के केलप्पन - केरल के गांधी
केरल के प्रमुख पुनर्जागरण नेताओं में से एक, के केलप्पन ने समाज सुधारक और स्वतंत्रता सेनानी होने के कारण राज्य पर एक अमिट छाप छोड़ी है। 24 अगस्त 1889 को कालीकट के एक छोटे से गाँव में जन्मे, केलप्पन ने दो लड़ाइयाँ लड़ीं - एक सामाजिक सुधारों के लिए और दूसरी अंग्रेजों के खिलाफ। इन आपत्तियों के बावजूद, उनके नज़रिये और उनके गैर-विवादी दृष्टिकोण के कारण उन्हें केरल के गांधी का नाम दिया गया।
19वीं सदी और 20वीं सदी की शुरुआत भारत के लिए एक बहुत बुरा दौर था। केलप्पन का एक शिक्षक के रूप में और फिर एक प्रधानाध्यापक के रूप में, प्रारंभिक व्यावसायिक जीवन तब समाप्त हो गया, जब उन्होंने गांधीजी के नेतृत्व वाले असहयोग आंदोलन का हिस्सा बनने का फैसला लिया। उसके बाद से, उन्हें कोई रोक न सका, और केलप्पन ने पय्यानूर और कालीकट नमक सत्याग्रहों का नेतृत्व किया और वे गांधीजी द्वारा शुरू किए गए व्यक्तिगत सत्याग्रह आंदोलन में केरल के पहले सत्याग्रही के रूप में चुने गए। 1932 में वायकॉम सत्याग्रह और गुरुवायुर सत्याग्रह ने केलप्पन को केरल के स्वतंत्रता संग्राम में सबसे आगे लाकर खड़ा कर दिया। 1942 में, उन्हें भारत छोड़ो आंदोलन में भाग लेने के लिए जेल में डाल दिया गया। भारत के स्वतंत्रता संग्राम में अपनी भूमिका के अलावा, उन्होंने समाज के दबे-कुचले लोगों के उत्थान के लिए भी प्रयास किए। उन्होंने अस्पृश्यता को मिटाने के लिए कड़ी मेहनत की और हरिजनों के उत्थान के लिए काम किया। उन्होंने केरल में कई हरिजन छात्रावास और स्कूल भी स्थापित किए। वे स्वदेशी आंदोलन में सबसे आगे थे और उन्होंने खादी और ग्रामोद्योग का विकास करने की पूरी कोशिश की।
भारत की स्वतंत्रता के लिए अपनी निस्वार्थ प्रतिबद्धता के अलावा, के केलप्पन की प्रमुख उपलब्धियों में से एक गुरुवायुर जनमत संग्रह है। 1920 के दशक के अंत में, गुरुवायुर मंदिर में प्रवेश के अधिकार को लेकर एक आंदोलन हुआ था। चूंकि उस समय निचली जातियों के मंदिर में प्रवेश पर प्रतिबंध लगा दिया गया था, केलप्पन ने इस प्रतिबंधित मंदिर प्रवेश के विरोध में एक आंदोलन का नेतृत्व किया, और उन्होंने अस्पृश्यता के उन्मूलन की भी माँग की। 1931 में इस प्रसिद्ध मंदिर के सामने केलप्पन के नेतृत्व में एक सत्याग्रह शुरू हुआ। केलप्पन के साथ पद्मनाभन, ए के गोपालन और एन पी दामोदरन जैसे कई अन्य नेता भी इसमें शामिल हुए। लगभग दस महीने तक यह आंदोलन चलता रहा, जिसके बाद, जब कोई प्रगति नहीं हुई तो केलप्पन ने 21 सितंबर 1932 को मंदिर के सामने अनशन शुरू कर दिया। अनशन ने उस माहौल में जान डाल दी। देश भर के नेताओं ने उनसे अनशन तोड़ने की याचना की और अंत में गांधी जी के कहने पर 02 अक्टूबर 1932 को केलप्पन ने अपना अनशन तोड़ दिया। मंदिर में प्रवेश के सवाल पर उनके विचार जानने के लिए हिंदुओं के बीच एक जनमत संग्रह कराया गया। यह जनमत संग्रह पोन्नानी तालुक में कराया गया था, जहाँ वह मंदिर स्थित है। जिस सटीकता के साथ इसे आयोजित किया गया था, और जनमत संग्रह में भाग लेनेवालों की संख्या, दोनों ऐतिहासिक थे। नियमित मंदिर जाने वालों में से 77 प्रतिशत से अधिक लोगों ने सभी के लिए मंदिर में प्रवेश के पक्ष में मतदान किया। हालाँकि इसके परिणामस्वरूप सभी हिंदुओं के लिए तुरंत गुरुवायुर मंदिर नहीं खोला गया, लेकिन इस पूरे आंदोलन ने देश में एक मजबूत जनमत बनाने में मदद की, जो सभी के लिए मंदिर में प्रवेश और अस्पृश्यता के उन्मूलन के पक्ष में था। 1946 में गुरुवायुर मंदिर को अंततः सभी जातियों के लिए खोल दिया गया। इस जनमत संग्रह ने सवर्णों और उच्च जाति समूहों के स्वामित्व वाले कई निजी मंदिरों के दरवाजे अपनी जाति या वर्ग के अलावा, बड़े पैमाने पर जनता के लिए खोलने का मार्ग प्रशस्त किया।
केलप्पन एक समाज सुधारक और स्वतंत्रता सेनानी थे, और नायर सर्विस सोसाइटी (एनएसएस) के संस्थापक सदस्य और अध्यक्ष के रूप में उनके सुधारवादी नज़रिये की आज भी सराहना की जाती है। स्वतंत्रता के बाद उन्होंने मलयालम भाषी लोगों की तीन रियासतों के एकीकरण में एक और प्रमुख भूमिका निभाई, जिसे अब हम केरल के रूप में जानते हैं। वे केरल में लगभग सभी गांधीवादी संगठनों के अध्यक्ष थे। इतिहास उन्हें एक ऐसे निस्वार्थ व्यक्ति के रूप में याद करता है जिन्हें कभी सत्ता या पद की चाह नहीं थी, जो गांधीजी के आदर्शों को कायम रखते थे और सेवक का जीवन व्यतीत करते थे। के केलप्पन का 07 अक्टूबर 1971 को निधन हो गया।