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अबादी बानो बेगम (बी अम्मा)

Lokanayak Omeo Kumar Das Image source: Wikimedia commons

अबादी बानो बेगम

“स्वतंत्रता पाने के लिए सांप्रदायिक सद्भाव अनिवार्य है।"
ये शब्द, सांप्रदायिक सद्भाव के लिए उठने वाली सबसे बड़ी आवाजों में से एक मानी जाने वाली, एक मुसलमान महिला द्वारा कहे गए थे। उन्होंने हिंदुओं और मुसलमानों को "भारत की दो आँखों" के रूप में वर्णित किया था। 1850 में पैदा हुईं आबादी बानो बेगम (जो बी अम्मा के नाम से मशहूर हुईं) का पालन-पोषण एक ऐसे परिवार में हुआ था जिसे 1857 के स्वतंत्रता के पहले युद्ध के बाद अंग्रेज़ों द्वारा प्रताड़ित किया गया था। ऐसे कटु अनुभवों के बावजूद, यह उनका तरुण मिज़ाज ही था जिसके कारण उनके मन में अपने देश की स्वतंत्रता के लिए लड़ने की लौ प्रज्वलित हुई। बी अम्मा का विवाह, अल्पायु में ही, उत्तर प्रदेश के रामपुर ज़िले के अब्दुल अली खान नामक एक वरिष्ठ अधिकारी से कर दिया गया था। उन्होंने एक बेटी और पाँच बेटों को जन्म दिया। उनके सभी बच्चों में से, मौलाना शौकत अली और मौलाना मोहम्मद अली जौहर, भारतीय इतिहास में ‘अली भाइयों’ के रूप में प्रसिद्ध हुए, जिन्होंने ब्रिटिश शासन के विरुद्ध ‘खिलाफत आंदोलन’ शुरू किया था।

अपने पति की हैजे के कारण मृत्यु हो जाने पर, बहुत ही कम उम्र में बी अम्मा विधवा हो गईं। परंतु, इसके कारण उन्हें अपना लक्ष्य हासिल करने में कोई बाधा नहीं आई। अपनी सभी कठिनाईयों और औपचारिक शिक्षा के अभाव के बावजूद, बी अम्मा ने आगे बढ़ना शुरू किया। वे अपने बच्चों को उच्च गुणवत्ता वाली शिक्षा प्रदान करने के लिए दृढ संकल्पित थीं। जब उन बच्चों के चाचा ने उन्हें पढ़ाने से मना कर दिया, तो इस डर से कि कहीं उनके बच्चे अशिक्षित ना रह जाएँ, बी अम्मा ने अपने पड़ोसी की नौकरानी की सहायता लेकर, अपने बच्चों की शिक्षा के लिए भुगतान करने हेतु अपने गहने गिरवी रख दिए। इस बारे में बहुत सी कथाएँ हैं कि कैसे इस युवा विधवा ने अपने बच्चों को सादे भोजन और सादे कपड़ों में पाला, और उन्हें अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय और ऑक्सफ़ोर्ड में शिक्षित किया।

अपने प्रगतिवादी स्वभाव के बावजूद, बी अम्मा 'सख्त परदे' की अवधारणा में विश्वास रखती थीं। उन्होंने बुर्का पहनकर एक राजनीतिक सभा को संबोधित करने वाली पहली मुस्लिम महिला बनकर, घूंघट करने वाली महिलाओं से जुड़ी सभी गलत अवधारणाओं को खारिज कर दिया। 1917 में, अबादी बानो बेगम, अंग्रेज़ों के खिलाफ़ विरोधी गतिविधियों के लिए कैद कर लिए गए अपने बेटों, मोहम्मद अली और शौकत अली, की रिहाई के लिए याचिका दायर करने वाले प्रदर्शन में शामिल हो गईं। इसी प्रदर्शन के दौरान महात्मा गांधी ने बी अम्मा के साथ एक बैठक बुलाई और भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में महिलाओं का समर्थन प्राप्त करने के लिए उनकी सहायता माँगी।

उसी वर्ष, कलकत्ता में आयोजित भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और अखिल भारतीय मुस्लिम लीग के सत्रों को संबोधित करते हुए, उन्हेंने कहा कि पूर्ण स्वतंत्र केवल तभी प्राप्त की जा सकती है जब सभी धर्मों के भारतीय एकजुट होंगे। 1919 में खिलाफ़त और असहयोग आंदोलनों के दौरान बी अम्मा का योगदान वास्तव में प्रेरणादायक था। कई बैठकों में, वे खुले तौर पर घोषणा करती थीं कि, यह उनकी अभिलाषा है कि उनके देश के कुत्तों और बिल्लियों को भी अंग्रेज़ों की गुलामी ना करनी पड़े।

सरोजिनी नायडू, सरला देवी चौधरानी, बसंती देवी और बेगम हसरत मोहानी की मदद से बी अम्मा ने धन इकट्ठा किया, महिलाओं के लिए विशेष बैठकों का आयोजन किया, विदेशी सामान को छोड़ने के महत्व पर ज़ोर दिया और साथ ही साथ स्थानीय वस्त्रों को बढ़ावा दिया। उन्होंने, बाल गंगाधर तिलक द्वारा स्वतंत्रता संग्राम के लिए स्थापित, तिलक स्वराज निधि के लिए भी कई भारतीयों को प्रतिबद्ध होने के लिए प्रेरित किया।

1924 में अबादी बानो बेगम का निधन हो गया। उन्होंने, बूढ़े और जवान, सभी भारतीयों पर अपनी गहरी छाप छोड़ी। उनकी मृत्यु के छियसठ साल बाद पाकिस्तानी सरकार ने उनके सम्मान में एक डाक टिकट जारी करके स्वतंत्रता की लड़ाई में उनके योगदान को भी मान्यता दी। 28 सितंबर, 2012, को बी अम्मा की याद में, नई दिल्ली के जामिया मिलिया इस्लामिया संस्थान के एक छात्रावास का नाम उनके नाम पर रखा गया।

उनके लेख एक ऐसी मजबूत और साहसी महिला और माँ की देशभक्ति की भावना, और संपूर्ण प्रतिबद्धता का प्रतीक हैं, जो भारत की स्वतंत्रता लिए अपने बेटों द्वारा जीवन का बलिदान देने के लिए तैयार थीं।

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अबादी बानो बेगम अपने बेटों, मौलाना मोहम्मद अली जौहर और मौलाना शौकत अली, के साथ

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बी अम्मा कन्या छात्रावास, जामिया मिलिया इस्लामिया, नई दिल्ली