ए वी कुट्टीमालु अम्मा
गांधी जी के शब्द भविष्यसूचक साबित हुए जब उन्होंने कहा, “जब भारत के स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास लिखा जाएगा, तब भारत की महिलाओं द्वारा दिए गए बलिदान को सर्वप्रथम स्थान दिया जाएगा।” शिक्षित हों या अशिक्षित, भारत की महिलाओं ने स्वयंसेवा, चुनाव प्रचार, विरोध, और उपवास करके और दान देकर आज़ादी की लड़ाई में अपना योगदान दिया, तथा इन महिलाओं का बलिदान भारत के स्वतंत्रता संग्राम का आधार बना।
वर्तमान केरल राज्य के मालाबार क्षेत्र से ताल्लुक रखने वाली, ए वी कुट्टीमालु अम्मा ऐसी ही एक स्वतंत्रता सेनानी और महान सामाजिक कार्यकर्ता थीं। इनका जन्म 1905 में अनक्कारा वडक्कथ परिवार में हुआ, एक ऐसा परिवार जिसने इस देश को, कप्तान लक्ष्मी, मृणालिनी साराभाई, सुभाषिनी अली, जैसी कई महिला कार्यकर्ता और सामाजिक सेविकाएँ प्रदान की हैं। कुट्टीमालु अम्मा महात्मा गांधी, सरोजिनी नायडू, और अन्य महान नेताओं की कहानियाँ पढ़कर बड़ी हुई। परंतु, एक सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में इनके द्वारा किए गए कार्य, 1926 में इनके विवाह के उपरांत ही शुरू हुए, जब गांधी जी हरिजनों के उत्थान हेतु केरल पहुँचे।
कुट्टीमालु अम्मा कालीकट के महिला संघ की सदस्य थीं। 1930 में जब वल्लभभाई पटेल और मदन मोहन मालवीय जैसे प्रमुख नेताओं को गिरफ़्तार किया गया, तब 15 अगस्त 1930 को ‘अखिल भारतीय सियासी पीड़ित दिवस’ के रूप में मनाने का निर्णय लिया गया। कुट्टीमालु के नेतृत्व में महिला संघ ने इसका प्रचार करते हुए पूरे शहर का दौरा किया। यह पहली बार था कि मालाबार की महिलाओं ने स्पष्ट रूप से राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम की गतिविधियों में हिस्सा लिया था। कुट्टीमालु एक सक्रिय स्वदेशी कार्यकर्ता भी थीं और दूसरी महिलाओं को भी केवल खादी ही पहनने और विदेशी कपड़े का विरोध करने के लिए प्रोत्साहित करती थीं। 1931 में उन्होंने महिलाओं के एक समूह का नेतृत्व करते हुए विदेशी कपड़ा बेचने वाली दुकानों का घेराव किया।
कुट्टीमालु विशुद्ध दृढ़ संकल्प से प्रेरित थीं, और यह इस तथ्य से स्पष्ट होता है कि अपने राजनीतिक कार्यकाल में कई बार गिरफ़्तार किए जाने के बावजूद उन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन में उत्साहपूर्वक भाग लेना जारी रखा। 1932 में सविनय अवज्ञा आंदोलन के दौरान कुट्टीमालु ने प्रतिबंध के आदेश का उल्लंघन करते हुए, अपने 2 माह के बच्चे को अपनी बाँहों में लिए हुए, महिलाओं के एक विरोध प्रदर्शन का नेतृत्व किया। जब वे जेल पहुँची, तो उन्हें अपने बच्चे को साथ ले जाने से रोका गया। एक तेज़तर्रार महिला होने के नाते, उन्होंने प्रासंगिक नियम और कानून बताए, और इस तरह अपने बच्चे को साथ ले जाने में सफल रहीं। उनके इस साहसी कार्य ने अन्य महिलाओं को आगे आने और स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लेने के लिए प्रेरित किया।
1940 में, जब गांधीजी का व्यक्तिगत सत्याग्रह देश में चारों ओर फैल रहा था, कुट्टीमालु ने इसके लिए लोगों को एकत्रित करने में एक अहम भूमिका निभाई। इस दौरान, एक दिन चेवायुर में आयोजित सार्वजनिक सभा को संबोधित करते हुए उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया और एक साल के लिए जेल भेज दिया गया। 1942 में फिर से, भारत छोड़ो आंदोलन में उनके द्वारा निभाई गई भूमिका के लिए उन्हें दो साल की सज़ा सुनाई गई। 1944 में, रिहाई के बाद उन्होंने दिल्ली चलो अभियान में स्वयंसेवक के रूप में भाग लिया, जिसके कारणवश अंग्रेज़ी शासन ने, अन्य सत्याग्रहियों सहित, उन्हें फिर से जेल भेज दिया।
स्वतंत्रता संग्राम में अपनी सक्रिय भागीदारी के अलावा, वे अखिल केरल महिला लीग के संस्थापक सदस्यों में से एक थीं, और भारतीय महिला संघ और अखिल भारतीय महिला सम्मेलन की सक्रिय सदस्य थीं। वे अखिल भारतीय कांग्रेस समिति, कांग्रेस कार्य समिति और केरल प्रदेश कांग्रेस समिति की सदस्य थीं, और बाद में इसकी अध्यक्ष भी बनीं। एक ऐसे समय में जब महिलाएँ शायद ही कभी विधानसभा के चुनावों के लिए खड़ी होती थीं, कुट्टीमालु ने चुनाव लड़ा, जीता और 1937 और 1946 में दो बार मद्रास विधानसभा के सदस्य के रूप में कार्य किया। वे कालीकट की नगर निगम पार्षद भी थीं।
राजनीति के अलावा, कुट्टीमालु एक सामाजिक कार्यकर्ता भी थीं। उन्होंने अनाथ और निराश्रित लोगों के लिए काम किया, और युवा अपराधियों के पुनर्वास के लिए एक किशोर गृह भी खोला। उन्होंने कभी भी सार्वजनिक जीवन से संन्यास नहीं लिया और आज़ादी के बाद भी देश की सेवा करना जारी रखा। वर्ष 1985 में उनका निधन हो गया। जैसा कि उन्होंने स्वयं कहा था, "एक राजनेता जीवन समाप्त होने तक सक्रिय राजनीति से कभी संन्यास नहीं ले सकता है।” उनके पथ-प्रवर्तक काम को मान्यता देते हुए, उन्हें राष्ट्रीय और राज्य स्तर पर सेवाओं के लिए मल्लुर गोविंदपिल्लई-वेलुथंबी दलावा पुरस्कार से सम्मानित किया गया। आज, वे प्यार से "अम्मा" के नाम से याद की जाती हैं।