मेजर दुर्गा मल्ल
लंबे समय से गोरखा समुदाय हमारे देश के सैन्य इतिहास से जुड़ा हुआ है। इसी समुदाय के मेजर दुर्गा मल्ल की कहानी अद्भुत है, क्योंकि उन्होंने 31 साल की छोटी सी उम्र में ही देश के लिए अपने प्राणों की आहुति दे दी थी। वे 01 जुलाई 1913 को देहरादून (उत्तराखंड) में डोईवाला नामक एक छोटे से गाँव में जन्मे थे। उनके पिता गंगा राम मल्ल थे जो सेना में गोरखा राइफ़ल्स में जेमादार थे (वर्तमान में नायब सूबेदार)। दुर्गा मल्ल बचपन में एक श्रमिक, समर्पित और उज्ज्वल छात्र थे।
वे उन कविताओं से बहुत प्रभावित हुए जिन्होंने उन्हें अंग्रेज़ी शासन के अधीन दयनीय परिस्थितियों के बारे में सूचित किया। वे देहरादून और सत्याग्रह के प्रमुख गांधीवादी स्वतंत्रता सेनानियों से इस हद तक प्रेरित थे कि जब गांधीजी ने 'नमक नियम' के उल्लंघन का आह्वान किया और 1930 में दांडी मार्च का आरंभ किया, तब मल्ल ने स्थानीय अंग्रेज़ी विरोधी गतिविधियों में भाग लिया। वे अक्सर रात में अपने दोस्तों के साथ स्वतंत्रता संग्राम के पोस्टर चिपकाने के लिए गोरखा बटालियन क्षेत्र में प्रवेश करते थे, एवं स्वतंत्रता सेनानियों के जुलूसों में शामिल हुआ करते थे। गांधीजी के दृष्टिकोण से उनमें देशभक्ति की भावना उत्पन्न हुई और वे एक स्वतंत्र भारत की कल्पना करने लगे।
1931 में केवल 18 वर्ष की उम्र में वे गोरखा राइफ़ल्स के 2/1 बटालियन में भर्ती हो गए। प्रशिक्षण में उनके उत्कृष्ट प्रदर्शन को देखते हुए उन्हें शीघ्र ही सिग्नल हवलदार के पद पर पदोन्नत कर दिया गया। 1941 में, द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान, जब जापानी आक्रमण और उग्र हो गया था, गोरखा राइफ़ल्स की 2/1 बटालियन को रणभूमि की ओर बढ़ने का आदेश दिया गया । परंतु मित्र देशों की सेनाओं को दक्षिण पूर्व एशिया में जापानी सेना द्वारा बुरी तरह पराजित कर दिया गया था। इससे भारतीय सैनिकों के एक समूह को विश्वास हो गया कि अंग्रेज़ों के लिए लड़ाई लड़ने का कोई फ़ायदा नहीं।
1942 में इन सैनिकों ने गोरखा राइफ़ल्स छोड़कर नेताजी सुभाष चंद्र बोस के नेतृत्व में भारतीय राष्ट्रीय सेना (आईएनए) का गठन किया। आईएनए के निर्माण में दुर्गा मल्ल ने एक प्रमुख भूमिका निभाई थी। यह आईएनए में उनकी उपस्थिति ही थी, जिसके कारण गोरखा बटालियन के उनके साथी भी उसमें शामिल हुए। भारत की स्वतंत्रता के लिए उनके जोश और समर्पण के कारण उन्होंने मेजर का पद अर्जित किया।
आसूचना शाखा में तैनात होने के कारण उन्हें अक्सर बर्मा की सीमा के पहाड़ी इलाकों में रणनीतिक महत्व के क्षेत्रों के बारे में जानकारी इकट्ठा करने के लिए गुप्त अभियान पर जाना पड़ता था। 27 मार्च 1944 को वे दुश्मन के शिविर के बारे में जानकारी एकत्र कर रहे थे, जिस दौरान वो पकड़े गए और उन्हें मणिपुर के उखरूल में गिरफ़्तार कर लिया गया। मुकदमे से पहले उन्हें लाल किले के कारागार में एक युद्धबंदी के रूप में रखा गया, और 25 अगस्त 1944 को मौत की सज़ा सुन दी गई।
ऐसे समय में जब अंग्रेज़ी सरकार विरोध के सभी रूपों का क्रूरता से दमन कर रही थी, तब मेजर दुर्गा मल्ल को अधिकारियों द्वारा राजद्रोह का आरोप स्वीकार करने के लिए कहा गया। अधिकारीयों ने उन्हें आश्वासन दिलाया कि यह आरोप स्वीकार करने पर उनकी सज़ा माफ़ कर दी जाएगी। परंतु भारत की स्वतंत्रता पाने के अपने दृढ़ संकल्प के कारण वे किसी भी दबाव के आगे नहीं झुके। उन्होंने कहा कि इससे अच्छा तो वे फाँसी पर चढ़ना पसंद करेंगे। फाँसी पर चढ़ने से पहले उनके अंतिम कुछ शब्द थे, "मेरा बलिदान व्यर्थ नहीं जाएगा। भारत आज़ाद होगा..."
भारत सरकार ने शहीद दुर्गा मल्ल वीरता और निस्वार्थ बलिदान को सम्मानित करने के लिए संसद भवन में उनकी एक प्रतिमा स्थापित की है। उनकी पुण्यतिथि को, देश भर में गोरखाओं द्वारा बालिदान दिवस के रूप में मनाया जाता है।