यू तिरोत सिंग सियम
खासी की पहाड़ियों का योद्धा
खासी की पहाड़ियों के नायक यू तिरोत सिंग सियम का जन्म 1802 में खासी पहाड़ियों के नोंगखलाव क्षेत्र के प्रमुख कबीले सिमिलेह में हुआ था। वे अपनी युद्ध रणनीति, वीरता एवं अंग्रेज़ी शासन के विरुद्ध खासी क्षेत्र के दृढ नियंत्रण के लिए प्रसिद्ध हैं।
यान्डाबू की संधि के बाद, जिसपर आंग्ल-बर्मी युद्ध के लगभग दो साल बाद हस्ताक्षर किए गए थे, अंग्रेज़ों के लिए ब्रह्मपुत्र घाटी में प्रवेश करने का मार्ग खुल गया था। पर गलती कहाँ हुई? इस संधि के बाद एक और आंग्ल-बर्मी युद्ध क्यों हुआ?
यह कहानी 19वीं शताब्दी में शुरू होती है जिस दौरान अंग्रेज़ों ने आखिरकार ब्रह्मपुत्र घाटी में घुसने का रास्ता ढूँढ निकाला था। डेविड स्कॉट, एक ब्रिटिश अधिकारी, असम और सूरमा घाटी के बीच संपर्क स्थापित करना चाहते थे। उनकी यह उम्मीद थी कि इन रास्तों के ज़रिए ब्रिटिश व्यापार में वृद्धि होगी। लगभग 230 किमी लंबा यह मार्ग मेघालय से होकर गुज़रने वाला था। उस समय मेघालय कई छोटे राज्यों में बँटा हुआ था और इसका संचालन संवैधानिक रूप से चुने गए मुखिया करते थे। इन्हीं में से एक थे यू तिरोत सिंग सियम, जो नोंगखलाव के संवैधानिक मुखिया थे। वे एक दूरदर्शी व्यक्ति थे जिन्होंने सदैव अपने समुदाय की तरक्की के लिए काम किया। जब उन्हें इस प्रस्ताव के बारे में बताया गया, तो तिरोत को लगा कि इससे उनके समुदाय को बहुत फ़ायदा होगा और इसलिए उन्होंने तुरंत अपनी मंज़ूरी दे दी।
अपनी पुस्तक, ‘द हिस्ट्री ऑफ़ असम’ में एडवर्ड गेट लिखते हैं कि 1829 की शुरुआत में, जब इस रास्ते का निर्माण हो रहा था, तो एक कर्मचारी ने तिरोत सिंग को इस योजना को लेकर अंग्रेज़ों के असली मंसूबों के बारे में बताया, कि जैसे ही यह परियोजना पूरी होती है, वे कर लगाकर इस क्षेत्र को अपने कब्ज़े में कर लेंगे। तिरोत सिंग ने डेविड स्कॉट और अन्य लोगों की एक बैठक बुलाई, जिसमें उन्होंने अपनी चिंताओं का वर्णन करते हुए अंग्रेज़ों से अनुरोध किया कि वे नोंगखलाव छोड़कर चले जाएँ। परंतु अंग्रेज़ों ने तिरोत सिंग की बात पर बिल्कुल ध्यान नहीं दिया। इस कारण खासी लोगों को ऐसा लगा कि उनके साथ धोखा हुआ है, और उनका भरोसा तोड़ा गया है। अपनी पुस्तक 'ग्लिम्प्स इन्टु द हिस्ट्री ऑफ़ असम’, शिलॉन्ग 1996' में प्रोफ़ेसर पी एन दत्ता लिखते हैं कि 8 अप्रैल 1829 को, तिरोत सिंग ने अंग्रेज़ी अधिकारियों के एक छोटे समूह पर हमला करके उन्हें मार डाला। इस घटना के बाद वाले चार वर्षों को आज आंग्ल-खासी युद्ध के रूप में जाना जाता है, जिसमें तिरोत सिंह ने खासी पहाड़ियों में अंग्रेज़ी सेनाओं के खिलाफ़ बहादुरी से लड़ाई लड़ी थी। इस युद्ध में अंग्रेज़ी तोपों के विरुद्ध तिरोत सिंग ने तलवारों, तीरों और गुरिल्ला रणनीतियों से औपनिवेशिक ताकतों का सामना किया।
लेकिन 9 जनवरी 1833 को तिरोत सिंग को अंग्रेज़ों के सामने आत्मसमर्पण करना पड़ा। उन्हें ढाका भेजकर, ढाका सेंट्रल जेल में कैद कर दिया गया। 17 जुलाई 1835 को ढाका के कारावास में उनका देहांत हो गया। मेघालय में तिरोत सिंग गुफ़ाएँ आज एक प्रमुख पर्यटक आकर्षण हैं। मैरांग क्षेत्र में स्थित ये गुफ़ाएँ पर्यटकों को उस समय की युद्ध रणनीतियों से वाकिफ़ कराती हैं। ये वहीं गुफ़ाएँ हैं जहाँ तिरोत सिंग ने अपने सहयोगियों के साथ गुप्त बैठकें की थी तथा उनके और उनके साथियों की तलाश कर रहे अंग्रेज़ों को चकमा दिया था। 17 जुलाई का दिन मेघालय में यू तिरोत सिंग दिवस के रूप में मनाया जाता है। 1954 में, शिलांग-मैरांग-नोंगस्टोइन और नोंगखलाव-मैरांग रोड के संधि स्थल पर एक स्मारक का उद्घाटन किया गया।