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चंद्रप्रभा सैकियानी

Lokanayak Omeo Kumar Das Image source: Wikimedia commons

Chandraprabha Saikiani

1900 के दशक में चल रहे स्वतंत्रता संग्राम के अलावा, असम में उस समय महिलाओं के अधिकारों और शिक्षा के विषय में क्रांतिकारी विकास भी देखा जा रहा था। जहाँ एक ओर देश विभाजन, अलगाव, जाति और धार्मिक अत्याचारों से जूझ रहा था, वहीं एक ऐसा मुद्दा भी था जिसे अक्सर दरकिनार कर दिया जाता था: महिलाओं के अधिकार और उनके दृष्टिकोण को आवाज़ देने की आवश्यकता का मुद्दा। स्थिति इतनी खराब थी कि छोटी लड़कियों को बुनियादी प्राथमिक शिक्षा भी प्राप्त करने से रोक दिया जाता था।

चंद्रप्रभा सैकियानी का जन्म 16 मार्च 1901 को असम के कामरूप जिले के दोईसिंगारी गाँव में हुआ था। वह रतिराम मज़ूमदार की बेटी थीं, जो गाँव के 'गाँवबूढ़ा' (मुखिया) थे। प्राथमिक स्तर तक शिक्षित रतिराम ने अपनी बेटियों से स्थानीय एमवी स्कूल से स्कूली शिक्षा ग्रहण करने के लिए दृढ़तापूर्वक अनुनय किया। चंद्रप्रभा और उनकी बहन को लड़कों के विद्यालय जाना पड़ा क्योंकि उनके गाँव में लड़कियों के लिए कोई विद्यालय नहीं था। लड़कियों के लिए शिक्षा की अनुपलब्धता ने चंद्रप्रभा को उद्विग्न किया और उन्हें इस मुद्दे को उठाने के लिए प्रेरित किया।

13 साल की छोटी सी उम्र में ही उन्होंने अकाया गाँव में एक छप्पर के नीचे एक स्कूल की स्थापना की जो सिर्फ लड़कियों के लिए ही था। वह पहले पढ़ने के लिए कुछ दूरी तय करके लड़कों के स्कूल जातीं और फिर अपने गाँव लौटकर लड़कियों को वह सब पढ़ातीं जो उन्होंने विद्यालय में सीखा था। उनके इस नेक काम से नीलकांत बरुआ बेखबर न रह पाए, जो उस विद्यालय के निरीक्षक थे। उनका ध्यान चंद्रप्रभा के उत्साह और प्रतिबद्धता पर गया। उनके अचंभे की तब कोई सीमा न रही जब उन्होंने उसे अपनी पढ़ाई करते हुए देखा और यह भी सुनिश्चित करते हुए कि वह अपनी शिक्षा को अन्य लड़कियों के साथ साझा कर रही है। नियत समय में, उन्हें और उनकी छोटी बहन रजनीप्रभा को नौगाँव मिशन स्कूल में पढ़ने के लिए छात्रवृत्ति दी गई। दिलचस्प बात यह है कि रजनीप्रभा असम की पहली महिला डॉक्टर बनीं।

नौगाँव मिशन स्कूल में पढ़ते समय, चंद्रप्रभा हिंदू और ईसाई छात्रों के बीच स्पष्ट अंतर से अवगत हुईं। ईसाई धर्म प्रचारकों द्वारा कराए जा रहे जबरन धर्म परिवर्तन को देखकर उनके पैरों तले जमीन खिसक गई। वास्तव में, छात्राओं को तब तक छात्रावास में रहने की अनुमति नहीं थी जब तक कि वे ईसाई धर्म में परिवर्तित नहीं हो जातीं। चंद्रप्रभा ने इस मामले में बहादुरी से अपनी आवाज़ उठाई और सभी धर्मों की लड़कियों को बिना धर्म परिवर्तन के छात्रावास में रहने की अनुमति देने के लिए अधिकारियों से लड़ाई लड़ी ।

Lokanayak Omeo Kumar Das Image source: Wikimedia commons

A stamp to honour the lady…

उनका अंतर्निहित उत्साह और निडर रवैया तब स्पष्ट हुआ जब सत्रह साल की उम्र में, उन्होंने अफ़ीम पर प्रतिबंध लगाने के लिए एक विशाल जनसमूह को संबोधित किया; एक ऐसी लत जो उनके राज्य को तबाह कर रही थी। उन्होंने जाति से संबंधित और सामाजिक बुराइयों के खिलाफ़ भी लड़ाई लड़ी। जाति, लिंग या धर्म के आधार पर भेदभाव की परवाह न करते हुए उन्होंने सभी लोगों के लिए 'हाजो हयग्रीव माधव' मंदिर खोला।

Lokanayak Omeo Kumar Das Image source: Wikimedia commons

Statue at Chandraprabha Saikiani Centre for Women Studies (Tezpur University – Assam)

चंद्रप्रभा असम के वैष्णव संत, श्रीमंत शंकरदेव की शिक्षाओं से इतनी प्रेरित थीं कि उन्होंने हर तरह के कदाचार के खिलाफ़ लड़ाई की। 1921 में, वह असहयोग आंदोलन में प्रतिभागी बनीं और असम की महिलाओं को भी ऐसा करने के लिए संघटित किया। अंततः 1926 में असम प्रादेशिक महिला समिति की स्थापना हुई, जिसका कार्य महिला-केंद्रित मुद्दों पर ध्यान देना था और शिक्षा के महत्व, बाल विवाह की रोकथाम और महिलाओं के लिए रोज़गार की महत्ता को उजागर करना था। उन्होंने हथकरघा और हस्तशिल्प के महत्व पर भी प्रकाश डाला। असम में यह पहला संगठित महिला आंदोलन था और इन आदर्शों का आज भी पालन किया जाता है।

चंद्रप्रभा आगे चलकर एक सफल लेखिका बनीं। अपने उपन्यास प्रिरिविथा में, उन्होंने असमिया समाज में महिलाओं की स्थिति पर प्रकाश डालने के लिए अपने जीवन का वर्णन किया। उन्होंने कई किताबें प्रकाशित करी और सात साल तक अभिजयत्री पत्रिका की संपादक रहीं। 1972 में, उन्हें भारत सरकार द्वारा पद्म श्री से सम्मानित किया गया। 13 मार्च 1972 को चंद्रप्रभा सैकियानी का निधन हो गया। एक नारी जो अपने समय से बहुत आगे थीं, उन्होंने अपना पूरा जीवन पितृसत्तात्मक समाज के शिकंजे से महिलाओं को मुक्त करने का प्रयास करते हुए गुज़ार दिया।