पोट्टि श्रीरामुलु
अमरजीवी
"भारत बहुत पहले ही स्वतंत्रता प्राप्त कर लेता यदि इनके जैसे कुछ और दिग्गज (इस देश में) होते", ये शब्द गांधीजी ने पोट्टि श्रीरामुलु के बारे में कहे थे। वह एक स्वतंत्रता सेनानी थे जिन्होंने आंध्र प्रदेश के निर्माण के लिए अपने जीवन का बलिदान दिया था।
पोट्टि श्रीरामुलु का जन्म 16 मार्च 1901 को मद्रास में एक ऐसे परिवार में हुआ था,जिन्होंने अपने पैतृक स्थान गुंटूर (आंध्र प्रदेश) से स्थानांतरित हो कर, मद्रास (जिसे अब चेन्नई कहा जाता है) को अपना दूसरा घर बना लिया था। यद्यपि उनके पास एक स्थायी नौकरी थी और वह एक समृद्ध जीवन जी रहे थे, लेकिन श्रीरामुलु देश की स्वतंत्रता की लड़ाई में भी गंभीर रूप से सक्रिय थे। इसके अलावा, 1928 और 1930 के बीच उन्होंने अपनी निजी ज़िंदगी में कई त्रासदियों के चलते अपनी पत्नी, बच्चे और माँ को एक के बाद एक खो दिया, जिसके बाद उन्होंने अपनी नौकरी छोड़ दी और गांधीजी के साबरमती आश्रम में रहने का फैसला किया। उन्होंने नमक सत्याग्रह में भाग लिया और इस मामले में गिरफ़्तार किए गए कई लोगों में से एक वह भी थे। 1942 में, वह भारत छोड़ो आंदोलन में शामिल हो गए और गांधीजी के साथ जेल गए।
श्रीरामुलु, जो गांधीवाद के एक उत्साही अनुयायी थे, उन्होंने भारत के गाँवों, जहाँ भारत के अधिकांश निवासी रहते थे, उनकी सेवा करने के गांधीजी के आह्वान का उत्तर दिया। 1946 में, वे दलितों के कल्याण के लिए काम करने के लिए नेल्लोर लौट आए। भारत की स्वतंत्रता के लिए लड़ने के अलावा, उन्होंने दलित समुदाय की सामाजिक और आर्थिक मुक्ति के लिए भी संघर्ष किया। जहाँ अन्य कॉन्ग्रेसी देश को अंग्रेज़ों से मुक्त करने के लिए संघर्ष कर रहे थे, वहीं दूसरी ओर श्रीरामुलु अपने प्रदेश से संबंधित अन्य महत्वपूर्ण मुद्दों को सुलझाने के लिए अनिश्चित काल तक अनशन पर बैठे। उन्होंने इस बात पर ज़ोर डाला कि मद्रास प्रांत के सभी मंदिरों को दलित समुदाय के लिए खोल दिया जाना चाहिए, और उन्होंने तब तक अपना अनशन नहीं तोड़ा, जब तक गांधीजी ने उन्हें ऐसा करने के लिए मना नहीं लिया। उनकी प्रतिबद्धता और देशभक्ति की भावना इतनी दृढ़ थी कि गांधीजी अक्सर कहा करते थे, "यदि मेरे श्रीरामुलु जैसे ग्यारह और अनुयायी होते, तो मैं एक साल में [ब्रिटिश शासन से] स्वतंत्रता प्राप्त कर लेता।"
इसी दौरान, भाषाओं के आधार पर राज्यों का गठन तेज़ी से लोकप्रिय हो रहा था। 1948 में गांधीजी की मृत्यु के बाद, श्रीरामुलु ने तेलुगु भाषी क्षेत्रों के लिए एक अलग राज्य की स्थापना का प्रस्ताव रखा था। दुर्भाग्यवश उनके इस प्रस्ताव को नेहरू और सी राजगोपालाचारी जैसे राजनीतिक दिग्गजों ने इस आधार पर खारिज कर दिया कि मद्रास जैसा क्षेत्र कभी भी तेलुगु भाषी क्षेत्र का हिस्सा नहीं होगा, क्योंकि तेलुगु और तमिल बोलने वाली दोनों आबादियाँ इस पर दावा कर रही थी। 19 अक्टूबर 1952 को, श्रीरामुलु ने आंध्र के लोगों की अलग राज्य की माँग पर ज़ोर डालने के लिए अनशन शुरू किया।
हालाँकि पहले छह हफ़्तों में बड़े नेताओं द्वारा उनके अनशन को नज़रंदाज़ कर दिया गया, लेकिन कई जगहों पर बिगड़ती कानूनी-व्यवस्था की स्थिति को देखकर उन्हें अंततः इस पर ध्यान देने के लिए मजबूर कर दिया। कहा जाता है कि नेहरू जी ने 12 दिसंबर को राजाजी को पत्र लिखकर उनसे नए राज्य की माँग को स्वीकार करने का अनुरोध किया था। आंध्र के गठन के लिए प्रधानमंत्री नेहरू का समर्थन मिलने के बावजूद, श्रीरामुलु ने अपना अनशन तोड़ने से इनकार कर दिया क्योंकि इस आशय की कोई आधिकारिक घोषणा नहीं की गई थी। आंध्र में, दंगे जारी रहे और श्रीरामुलु के अनशन ने लोगों के मध्य व्यापक आक्रोश फैलाया। आधिकारिक घोषणा में देरी के परिणामस्वरूप श्रीरामुलु का स्वास्थ्य बिगड़ता गया, और अंततः 58 दिनों के अनशन के बाद, 15 दिसंबर 1952 को उनका निधन हो गया। 19 दिसंबर को, श्रीरामुलु की मृत्यु के बाद हुए विरोध प्रदर्शनों के उपरांत, प्रधानमंत्री नेहरू ने एक अलग आंध्र राज्य बनाने के निर्णय की औपचारिक रूप से घोषणा की।
1 अक्टूबर 1953 को, आंध्र राज्य के तेलुगु भाषी हिस्से को मद्रास राज्य से अलग कर दिया गया था, जिसकी राजधानी कुरनूल थी। श्रीरामुलु पोट्टि को आंध्र के लोगों के लिए उनके सर्वोच्च बलिदान के लिए "अमरजीवी" की उपाधि से सम्मानित किया गया। भाषा के आधार पर राज्यों का गठन क्षेत्रीय भाषाओं और संस्कृति के संरक्षण और प्रसार की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम था। आज, आंध्र प्रदेश के तेरह जिलों में से एक, श्री पोट्टि श्रीरामुलु नेल्लोर जिला उनके नाम पर है।