब शेर शाह सूरी ने 1540 में पुराने किले पर कब्ज़ा किया, तब उसका निर्माण-कार्य कितना पूरा हो चुका था। सूरी के 15 वर्ष का अंतर्शासन काल अल्पकालिक होते हुए भी किले के वास्तुशिल्पीय विस्तार की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण था। शेर शाह ने दीनपनाह का नाम बदलकर शेरगढ़ रख दिया था और उसके भीतर विभिन्न महत्तवपूर्ण संरचनाएँ भी बनवाईं थीं।
वर्तमान में पुराने किले का परिसर ऐसी विभिन्न संरचनाओं का एक समूह है, जो 300 से ज़्यादा एकड़ के भूभाग में फैली हुई हैं। यह किला यमुना नदी से जुड़े एक चौड़े खंदक से घिरा हुआ था, जिसका पानी किसी समय किले की पूर्वी दीवारों से टकराया करता था। ऐसा माना जाता है कि आज उस मूल संरचना के केवल कुछ ही स्मारक बचे हुए हैं। ऐसा माना जाता है कि उनमें से कुछ संरचनाएँ हुमायूँ द्वारा बनवाई गई थीं जबकि कुछ अन्य संरचनाएँ, शेर शाह द्वारा बनवाई गई थीं।
बड़ा दरवाज़ा। छवि स्रोत - विकिमीडिया कॉमन्स
पुराने किले की भव्यता का अनुमान तीन शानदार प्रवेशद्वारों से लगाया जा सकता है। वर्तमान में किले के भीतर प्रवेश करने के लिए इसका बड़ा दरवाज़ा ही एकमात्र मुख्य साधन है। यह एक मज़बूत संरचना है जिसके दोनों ओर एक-एक विशाल बुर्ज है। एक ओर जहाँ प्रवेशद्वार लाल बलुआ पत्थरों से बना है जिनमें सफ़ेद और धूसर-से काले संगमरमर की भराई है, वहीं बुर्जों का निर्माण पत्थरों और मलबे से किया गया है। प्रवेशद्वार के ऊपरी भाग और बुर्ज में तीरों के लिए कई खाँचे देखे जा सकते हैं। हुमायूँ दरवाज़ा किले परिसर का दक्षिणी दरवाज़ा है। यह प्रवेशद्वार दो मंज़िला है जिसके बीच एक ऊँचा मेहराब है। तलाकी दरवाज़ा या निषिद्ध दरवाज़ा तीसरा प्रवेशद्वार है और यह परिसर के उत्तर में स्थित है। तलाकी दरवाज़े का नाम दिलचस्प है और इससे कई रोचक कहानियाँ जुड़ी हुई हैं। एक आख्यान के अनुसार, इस दरवाज़े का संबंध एक रानी से है, जिसने अपने पति के रणभूमि से विजयी होकर लौट आने तक इसे बंद रखने की शपथ ली थी। लेकिन राजा मारा गया और तब से लेकर आज तक यह दरवाज़ा बंद ही है। इस प्रवेशद्वार में दो द्वार हैं - ऊपरी और निचला। ऊपरी द्वार जो अधिक अलंकृत था, वह मुख्य द्वार था, और निचला द्वार किसी समय खंदक के स्तर पर खुलता था।
हुमायूँ दरवाज़ा। छवि स्रोत - विकिमीडिया कॉमन्स
किला-ए-कुहना मस्जिद। छवि स्रोत - विकिमीडिया कॉमन्स
किला-ए-कुहना मस्जिद पुराने किले की प्रमुख संरचना है जिसका निर्माण शेर शाह द्वारा 1542 ई. में करवाया गया था। यह मस्जिद एक सौंदर्यपरक संरचना है, जो लोदी और मुगल राजवंशों के बीच की परिवर्ती अवस्था को दर्शाती है। यहाँ की वास्तुशिल्पीय विशेषताएँ, बादशाह अकबर द्वारा बनवाए गए स्मारकों में और भी उभरकर दिखाई देती हैं। किला-ए-कुहना धूसर रंग के क्वार्टज़ाइट पत्थरों से बनी एक गुंबद-युक्त आयताकार संरचना है, जिसमें लाल और पीले बलुआ पत्थरों का प्रचुर मात्रा में