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हैपोउ जादोनांग

Lokanayak Omeo Kumar Das Image source: Wikimedia commons

हैपोउ जादोनांग का रूपचित्र

हैपोउ जादोनांग का जन्म 1905 में मणिपुर के तामेंगलोंग ज़िले के कांबिरोन गाँव में हुआ था। वे एक गरीब किसान परिवार से थे जो रोंगमई नागा जनजाति के मलंगमई कबीले का वंशज था। तीन बेटों में वे सबसे छोटे बेटे थे। अपने जीवन के शुरूआती वर्षों में ही, उन्होंने अध्यात्मवाद को अपना लिया था और वे घंटों तक प्रार्थना में रत रहा करते थे। उन्होंने सिलचर (असम) में भुवन गुफ़ा और ज़िलाद झील (मणिपुर) जैसे स्थानों पर समय बिताया, जो नागाओं के लिए धार्मिक महत्ता के स्थल थे। वहाँ वे भविष्यवाणियाँ किया करते थे और जो लोग उनके पास अपनी बीमारियों से परेशान होकर आते थे, उनका वे स्थानीय जड़ी-बूटियों और दवाओं से उपचार किया करते थे।

कुछ ही समय में, जादोनांग को एक आध्यात्मिक व्यक्ति के रूप में देखा जाने लगा। उन्होंने ज़ेलियानग्रोंग आदिवासी समुदाय में प्रसिद्धि हासिल की, जो असम, मणिपुर और नागालैंड के त्रिकोणीय-संधि स्थल पर रहने वाले कई महत्वपूर्ण देशी नागा समुदायों में से एक था, और जिसके अंतर्गत रोंगमई नागा भी आते थे।

बड़े होते हुए, जादोनांग ने देखा कि कैसे अंग्रेज़ों ने अपने धर्म और जीवन जीने के तरीकों को नागाओं पर थोप रखा है, और उन्होंने महसूस किया कि नागाओं को परिवर्तित करने का अंग्रेज़ों का प्रयास, उनके समुदाय के विश्वासों, रीति-रिवाजों और परंपराओं के लिए एक बड़ा खतरा बन गया है। उस समय अधिकारियों को खुश करने और आर्थिक तंगी से बचने के लिए, कई नागाओं ने ईसाई धर्म अपना लिया था। इस घटनाक्रम ने जादोनांग को नागा संस्कृति के पुनरुद्धार के लिए काम करने और साम्राज्यवादी उत्पीड़नाओं के खिलाफ़ विद्रोह करने के लिए प्रेरित किया।

प्रथम विश्व युद्ध, अंग्रेज़ों के खिलाफ़ नागा युद्ध में एक निर्णायक क्षण था। विभिन्न जनजातियों के नागा लोग ब्रिटिश भारतीय सेना में भर्ती हुए। युद्ध के दौरान, उन्होंने मेसोपोटामिया और फ़्रांस जैसे महत्वपूर्ण युद्ध स्थलों में श्रम वाहिनी के सदस्यों के रूप में कार्य किया। विदेशी धरती पर, ये जनजातियाँ एक साथ आगे आईं, जिसके परिणामस्वरूप नागा क्लब का गठन हुआ। नागाओं की सभी जनजातियों और समुदायों द्वारा इस एकजुटता का प्रदर्शन किया गया। कुछ इतिहासकारों के अनुसार, जादोनांग ने प्रथम विश्व युद्ध के दौरान श्रम वाहिनी के साथ भी काम किया था। इस कार्यभार ने उनके भीतर उपनिवेशवाद विरोधी भावनाओं को उत्तेजित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। मगर एक अन्य लेख इस तरह के दावों का खंडन करता है, जिसमें लेखक का मानना है कि इस तरह के दावों का समर्थन करने के लिए कोई ठोस सबूत नहीं है, क्योंकि उस समय भर्ती होने के लिए जादोनांग बहुत छोटे थे।

लेकिन इस बात में कोई दोराय नहीं है कि जादोनांग ने एक सामाजिक-राजनीतिक आंदोलन, 'हेरका' (जिसका शाब्दिक अर्थ "शुद्ध" है) की शुरुआत की जो प्राचीन नागा रीति-रिवाजों और प्रथाओं पर आधारित था। उन्होंने हेरका धार्मिक सुधार आंदोलन भी शुरू किया जो सर्वशक्तिमान ‘विधाता’ टिंगकाओ रगवांग की पूजा पर केंद्रित था। इन आंदोलनों ने जनजातियों के बीच एकता और सामाजिक एकजुटता का संचार करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, जिसके परिणामस्वरूप ज़ेलियानग्रोंग के लोगों का राजनीतिक एकीकरण हुआ।

Lokanayak Omeo Kumar Das Image source: Wikimedia commons

इम्फाल में हैपोउ जादोनांग की मूर्ति

जादोनांग का अंतिम उद्देश्य साम्राज्यवादी शासन को चुनौती देना था। वे अपनी पहचान छुपाने के लिए एक ब्रिटिश अधिकारी की तरह कपड़े पहनकर घोड़े पर यात्रा करते थे। इसके लिए उन्हें गिरफ़्तार करके जेल भी भेजा गया था। जेल से रिहा होने के बाद, उन्होंने लोगों को इकट्ठा किया और लगभग 500 पुरुषों और महिलाओं की एक सेना की स्थापना की, जिसमें युवा और बुज़ुर्ग समान रूप से शामिल थे। इस स्वदेशी सेना के सदस्यों को 'रिफेन' नाम से जाना जाता था। उन्हें सैन्य रणनीति, हथियारबंदी और सैन्य परीक्षण जैसी युद्ध गतिविधियों में प्रशिक्षित किया जाता था। साथ ही साथ पशुधन, खेती, चराई और ईंधन संग्रहण जैसे असैनिक मामलों में भी उनकी मदद की जाती थी। जादोनांग इतने लोकप्रिय थे कि कुछ आदिवासी समुदायों ने उन्हें कर और उपहार देना शुरू कर दिया, जिससे ब्रिटिश अधिकारी नाराज़ हो गए, क्योंकि इससे उनका राजस्व कम हो रहा था।

जादोनांग को ब्रिटिश अधिकारियों ने देशद्रोह और हत्या के झूठे आरोप लगाकर गिरफ़्तार कर लिया था और 1931 में अदालत द्वारा दोषी पाए जाने के बाद उन्हें फाँसी पर लटका दिया गया। परंतु, उनकी विरासत को उनकी शिष्या, रानी गाइदिन्ल्यू द्वारा आगे बढ़ाया गया। वर्तमान में, नागाओं के इस "मसीहा राजा" के जीवन का स्मरण करके उन्हें श्रद्धांजलि दी जाती है। हर साल 29 अगस्त को, नागा समुदाय के सदस्य, विशेष रूप से ज़ेलियानग्रोंग के लोग, पारंपरिक गीतों, नृत्यों और उत्सवों के साथ उनकी पुण्यतिथि मनाते हैं।

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