पार्वती गिरी
"पश्चिमी ओडिशा की मदर टेरेसा" के नाम से प्रसिद्ध, पार्वती गिरी का जन्म 19 जनवरी 1926 को ओडिशा के बरगढ़ ज़िले के समलाईपदार गाँव में हुआ था। उस समय ओडिशा में राष्ट्रवादी भावनाओं की लहर चल रही थी और समलाईपदार गाँव राजनीतिक गतिविधियों का केंद्र था। ब्रिटिश शासन का सामना करने के लिए बैठक कर रहे और रणनीति बना रहे प्रमुख कांग्रेसी नेताओं में पार्वती के चाचा रामचंद्र गिरी भी शामिल थे। जब पार्वती छोटी थीं, तब अक्सर वे अपने चाचा के साथ इन बैठकों में जाती थीं, जहाँ वे उन विचारों और चर्चाओं से बहुत प्रेरित हुईं। ये सत्र, राष्ट्र के स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल होने के उनके निर्णय के पीछे की प्रेरणा थे। वर्तमान में उन्हें न केवल भारत के स्वतंत्रता संग्राम में उनके अनुकरणीय योगदान के लिए, बल्कि एक आदर्श समाज सुधारक के रूप में भी याद किया जाता है।
हालाँकि पार्वती उच्च शिक्षा ग्रहण करना चाहती थीं, लेकिन उन्होंने 11 साल की उम्र में ही स्कूल छोड़ दिया और कांग्रेस कार्यकर्ताओं की स्थानीय सभा के साथ काम करना शुरू कर दिया। वे जागरूकता फैलाने और कांग्रेस का प्रचार करने के लिए गाँव-गाँव गईं। उनके समर्पण और सराहनीय कार्य से प्रभावित होकर, कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं ने पार्वती के पिता से अनुरोध किया कि उन्हें कांग्रेस के संगठनात्मक कार्य में शामिल होने की अनुमति दी जाए। इस प्रकार, 1938 में, उन्होंने घर छोड़ दिया और स्वतंत्रता संग्राम के लिए काम करना शुरू कर दिया। उन्होंने बुनाई और हस्तशिल्प बनाने की कला और सामाजिक कार्यों के महत्व को सीखा। उन्होंने गांधीवाद को जीवन शैली के रूप में अपनाया और उनके कार्यों में यह हर जगह प्रतिबिंबित भी हुआ।
1940 में, जब सत्याग्रह शुरू हुआ, तो उन्होंने सभाओं का आयोजन करना शुरू कर दिया और गांधीजी के खादी आंदोलन में भाग लेने के लिए गाँवों में लोगों को प्रेरित किया। उन्होंने लोगों को चरखे पर कताई करने और खादी पहनने के लिए राज़ी किया। इसके बाद, जब भारत छोड़ो आंदोलन शुरू हुआ, तो पार्वती गिरी जो उस समय बहुत छोटी थीं, आंदोलन में अन्य नेताओं के साथ शामिल हो गईं। हाथ में तिरंगा लिए, उन्होंने ब्रिटिश-विरोधी नारे लगाते हुए रैलियों में भाग लिया और ब्रिटिश सत्ता के प्रति अपना प्रबल विरोध दिखाने से कभी नहीं हिचकिचाईं। कहा जाता है, कि वे बरगढ़ न्यायालय तक गईं और वकीलों को न्यायालय खाली करने का आदेश दिया। वे चाहती थीं कि भारतीय वकील, कानूनी मामलों में ब्रिटिश अधिकारियों का सहयोग करना बंद कर दें। जिन्होंने उनकी बात नहीं मानी, उन्हें उनकी कायरता के प्रतीक के रूप में दो चूड़ियाँ भेंट की गईं। एक और उल्लेखनीय घटना तब हुई जब पार्वती और तीन अन्य लड़के बरगढ़ में एसडीओ के कार्यालय पहुँचे। वे न्यायाधीश की तरह एसडीओ की कुर्सी पर बैठ गईं। एसडीओ को कार्यालय में प्रवेश करते देख उन्होंने अन्य लड़कों को यह आदेश दिया कि वे एक अपराधी की तरह उसे रस्सी से बाँधकर उनके सामने लाएँ। उनके इस उपद्रवी और दबंग कार्य के लिए उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया और दो साल के लिए जेल में डाल दिया गया।
अंग्रेजों के प्रति उनका निडर रवैया, उस करुणा और समर्पण के बिल्कुल विपरीत था, जिसके साथ उन्होंने लोगों के कल्याण के लिए काम किया। 1951 में जब ओडिशा में अकाल पड़ा तो उन्होंने राहत कार्य की ज़िम्मेदारी उठाई और गंभीर रूप से पीड़ित लोगों की मदद की। उन्होंने जेलों की स्थितियों में सुधार और कुष्ठ रोग के उन्मूलन के लिए भी अथक प्रयास किए। निराश्रित लोगों के प्रति उनकी उदारता और भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका के लिए, वे "पश्चिमी ओडिशा की मदर टेरेसा" के रूप में लोकप्रिय हुईं। उनकी तन्यकता, महत्वाकांक्षी राष्ट्रवादी भावनाओं और स्वतंत्र अभिव्यक्ति के लिए उन्हें "बन्ही कन्या" भी कहा जाता था।
सामाजिक कार्यों की तरफ़ उनके समर्पण के लिए, पार्वती को 1984 में भारत सरकार के समाज कल्याण विभाग द्वारा एक पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। 1988 में उन्होंने संबलपुर विश्वविद्यालय से डॉक्टरेट की मानद उपाधि भी प्राप्त की।
17 अगस्त 1995 को लंबी बीमारी के बाद पार्वती गिरी का निधन हो गया।