प्रयोग किया गया है। इस संरचना की अग्रभित्ति में पाँच मेहराब हैं। मध्यवर्ती मेहराब या इवान पर गढ़े हुए कुरान के छंदों के अक्षरांकन-युक्त पट्टे उसे अलंकृत करते हैं। पश्चिममुखी मेहराब मस्जिद के वास्तुशिल्पीय और प्रतीकात्मक केंद्र-बिंदु हैं और ये इबादत की दिशा इंगित करते हैं। मुख्य मेहराब एक उत्कृष्ट संरचना है, जिसमें महीनता से तराशे गए सफ़ेद और धूसर रंग के संगमरमर के पत्थर से की गई भराई और कारीगरी देखी जा सकती है। मेहराबों के अतिरिक्त किला-ए-कुहना की छतें भी अत्युत्तम हैं। इस आयताकार संरचना को गोलाकार गुंबद से आच्छादित करने वाली मध्यवर्ती गुंबद की छत बेहतरीन कारीगरी का एक उत्तम उदाहरण प्रस्तुत करती है। आयताकार संरचना के चार कोने बेहतरीन रूप से तराशी बगली डाटों से सुसज्जित हैं।
किला-ए-कुहना की बेहतरीन रूप से तराशी हुई छतें, जो इस्लामी और स्वदेशी शैलियों का सम्मिश्रण दिखाती हैं। छवि स्रोत - फ़्लिकर
पूरी मस्जिद में आप पश्चिमी और मध्य एशिया में उत्पन्न हुई इस्लामी वास्तुकलाओं एवं कलश और कमल जैसे हिंदुओं के स्वदेशी शैलीगत रूपांकनों के बीच एक सामंजस्यपूर्ण सम्मिश्रण देख सकते हैं। इससे इन संरचनाओं को बनवाने वालों के समन्वयात्मक दृष्टिकोण का पता चलता है, जिसके परिणामस्वरूप हिंदुस्तान में एक सम्मिश्रित संस्कृति का क्रमिक विकास हुआ। लेखक और इतिहासज्ञ गाइल्स टिलोटसन लिखते हैं - “ईंटों और टाइलों से बनी मध्य और पश्चिमी एशिया की वास्तुकला को भारत की उपजाऊ भूमि के कुशल भारतीय कारीगरों द्वारा उत्कृष्ट रूप से तराशे गए पत्थरों की वास्तुकला में रूपांतरित किया गया है।”
शेर मंडल पुराने किले के भीतर की दूसरी प्रमुख संरचना है। ऐसा माना जाता है कि इस संरचना का निर्माण शेर शाह द्वारा 1541 ई. के आसपास करवाया गया था। ऐसा कहा जाता है कि हुमायूँ ने अपने तख्त पर दोबारा कब्ज़ा करने के बाद इस इमारत को एक किताबखाने में तब्दील कर दिया था। शेर मंडल लाल बलुआ पत्थरों से बनी हुई एक अष्टभुजाकार संरचना है और यह सफ़ेद और काले संगमरमर की भराई से सुशोभित है। बादशाह हुमायूँ को यहीं की एक सीढ़ी से गिरने पर गंभीर चोट आई थी जो उनके लिए घातक साबित हुई। ऐसा कहा जाता है कि इबादत के समय मस्जिद से अज़ान सुनाई देने पर हुमायूँ अपने किताबखाने की सीढ़ियों से तेज़ी से नीचे उतर रहे थे जब वे अपनी लंबी पोशाक के सिरे में उलझकर गिर पड़े।
शेर मंडल। छवि स्रोत - विकिमीडिया कॉमन्स
शेर मंडल के निकट एक बावली है जिसमें कई सीढ़ियाँ हैं जिनके बीच में समतल जगहें है, जो हमें पानी की सतह की ओर ले जाती हैं। यह संरचना मध्यकालीन समय में जलापूर्ति के माध्यमों का एक दिलचस्प उदाहरण है। हम्माम या गुसलखाना यहाँ की एक दूसरी संरचना है। तीव्र ढलान वाली, सँकरी सीढ़ियाँ हमें भूमि के तल के नीचे बने उस गुप्त कमरे की ओर लेकर जाती हैं जहाँ आज भी जलापूर्ति में सहायता देनेवाले टेराकोटा पाइप और ढलानें देखी जा सकती हैं।
