डॉ. उषा मेहता
कांग्रेस के गुप्त रेडियो की संस्थापक
डॉ. उषा मेहता का जन्म 25 मार्च 1920 को सूरत (गुजरात) के पास सरस गाँव में हुआ था। भारत के स्वतंत्रता संग्राम में उन्होंने एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। जब वे पाँच साल की थी, तब उन्होंने पहली बार गांधीजी को अहमदाबाद के साबरमती आश्रम में देखा था। जब गांधीजी ने उनके गाँव में एक शिविर लगाया, तो उन्होंने सभी सत्रों में उत्साहपूर्वक भाग लिया और कताई में अपना हाथ भी आज़माया। वे गांधीजी से इतना प्रभावित हुईं कि वे उनके अनुयायियों में से एक बन गईं। अंततः वे गांधीवादी विचारधारा और दर्शन की एक प्रमुख प्रचारक के रूप में उभरीं तथा उसी में उन्होंने मुंबई विश्वविद्यालय से डॉक्टरेट की उपाधि भी हासिल की। उन्होंने केवल खादी के कपड़े पहनकर तथा स्वयं को सभी प्रकार की विलासिता से दूर रखकर, गांधीवादी जीवन शैली को अपनाया।
आठ साल की उषा दिल से गांधीवादी थीं। शराब की दुकानों पर धरना देने से लेकर "साइमन वापस जाओ" के नारे लगाने तक, उन्होंने खुद को स्वतंत्रता आंदोलन में झोंक दिया। ऐसा कहा जाता है कि एक विरोध मार्च के दौरान, पुलिसकर्मियों ने बच्चों पर बल का प्रयोग किया जिसके कारण भारतीय झंडा लिए एक लड़की उस झंडे के साथ ही गिर पड़ी। जब बच्चों ने इस घटना की सूचना अपने बड़ों को दी, तो उन्होंने अपने बच्चों को झंडे के रंगों के कपड़े पहनाकर इसका मुँहतोड़ जवाब दिया। शुरुआत में, उषा के पिता ने उन्हें स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने के लिए हतोत्साहित किया, क्योंकि वे ब्रिटिश प्रशासन में एक न्यायाधीश के रूप में काम कर रहे थे। हालाँकि, जब वह 1930 में सेवानिवृत्त हुए, तो इस तरह की सभी बाधाएँ उनके रास्ते से हट गईं, जिसके उपरांत बारह वर्षीय उषा सक्रिय रूप से स्वतंत्रता संग्राम का हिस्सा बन पाईं। उनके परिवार का बंबई स्थानांतरण होने के बाद, उनके लिए स्वतंत्रता की लड़ाई में योगदान देना बहुत आसान हो गया। वे कैदियों के रिश्तेदारों से मिलने जाती थीं और उनके संदेश जेलों में बंद उन कैदियों तक पहुँचाती थी।
डॉ. उषा मेहता, जिन्हें उषा बेन के नाम से जाना जाता है, वे कांग्रेस रेडियो की आयोजनकर्ता के रूप में प्रसिद्ध हैं। 14 अगस्त 1942 को उषा और उनके कुछ करीबी सहयोगियों ने गुप्त कांग्रेस रेडियो की शुरुआत की जिसका पहला प्रसारण 27 अगस्त 1942 को हुआ। इस रेडियो ने गांधीजी के रिकॉर्ड किए गए संदेशों, राष्ट्रवादी गीतों और क्रांतिकारियों एवं भारत भर के अन्य प्रख्यात नेताओं के उत्तेजक भाषणों को प्रसारित किया। ब्रिटिश अधिकारियों से बचने के लिए आयोजक लगभग हर दिन स्टेशन के स्थान को बदल देते थे। हालाँकि, यह गुप्त रेडियो स्टेशन केवल तीन महीने ही चला, फिर भी इसने 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के बारे में बिना सेंसर वाली खबरें और ब्रिटिश अधिकारियों द्वारा प्रतिबंधित अन्य सूचनाएँ फैलाकर काफ़ी जागरूकता बढ़ाई।
हालाँकि, सब कुछ योजना के अनुसार नहीं हुआ। पुलिस ने 12 नवंबर 1942 को पुलिस को उनके ठिकाने का पता लग गया। उषा मेहता सहित कई आयोजकों को गिरफ़्तार कर लिया गया। यद्यपि भारतीय पुलिस के आपराधिक जांच विभाग (सीआईडी) ने उनसे छह महीनों तक लगातार पूछताछ की, फिर भी उन्होंने मुकदमे के दौरान अपने बचाव में भी एक शब्द नहीं कहा। उन्हें चार साल की कैद की सज़ा सुनाई गई और पुणे के यरवदा जेल में बंद कर दिया गया। जेल में रहने के दौरान उनकी तबीयत बहुत बिगड़ गई और उन्हें जे. जे. अस्पताल में भर्ती कराया गया। अस्पताल में रहने के दौरान भी उन्हें सुरक्षा में रखा गया था, क्योंकि अधिकारियों को लगता था कि वे वहाँ से भागने की कोशिश कर सकती हैं।
मार्च 1946 में, अंतरिम सरकार के गृह मंत्री मोरारजी देसाई ने उषा बेन की रिहाई का आदेश दिया, जिसके उपरांत वे बंबई में रिहा होने वाली पहली राजनीतिक कैदी बनीं। भारत को स्वतंत्रता मिलने के बाद भी, डॉ. उषा मेहता गांधीवादी विचारधारा और दर्शन के प्रसार में सक्रिय रूप से शामिल रहीं। वे नई दिल्ली में स्थित गांधी शांति प्रतिष्ठान की अध्यक्ष थीं और भारतीय विद्या भवन के संचालन में उनकी एक प्रभावी भूमिका रही। सन् 1998 में, भारत सरकार ने उन्हें पद्म विभूषण से सम्मानित किया। यद्यपि डॉ. उषा मेहता, अगस्त 2000 में अस्वस्थ थीं, फिर भी उन्होंने अगस्त क्रांति मार्ग पर भारत छोड़ो आंदोलन के वर्षगाँठ समारोह में भाग लिया। उसके दो दिन बाद, भारत के लिए संघर्ष करने वाली यह महान योद्धा, अस्सी साल की उम्र में शांतिपूर्वक मृत्यु को प्राप्त हो गईं।