प्रीतिलता वाद्देदार
“इंकलाब जिंदाबाद”, “बहनों से एक अपील ... महिलाओं ने आज दृढ़ संकल्प लिया है कि वे पीछे नहीं रहेंगी। अपनी मातृभूमि की आज़ादी के लिए, वे हर कार्य में अपने भाइयों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़ी रहने को तैयार हैं, चाहे वह कितना भी कठिन अथवा भयानक हो… मैं निडरतापूर्वक स्वयं को एक क्रांतिकारी घोषित करती हूँ।” जब पुलिस को पहाड़तली यूरोपियन क्लब के बाहर प्रीतिलता वाद्देदार का शव मिला था, तब उनकी कमीज में ये हस्तलिखित शब्दों वाले पर्चें दबे पाए गए थे।
5 मई 1911 को चटगाँव (वर्तमान बांग्लादेश) में जन्मी, प्रीतिलता वाद्देदार क्रांतिकारी गतिविधियों में भाग लेने के लिए अस्र-शस्र उठाने वाली पहली महिलाओं में से एक थीं। साम्राज्यवादी शासन के विरुद्ध उनका क्रोध, कम उम्र से ही, उनके अंदर साफ दिखाई देने लगा था, क्योंकि वे उनके द्वारा पढ़े गए क्रांतिकारी साहित्य से प्रभावित थीं और वे देश के स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय रूप से भाग लेने वाली महिलाओं की भी साक्षी थीं। कॉलेज के समय में ही वे दीपाली संघ, में सम्मिलित हो गईं थीं, जो एक क्रांतिकारी समूह था जिसमें महिलाओं को युद्ध प्रशिक्षण प्रदान किया जाता था और उन्हें राजनीतिक रूप से जागरूक बनाया जाता था।
बाद में, जब वे अपनी उच्च शिक्षा के लिए कलकत्ता गईं, तो वे सूर्य सेन के नज़दीकी संपर्क में आईं। वे उनके दल, भारतीय क्रांतिकारी सेना (इंडियन रेवोल्यूशिनरी आर्मी/आईआरए), की चटगाँव शाखा में सम्मिलित होने की इच्छुक थीं। परंतु, इस पुरुष-प्रधान संगठन में जगह पाना उनके लिए आसान नहीं था, क्योंकि आम धारणा थी कि महिलाओं के पास विकट परिस्थितियों में आवश्यक वांछित साहस और धैर्य नहीं होता है। प्रीतिलता और उनकी कॉमरेड कल्पना दत्त को अपनी क्षमताओं और इस उद्देश्य के प्रति प्रतिबद्धता को साबित करने के लिए कठिन प्रशिक्षण से गुजरना पड़ा।
अप्रैल 1930 के चटगाँव शस्त्रागार छापे के बाद, जिसे आईआरए के सूर्य सेन और उनके सहयोगियों द्वारा अंजाम दिया गया था, पुलिस ने उन पर भारी कार्रवाई की। कई को पकड़ लिया गया और सजा सुनाई गई, जबकि बाकी भाग गए और भूमिगत हो गए। ऐसे समय में, जब पुरुष नेता प्रमुख संदिग्ध बन गए थे, तब महिला नेताओं को कार्यभार संभालना पड़ा था, और प्रीतिलता, जो आईआरए के बहादुराना कारनामों से प्रेरित थीं, ने यह चुनौती स्वीकार की और बहादुरी से अपने कर्तव्यों का निर्वहन किया। उन्हें महिलाओं को संगठित करने, जेल में बंद क्रांतिकारियों से भेष बदलकर जानकारी एकत्रित करने, क्रांतिकारी पर्चें बाँटने और और गुप्त रूप से बम की पेटियाँ एकत्र करने का काम सौंपा गया था। उन्होंने, कुशलतापूर्वक पुलिस से बचते हुए, ये सारे कार्य बड़ी सटीकता से किए।
यद्यपि क्रांतिकारी अभी भी छिपे हुए थे, परन्तु हमलों को अंजाम देने की योजना चल रही थी। 1932 में, उन्होंने पहाड़तली यूरोपीयन क्लब (यूरोपीय लोगों के लिए एक सामाजिक क्लब) पर हमला करने का फैसला किया। इस क्लब को मुख्य रूप से इसकी नस्लीय और भेदभावपूर्ण प्रथाओं के लिए चुना गया था। इसमें एक सूचना-पट्ट था जिस पर लिखा था “कुत्तों और भारतीयों को (अंदर आने की) अनुमति नहीं है”। प्रीतिलता, हालाँकि केवल 21 वर्ष की थीं, पर उनको 7-10 युवकों के एक दल का नेता बनाया गया, जिन्हें घेराबंदी करने के लिए प्रशिक्षित किया गया था। 23 सितंबर की रात को एक आदमी की तरह कपड़े पहने हुए उन्होंने साहसपूर्वक हमले का नेतृत्व किया। इसके दौरान होने वाली भीषण गोलीबारी में, उनके पैर में गोली लग गई, जिसके कारण वे भाग नहीं सकीं। आत्मसमर्पण करने के बजाय, उन्होंने साइनाइड की गोली खाने का निर्णय लिया और इस तरह वे शहीद हो गईं।
प्रीतिलता ने देश की आज़ादी के लिए अपने प्राणों की आहुति दे दी। जिस जोश से उन्होंने हमले को अंजाम दिया और शहादत को गले लगाया, उससे लोग, विशेष रूप से महिलाओं में जागृति पैदा हुई। अपने जीवन का अंत कर देने का उनका निर्णय, उनके द्वारा अपमान के जीवन के बजाय सम्मानजनक मृत्यु का चुनाव करना था।