पुराने किले की बावली। छवि स्रोत - फ़्लिकर
पुराने किले के भीतर दो संग्रहालय हैं। पहला संग्रहालय पुराने किले में चलाए गए विभिन्न उत्खनन-कार्यों में पाई गई वस्तुओं के साथ-साथ दिल्ली के इतिहास से संबंधित सामान्य पुरावशेषों को प्रदर्शित करता है। दूसरा संग्रहालय अनोखा है क्योंकि यह दिल्ली की एकमात्र ऐसी दीर्घा है, जो भारतीय इतिहास से संबंधित उन वस्तुओं को प्रदर्शित करती है, जो चोरी हो गई थीं या गुम हो गई थीं और जिन्हें विभिन्न कानून प्रवर्तन एजेंसियों द्वारा पुनः प्राप्त किया गया है।
लाल दरवाज़ा और खैरुल मनाज़िल किले की ऐसी दो बाहरी संरचनाएँ हैं, जिन्हें अक्सर पुराने किले के ही एक हिस्से के रूप में देखा जाता है। लाल दरवाज़ा लाल बलुआ पत्थरों और धूसर रंग के क्वार्टज़ाइट पत्थरों से बना एक शानदार दरवाज़ा है, जो कथित तौर पर शेरगढ़ शहर का दक्षिणी प्रवेशद्वार था। अकबर की दाई माँ, माहम अंगा ने, खैरुल मनाज़िल, लगभग 1561-62 में एक मस्जिद और मदरसा का निर्माण करने के लिए बनवाया था। एक साधारण सी संरचना होने के बावजूद भी, यह अकबर के जीवन में माहम अंगा के अधिकार और प्रभाव का प्रमाण देती है।
हुमायूँ की मृत्यु के बाद अकबर ने 1571 ई. तक दीनपनाह से अपना शासन चलाया जिसके बाद उन्होंने आगरा के फतेहपुर सीकरी को अपनी नई राजधानी के रूप में स्थापित किया। तत्पश्चात् बादशाह शाहजहाँ के शासनकाल तक दिल्ली का शाही महत्त्व कुछ कम रहा। लेकिन शाहजहाँ ने दीनपनाह को पुनर्जीवित करने के बजाय यहाँ अपनी खुद की राजधानी, शाहजहाँनाबाद (1639 ई.) स्थापित की।
वर्तमान दिल्ली का भाग्य केवल ऐतिहासिक या लाक्षणिक रूप से ही नहीं, बल्कि वस्तुतः और भौतिक रूप से भी पुराने किले से जुड़ा हुआ है। ऐसा कहा जाता है कि अंग्रेज़ों की शाही राजधानी के रुप में नई दिल्ली (1912-1930) का निर्माण करने वाले, सर एडविन लुटयंस ने सेंट्रल विस्टा (जिसे अब राजपथ कहा जाता है) को पुराने किले के हुमायूँ दरवाज़े के साथ जोड़ा था। द्वितीय विश्व-युद्ध के दौरान इस किले के परिसर को, ब्रिटिश भारत के जापानी नागरिकों के लिए एक नज़रबंदी शिविर के रूप में भी उपयोग में लाया गया था। ऐसा कहा जाता है कि 1947 में भारत के विभाजन के दौरान कई सौ शरणार्थियों ने कई महीनों तक पुराने किले में आश्रय लिया था।
सर एडविन लुटयंस
ऐसा माना गया है कि इस चिरकालिक संरचना के दामन में अभी भी कई रहस्य समाए हुए हैं। सूर्यास्त के बाद पुराने किले पर होने वाले एक ध्वनि एवं प्रकाश कार्यक्रम में दिल्ली के सातों शहरों की कहानी प्रदर्शित की जाती है, जो एक प्रकार से बहुत काव्यात्मक है। ऐसा प्रतीत होता है कि इस कार्यक्रम में सदियों की जीत, हार, लुप्त हो चुकी सभ्यताओं और तीव्रता से फलते-फूलते शहरों की कहानियों को परछाइयों के एक चंचल खेल में समेट लिया गया हो।
पुराने किले का ध्वनि एवं प्रकाश कार्यक्रम। छवि स्रोत -फ़्लिकर