कर्मवीर नबीन चंद्र बोरडोलोई
“हम सिर्फ़ न्याय चाहते हैं और वो जो हमारा निश्चित अधिकार है।” यह शब्द सन् 1900 में सर हेनरी कॉटन के एक भाषण के जवाब में कर्मवीर नबीन चंद्र बोरडोलोई द्वारा दिए गए एक लंबे वक्तव्य से लिए गए हैं। उस समय कॉटन असम के मुख्य आयुक्त थे, और अपने भाषण में उन्होंने असम को ‘भारत की सिंड्रेला' कहा था, अर्थात एक गरीब लड़की जो अपने राजकुमार की प्रतीक्षा कर रही है। इस पर नाराज़ हुए बोरडोलोई ने ज़ोर देकर कहा कि असम के लोग बचाए जाने की प्रतीक्षा नहीं कर रहे थे और केवल वही चाहते थे जो उनका अधिकार था।
नबीन चंद्र बोरडोलोई का जन्म 1875 में असम के कामरूप ज़िले में हुआ था। उनके पिता, माधब चंद्र बोरडोलोई, असम प्रशासन में कार्यरत थे और अपने बेटे को एक आरामदायक जीवन देने में सक्षम थे। 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में, नबीन चंद्र बोरडोलोई कानून की शिक्षा प्राप्त करने के लिए कलकत्ता गए और 20वीं शताब्दी की शुरुआत में, उन्होंने वकालत शुरू कर दी। हालाँकि, बोरडोलोई ने अपने पेशे के अलावा और भी कई प्रकार के काम किए और विभिन्न भूमिकाएँ निभाईं। वे असम को एक शैक्षिक और सांस्कृतिक केंद्र के रूप में विकसित करने की इच्छा रखते थे। इसलिए उन्होंने 20वीं शताब्दी की शुरुआत में गुवाहाटी में अर्ल लॉ कॉलेज की स्थापना में एक अग्रणी भूमिका निभाई, जिससे इस कार्य की ओर उनका समर्पण स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। यह भी कहा जाता है कि उन्होंने शहर में कुमार भास्कर नाट्य मंदिर जैसे सांस्कृतिक संस्थानों के निर्माण हेतु भूमि दान की थी। यह संरचना 1912 में बनाई गई थी, जो असम में रंगमंच और अन्य प्रदर्शन कलाओं के लिए एक महत्वपूर्ण केंद्र के रूप में विकसित हुई।
20वीं शताब्दी की शुरुआत में अपनी राजनीतिक यात्रा का आगाज़ करते हुए बोरडोलोई असम एसोसिएशन में शामिल हो गए। एसोसिएशन की ओर से एक प्रतिनिधिमंडल के सदस्य के रूप में, 1919 में बोरडोलोई इंग्लैंड गए। वे वहाँ मोंटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधारों में असम को शामिल करने की दलील करने गए थे। मोंटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधारों के माध्यम से भारत में स्वशासन की क्रमिक शुरूआत की योजना बनाई जा रही थी। इस यात्रा की सफ़लता और नई प्रशासनिक योजना में असम को शामिल करने से बोरडोलोई को काफ़ी प्रसिद्धि और सम्मान मिला।
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के साथ नबीन चंद्र बोरडोलोई के संबंध औपचारिक रूप से 1920 में नागपुर सत्र के साथ शुरू हुए। इसके बाद, बोरडोलोई ने असम में कांग्रेस की गतिविधियों को आगे बढ़ाने और असहयोग आंदोलन के लिए लोगों को जुटाने की पहल की। इस दौरान और बाद में 1930 के दशक में उनकी भागीदारी और सक्रियता के लिए, बोरडोलोई को अंग्रेज़ों द्वारा कैद किया गया और उनके साथ कठोर व्यवहार भी किया गया। 1936 में उनके निधन से पहले, बोरडोलोई ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में विभिन्न महत्वपूर्ण पदों पर कार्य किया। 1926 में, वे पांडु में हुए कांग्रेस सत्र की स्वागत समिति के एवं ज़िला कांग्रेस कमेटी के महासचिव रहे। इसके अतिरिक्त, उन्होंने गुवाहाटी स्थानीय बोर्ड और भारतीय विधान सभा के सदस्य के रूप में भी कार्य किया। एक राजनीतिक कार्यकर्ता होने के अतिरिक्त, बोरडोलोई एक उल्लेखनीय लेखक और अनुवादक भी थे। उन्होंने, कई गीत रचे थे, सेवाली नामक एक उपन्यास और कई नाटक लिखे थे, शेक्सपियर के नाटकों का अंग्रेज़ी से असमिया में अनुवाद किया था इत्यादि। उनके अधिकांश कार्यों में, देशभक्ति, एक महत्वपूर्ण अंतर्निहित विषय था। उनके समर्पण, दृढ़ता और कड़ी मेहनत ने उन्हें कर्मवीर की लोकप्रिय उपाधि दिलाई।
नबीन चंद्र बोरडोलोई ने भारत की स्वतंत्रता के लिए समर्पित एक शानदार जीवन व्यतीत किया। अपने सक्रियतावाद एवं जीवन शैली के माध्यम से उन्होंने खादी के उपयोग और अहिंसा के सिद्धांत का ज़ोरदार प्रचार किया। देश की स्वतंत्रता के लिए उनकी अथक लड़ाई और असमिया भाषा के प्रति उनके प्रेम ने उन्हें असम में एक लोकप्रिय राजनीतिक और साहित्यिक हस्ती बना दिया।