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कृष्ण नाथ सरमा
असम के महान गांधीवादी

Lokanayak Omeo Kumar Das Image source: Wikimedia commons

A statue of Krishna Nath Sarmah installed at Kabita Kanan Ganesh Gogoi, a park at the Doss and Co Chariali

असम भारत के स्वतंत्रता संग्राम में सबसे आगे रहा है। मातृभूमि के लिए साहस, अटलता, प्रतिरोधक्षमता और जुनून के वीरतापूर्ण वर्णन असम में भारत के स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास के आख्यानों में पाए जाते हैं। ऐसी ही एक कहानी एक स्वतंत्रता सेनानी और 20वीं शताब्दी की शुरुआत के समाज सुधारक, कृष्ण नाथ सरमा के बारे में है।

उन्हें अपनी निस्वार्थता, करुणा और बलिदान की भावना के लिए जाना जाता था। उन्होंने असम में स्वतंत्रता संग्राम में गोपीनाथ बोरडोलोई, नबीन चंद्र बोरडोलोई और तरुण राम फुकन जैसे सुप्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानियों का साथ दिया था।

कृष्ण नाथ का जन्म 1887 में असम के जोरहाट नामक कस्बे में एक रूढ़िवादी परिवार में हुआ था। विज्ञान और कानून दोनों में स्नातक होने के बाद, 1917 में उन्होंने वकालत शुरू करी। दिलचस्प बात यह है कि उन्हें कृष्ण मामा के रूप में जाना जाता था, क्योंकि पढ़ाई के दिनों से ही उनके विचारों, शब्दों और कार्यों में बहुत परिपक्वता और स्पष्टता दिखाई देती थी।

वह दिल से एक सच्चे गांधीवादी थे क्योंकि वे गांधीजी के काम से बहुत प्रेरित थे। कृष्ण नाथ ब्रिटिश शासन के अत्याचारों से अच्छे से वाकिफ़ थे। एक समस्या जिससे वह सबसे ज्यादा परेशान थे वो थी पूरे असम में लोगों को अफ़ीम की व्यापक लत। 18वीं और 19वीं शताब्दी के अंत में, ईस्ट इंडिया कंपनी के सिपाहियों ने इस क्षेत्र में अफ़ीम की खेती को लोकप्रिय बनाने के लिए लोगों को अफ़ीम से अवगत कराया। राज्य में अफ़ीम की बढ़ती लत को मद्दे नज़र रखते हुए, कृष्ण नाथ ने कुलधौर चाॅलिहा और रोहिणी कुमार जैसे अन्य स्वतंत्रता सेनानियों और राजनेताओं के साथ अफ़ीम की बढ़ती खपत को रोकने के प्रयास किए। उन्होंने इसके उपयोग के पूर्ण निषेध के लिए अथक संघर्ष किया। अंतत: उनकी मेहनत रंग लाई और उन्होंने यह लड़ाई जीत ली।

गांधीजी की अस्पृश्यता को दूर करने के आह्वान ने कृष्ण नाथ को इस समस्या से लड़ने के लिए प्रेरित किया। नामघर पूरे असम में पाया जाने वाला एक प्रार्थना घर होता है। 18 अप्रैल 1934 को, गांधीजी ऊपरी असम के जोरहाट कस्बे गए और वहाँ उन्होंने हरिजनों के खाने और प्रार्थना करने के लिए कृष्ण नाथ के परिवार का नामघर खोल दिया। हरिजनों को प्रवेश की अनुमति देने के इस नेक कार्य के बाद, लोग उन्हें हरिजन बंधु के रूप में पुकारने लगे। हालाँकि कृष्ण नाथ के परिवार को इस कार्य के बाद एक दशक से अधिक समय तक समाज ने बहिष्कृत कर दिया, लेकिन इस बात का उन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। गांधीजी ने उनकी निडर प्रवृत्ति को देखकर उनकी प्रशंसा करते हुए कहा, "कृष्ण नाथ जैसे बहादुर सेनानी कभी भी किसी भी बाधा का सामना करने से डरते नहीं"। गांधीजी उनका बहुत सम्मान करते थे। इस ऐतिहासिक दिन के बाद, कृष्ण नाथ ने हरिजनों के लिए 12 स्कूल खोले। भारत की आज़ादी के लिए उनकी लड़ाई यहीं पर खत्म नहीं हुई थी। वह ऐतिहासिक दांडी मार्च के दौरान भी गांधीजी के साथ चले, और उन्होंने खादी के उपयोग को बढ़ावा देने के लिए भी अथक प्रयास किया।

कृष्ण नाथ अपना विद्वेष व्यक्त करने से कभी भी पीछे नहीं हटे और अपने ब्रिटिश विरोधी रुख के लिए कई मौकों पर गिरफ़्तार भी हुए। 1942 में जोरहाट में 02 अक्टूबर 'सैनिक दिवस' के रूप में मनाया गया था। उस दिन कृष्ण नाथ ने अपने हाथ में फूलों की माला लेकर पूरे शहर में एक विशाल जुलूस का नेतृत्व किया। जब उन्हें सैन्य कर्मियों द्वारा रास्ते में रोका गया तो उन्होंने उन्हें शांतिपूर्वक अपने मार्च का उद्देश्य समझाया और फिर सैनिकों की बंदूक पर माल्यार्पण कर उन्हें अचंभित कर दिया। उनके अहिंसक विरोध के बावजूद, कृष्ण नाथ को इस कृत्य के लिए गिरफ़्तार कर लिया गया।

विरोध जताने के उनके अद्वितीय तरीकों के परिणामस्वरूप उन्हें बार-बार गिरफ़्तार किया गया, जिसने अंततः उनके स्वास्थ्य पर भारी असर डाला। 1947 में, भारत के स्वतंत्र राष्ट्र बनने से कुछ महीने पहले कृष्ण नाथ सरमा का निधन हो गया।

Lokanayak Omeo Kumar Das Image source: Wikimedia commons

Krishna Nath Sarmah Stamp