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बीना दास
1911 to 1986

Lokanayak Omeo Kumar Das Image source: Wikimedia commons

1940 के दशक में बीना दास

24 अगस्त 1911 को बंगाल में जन्मी बीना दास एक ऐसे परिवार में पली-बढ़ीं, जहाँ उनके माता-पिता सामाजिक कार्यकर्ता थे और ब्रह्म समाज से जुड़े हुए थे, जबकि उनके भाई स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय रूप से शामिल थे। जब वे एक बच्ची थीं, तभी से वे राष्ट्रवाद की बढ़ती लहर, और स्वदेशी तथा क्रांतिकारी साहित्य से प्रभावित रहीं। सुभाष चंद्र बोस उनके पिता के छात्र थे और अक्सर उनसे मिलने आते थे, और उनके विचारों ने युवा बीना को प्रेरित किया। अपने स्कूल के दिनों से ही, उन्होंने अंग्रेजों के प्रति अपनी नाराजगी को छिपाने का कोई प्रयास नहीं किया। एक बार अंग्रेज़ वायसरॉय की पत्नी उनके स्कूल आईं, और छात्रों से कहा गया कि वे उनके चरणों में फूल बिखेरकर उनका स्वागत करें। बीना ने महसूस किया कि यह अपमानजनक है, और उन्होंने अपना विरोध जताने के लिए, वे त्रस्त भाव से पूर्वाभ्यास छोड़कर चली गईं। उस दिन, उन्होंने देश की आजादी के लिए अपने प्राणों की आहुति देने का संकल्प ले लिया।

साइमन कमीशन के कार्यों से उत्पन्न आक्रोश का देश पर व्यापक प्रभाव पड़ा। 1920 के दशक के अंत तक, कई युवा छात्र, विशेष रूप से महिलाएँ (छात्राएँ), स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल हो गईं और उन्होंने विरोध और प्रदर्शनों में सक्रिय रूप से भाग लिया। इसी दौरान बेथ्यून कॉलेज में पढ़ रही बीना दास ने अपने महाविद्यालय में विरोध प्रदर्शन का आयोजन किया। वे अपनी बहन कल्याणी दास द्वारा शुरू की गई छात्राओं की एक सोसाइटी, छत्री संघ, में शामिल हो गईं, जिसमें महिला सदस्यों को बुनियादी आत्मरक्षा और लाठियों का उपयोग करना सिखाया जाता था।

बीना अपने संस्मरण में लिखती हैं, "बंगाल के युवा आगे आए... घातक हथियारों और आँखों में विद्रोह की आग के साथ, वे मौत को मात देने वाले अभिमान के साथ उभरे ... इसका उद्देश्य अत्याचारी को उसके अत्याचारों के बारे में अवगत कराना था।" बीना दास ने महसूस किया कि खुले तौर पर रैलियों और हड़तालों में भाग लेने और सक्रिय रूप से धन और सदस्यों को इकट्ठा करने के लिए काम करने के बजाय, उनके लिए भूमिगत आंदोलन में शामिल होने का यह सही समय था। वे बेथ्यून कॉलेज से डायोसीसन कॉलेज में स्थानांतरित हो गयीं। स्वतंत्रता के लिए उनकी लड़ाई भूमिगत हो गई क्योंकि वे और उनके समकालीन "करेंगे या मरेंगे" जैसे नारों से प्रेरित थे, जो एक ऐसा मंत्र था, जिसने बंगाल के युवाओं को 1942 में (करो या मरो) यह नारा बनने से बहुत पहले ही प्रेरित कर दिया था।

ऐसी ही एक घटना में, जब उन्हें पता चला कि बंगाल के राज्यपाल उनके आगामी स्नातक समारोह में शामिल होने जा रहे हैं, तो उन्होंने सोचा कि यह उनके लिए अपना विरोध दिखाने का एक उपयुक्त अवसर होगा। उन्होंने अपनी कॉमरेड कमला दासगुप्ता को अपनी मंशा बताई और उनसे एक रिवॉल्वर लाने को कहा। बीना दास अपने कार्यों के परिणाम से अच्छी तरह अवगत थीं और इसके बावजूद वे कृतसंकल्प और दृढ़ बनी रहीं। 6 फरवरी 1932 को कलकत्ता विश्वविद्यालय के भीड़भाड़ वाले दीक्षांत समारोह हॉल में, उन्होंने सर स्टेनली जैक्सन, जो उस समय दर्शकों को संबोधित कर रहे थे, पर 5 गोलियाँ चलाईं। हालाँकि राज्यपाल को मारने का उनका प्रयास विफल रहा, लेकिन उनके इस साहसी कार्य ने राष्ट्र पर एक अमिट छाप छोड़ी। उन्हें नौ साल के कारावास की सजा सुनाई गई, जिसके दौरान उन्हें कठोर यातनाओं से गुजरना पड़ा, पर उन्होंने अपने सहयोगियों के नामों का कभी खुलासा नहीं किया। कई साल जेल में रहने के बाद भी वे पीछे नहीं हटीं। अपनी रिहाई के बाद, वे कलकत्ता में कांग्रेस कमेटी में शामिल हो गईं और उन्होंने भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान विभिन्न हड़तालों और विरोध प्रदर्शनों का आयोजन किया, जिसके कारण उन्हें फिर से जेल में डाल दिया गया।

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युवा बीना दास

Lokanayak Omeo Kumar Das Image source: Wikimedia commons

‘रीडिंग ईगल’ अखबार की एक कतरन जिसमें बीना दास के हमले का समाचार है।

बीना दास उस समय की सबसे निडर क्रांतिकारियों में से एक थीं। उन्होंने अपना जीवन राष्ट्र की स्वतंत्रता के लिए समर्पित कर दिया था। उन्होंने बंगाल की कई युवतियों को आगे आने के लिए प्रेरित किया। उनके निस्वार्थ योगदान के लिए, उन्हें 1960 में पद्म श्री से सम्मानित किया गया। 26 दिसंबर 1986 को उनका निधन हो गया था।