भोगेश्वरी फुकननी
भारत की आज़ादी की यात्रा लंबी और कठिन थी। देश भर से हज़ारों लोगों ने विभिन्न क्षमताओं में इसमें अपना योगदान दिया था। लेकिन आज उनके अनेक कार्य और बलिदान न ही व्यापक रूप से प्रसिद्ध हैं और न ही उन पर चर्चा की जाती है। विशेष रूप से यह उन महिलाओं के लिए सत्य है, जो स्वतंत्रता संग्राम में सम्मिलित हुईं और देश की आज़ादी के लिए निष्ठुरता से लड़ी। उनकी उपलब्धियों और बहादुरी के कार्यों को शायद ही कभी याद किया जाता है। यदि महिला स्वतंत्रता सेनानियों का कीर्तिगान किया जाता भी है तो उसमें केवल रानी लक्ष्मी बाई, सरोजिनी नायडू और एनी बेसेंट जैसे कुछ प्रमुख नाम ही शामिल होते हैं। जबकि स्वतंत्रता सेनानियों के कई और नाम और कहानियाँ इतिहास के पन्नों में छिपी हैं, जो उन्हें खोज निकालने की प्रतीक्षा में हैं। ऐसा ही एक अकीर्तित नाम वीरांगना भोगेश्वरी फुकननी का है।
फुकननी का जन्म सन् 1885 में असम के नौगाँव जिले के बरहामपुर में हुआ था। 20वीं शताब्दी में नौगाँव राष्ट्रवादी गतिविधियों का एक महत्वपूर्ण केंद्र था। फुलगुरी और बरहामपुर जैसी जगहों में, विरोधों और प्रदर्शनों के माध्यम से उपनिवेश विरोधी भावनाओं को दृढ़ता से व्यक्त किया गया था। फुकननी जो एक साधारण गृहिणी, एक पत्नी और आठ बच्चों की माँ थी, उन्हें राष्ट्रवाद में दृढ़ विश्वास था। उन्होंने अपने बच्चों को भारत की आज़ादी के आंदोलन में सम्मिलित होने के लिए प्रेरित किया। 1942 में, जब भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने भारत छोड़ो आंदोलन का आह्वान करने का फैसला किया, तब वह साठ साल की थी। यह आंदोलन 20वीं शताब्दी की शुरुआत में हुए दूसरे आंदोलनों जैसे असहयोग और सविनय अवज्ञा आंदोलनों से अलग था। इन आंदोलनों में, प्रतिभागियों के कार्यों की आधारशिला अहिंसा थी। लेकिन भारत छोड़ो आंदोलन सार्वजनिक विरोधों के हिंसात्मक निसरणों से भरपूर था जिन्हें अक्सर ब्रिटिश अधिकारियों द्वारा उकसाया जाता था। कई प्रमुख, राष्ट्रीय स्तर के नेता सरकार द्वारा तुरंत जेल में डाल दिए गए थे। इस वजह से आंदोलन की बागडोर आम लोगों के हाथ में आ गई और इसने उन्हें स्वच्छंदता की भावना प्रदान करी। फिर भी, उनकी क्रियाएँ सावधानीपूर्वक नियोजित करी जाती थी।
आंदोलन के दौरान अंग्रेज़ों द्वारा बरहामपुर में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के कार्यालय को ज़ब्त कर लिया गया था। कांग्रेस नेता, कार्यकर्ता और समर्थक बुरी तरह से प्रताड़ित किए गए थे। इससे क्रोधित होकर, उस क्षेत्र के लोगों ने पलटवार किया और 1942 के सितंबर में कार्यालय को पुनः प्राप्त किया। विजयी जनता ने एक सामुदायिक दावत के साथ अपनी जीत का जश्न मनाने का फैसला किया। वहीं दूसरी ओर, औपनिवेशिक अधिकारियों ने अपनी हार का बदला लेने का दृढ़ संकल्प लिया। उन्होंने उत्साही कार्यकर्ताओं को परास्त करने और उन्हें दंडित करने के लिए किसी विश्वसनीय कैप्टन 'फ़िनिश' को भेजा था। एक आख्यान के अनुसार, भोगेश्वरी फुकननी ने अंग्रेज़ों के विरुद्ध लोगों का नेतृत्व किया। कहा जाता है कि जब उस कैप्टन ने फुकननी के साथ सबसे आगे रहने वाली एक अन्य क्रांतिकारी रतनमाला के हाथों से राष्ट्रीय ध्वज छीनकर उसका अनादर किया तो फुकननी ने उस पर झंडे के डंडे से प्रहार किया। इसी कहानी का एक अलग विवरण हमें बताता है कि उन्होंने कैप्टन पर झंडे के डंडे से तब हमला किया जब उसने उनके बेटे को निशाना बनाया था। जो भी था, फुकननी द्वारा प्रहार किए जाने के अपमान को सहन करने में असमर्थ कैप्टन ने उन्हें गोली मार दी। अंततः गोली के घाव के कारण उन्होंने अपना दम तो तोड़ दिया, लेकिन अपने पीछे बहादुरी और देशभक्ति की एक अमूल्य विरासत छोड़ गई।
आज, फुकननी असम में अनेक लोगों के लिए एक प्रेरणा स्रोत है। उन्हें अपने देशवासियों के उत्पीड़कों के विरुद्ध लड़ने में न तो उनकी उम्र और न ही उनकी घरेलू ज़िम्मेदारियाँ रोक सकी। भोगेश्वरी फुकननी और उनके जैसे कई अन्य लोगों ने भारत में अंग्रेज़ों के विरुद्ध लड़ते हुए और एक स्वतंत्र देश की स्थापना करते हुए अपने प्राणों की आहुति दे दी। उनके बलिदान हमें उनके पथ पर चलने और राष्ट्र के भविष्य को मज़बूत बनाने में योगदान देने के लिए प्रेरित करते हैं।