तारा रानी श्रीवास्तव
भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में, जीवन के सभी क्षेत्रों से और देश के कोने-कोने से, विभिन्न लोगों ने भाग लिया। हालाँकि, ऐसे असंख्य लोगों के उदाहरण हैं, जिन्हें या तो बिलकुल अनदेखा कर दिया गया है या वे इतिहास की किताबों में, केवल एक पादटिप्पणी (फ़ुटनोट) बनकर रह गए हैं। ऐसी ही एक कहानी है, तारा रानी श्रीवास्तव की।
तारा रानी श्रीवास्तव का जन्म बिहार में पटना के पास सारण ज़िले में, एक साधारण परिवार में हुआ था। अल्पायु से ही वे तत्कालीन भारतीय स्वतंत्रता संग्राम से प्रेरित थीं। 13 साल की उम्र में उनका विवाह फुलेंदु बाबू से हुआ, जो पहले से ही स्वतंत्रता संग्राम से जुड़े हुए थे। उनके विवाह ने देशभक्ति के उनके जुनून को और बढ़ावा दिया, और वे उन परंपराओं को अनदेखा करने लगीं, जिनकी एक दुल्हन से समाज अपेक्षा करता था। हालाँकि, तारा रानी एक ऐसे समुदाय में रहती थीं, जहाँ महिलाओं को अपने घरों से बाहर निकलने नहीं दिया जाता था, परंतु वे गांधीजी के स्वतंत्रता संग्राम के बारे में जागरूकता बढ़ाने के लिए, समान विचारधारा वाली महिलाओं को एकत्रित करने में कामयाब रहीं। उन्होंने आस-पास के गाँवों की महिलाओं को भी अंग्रेज़ी शासन के विरुद्ध अपनी आवाज़ उठाने के लिए प्रेरित किया। उनके प्रयास रंग लाए और वे ग्रामीण महिलाओं के लिए, एक प्रेरक शक्ति के रूप में उभर कर सामने आईं। भारत छोड़ो आंदोलन में हिस्सा लेने के लिए कई महिलाओं को प्रेरित करने में उन्होंने एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।
भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान, फुलेंदु बाबू, गांधीजी के आह्वान पर, पुरुषों और महिलाओं की भारी भीड़ को एकत्रित करने में सफल रहे, जो सीवान पुलिस स्टेशन पर राष्ट्रीय ध्वजारोहण के साक्षी बने। नवविवाहित जोड़ा, तारा रानी और फुलेंदु, सबसे आगे खड़े होकर अंग्रेज़ी शासन के विरुद्ध नारे लगा रहे थे। एकत्र भीड़ को हटाने के लिए, पुलिस ने लाठीचार्ज का सहारा लिया तथा गोलियाँ चलाईं। उसके बाद हुई अफ़रा-तफ़री में, फुलेंदु पुलिस की गोलियों का शिकार हो गए। इसके बावजूद तारा रानी डटी रहीं। बड़े साहस के साथ, उन्होंने फुलेंदु के घावों पर पट्टी बाँधी और फिर राष्ट्रीय ध्वज के साथ, पुलिस थाने की ओर चल पड़ीं। ऐसी थी उनकी देशभक्ति की भावना। वे हर उस कार्य को पूरा करने का दृढ संकल्प करती थीं, जिसका उन्होंने निश्चय किया हो। ऐसा कहा जाता है कि जब तक तारा रानी वहाँ लौटीं, जहाँ उनके पति को गोली लगी थी, तब तक उनके पति की मृत्यु हो चुकी थी। हालाँकि, वे एक दुल्हन थीं और एक रूढ़िवादी समुदाय से थीं, तारा रानी ने अपना आत्मसंयम बनाए रखा और अपने पति के मरने के बावजूद, अपनी देशभक्ति को कायम रखा। उन्हें एक विधवा के जीवन से जुड़े कलंक की समझ थी, और उनके सामने आने वाली सभी रुकावटों के बावजूद, उन्होंने भारत के स्वतंत्रता संग्राम में तब तक लगातार भाग लिया, जब तक अंततः 15 अगस्त 1947 को, भारत को स्वतंत्रता प्राप्त नहीं हो गई।
तारा रानी श्रीवास्तव एक बहादुर महिला थीं, जिन्होंने अपने प्रियतम को खोने के बाद भी, संकल्प का एक प्रशंसनीय प्रदर्शन किया। वे महिलाओं के उन समूहों में से हैं जो साधारण थीं और रूढ़िवादी परिवारों से थीं, जिन्होनें बिना किसी औपचारिक शिक्षा के, अंग्रेज़ी शासन का विरोध करते हुए कई बलिदान दिए और अपने देश की स्वतंत्रता के लिए अपने प्राण भी न्योछावर कर दिए। इस बात में कोई शक नहीं है कि उन्होंने देश की आज़ादी के लिए, कई व्यक्तिगत बाधाओं के बावजूद भी लड़ाई नहीं छोड़ी। हमें इन चेहरों को गुमनामी से बाहर निकालकर, अपने स्वतंत्रता आंदोलन के महत्वपूर्ण स्तंभों के रूप में सम्मानित करना चाहिए।