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कान्होजी आंग्रे

कान्होजी आंगरिया (आंग्रे) मराठा नौसेनाध्यक्ष थे, और 18वीं शताब्दी की शुरुआत में भारत में अपना पैर जमाने की कोशिश करने वाली समुद्री औपनिवेशिक शक्तियों से लोहा लेने लिए प्रसिद्ध हैं। उनका पराक्रम ऐसा था कि वे, सूरत से वेंगुर्ला तक, भारत के पश्चिमी तट के समुद्र के निर्विवाद स्वामी बन गए थे।

उनके परिवार के आधिकारिक इतिहास के अनुसार, कान्होजी जन्म से मराठा थे, और उनका पारिवारिक नाम ‘संकपाल’ था, जो बाद में उनके गाँव ‘अंगारवाड़ी’ के नाम पर आंगरिया अथवा आंग्रे में बदल गया था। उनके पिता तुकोजी, शिवाजी के अधीन सेवारत थे, और उनके नक्शेकदम पर चलते हुए कान्होजी भी मराठों की सेवा में सम्मिलित हो गए। 1698 में मराठा शासक, राजाराम, ने उन्हें मराठा नौसेना का नौसेनाध्यक्ष नियुक्त किया और उन्हें ‘सरखेल’ की उपाधि प्रदान की।

कान्होजी ने शिवाजी द्वारा स्थापित मराठा नौसेना का नेतृत्व किया। उन्होंने मराठा व्यापारियों को मालाबार में सक्रिय समुद्री लुटेरों से बचाने तथा मराठा राज्य के लिए समुद्र की संप्रभुता की रक्षा करने हेतु, अपने जहाजों का उपयोग किया। इन उद्देश्यों को पूरा करने हेतु, कान्होजी ने, अलीबाग के पास, कोलाबा नामक एक छोटे से द्वीप किले में सैन्य संचालन केंद्र स्थापित किया, और रत्नागिरी में सुवर्णदुर्ग और विजयदुर्ग में भी केंद्र स्थापित किए। उन्होंने विदेशी व्यापारियों को भारतीय समुद्र में प्रवेश करने के लिए प्रवेश-पत्र (पास) अथवा उनके द्वारा जारी अनुज्ञा-पत्र (लाइसेंस) खरीदने के लिए मज़बूर कर दिया। विदेशियों की ओर से किसी भी तरह की चूक होने पर उन्हें तुरंत दंड देने के रूप में, उनके नाविकों को पकड़ लिया जाता था और जहाजों को नष्ट कर दिया जाता था।

A young Maharaja Duleep Singh

आईएनएस आंग्रे प्रवेश द्वार, पश्चिमी नौसेना कमान, मुंबई। स्रोत: विकिमीडिया कॉमन्स

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शिवाजी चौक, अलीबाग, महाराष्ट्र, में सरखेल कान्होजी आंग्रे की प्रतिमा। स्रोत: विकिमीडिया कॉमन्स

उनके इस नियम ने उन्हें, बॉम्बे में अंग्रेज़ों, गोवा में पुर्तगाली, और वेंगुर्ला में डच जैसी औपनिवेशिक शक्तियों, के समक्ष, खुले संघर्ष में ला खड़ा कर दिया। 1718 में कान्होजी और अंग्रेज़ों के बीच युद्ध छिड़ गया। अंग्रेज़ों ने कोलाबा की ओर कई सैन्य अभियान दल भेजे, लेकिन इनमें से कोई भी सफल नहीं हुए। फिर अंग्रेज़ों और पुर्तगालियों की संयुक्त सेना ने दिसंबर 1721 में उनके विरुद्ध आक्रमण शुरू किया। यह अभियान भी असफ़ल हो गया क्योंकि कान्होजी ने उन्हें युद्ध और कूटनीति दोनों के माध्यम से हरा दिया। वे न केवल अपने किले और अन्य आंतरिक केंद्रों की प्रतिरक्षा करने में, बल्कि पिलाजी जाधव के नेतृत्व में, मराठा सेना को अपनी सहायता हेतु बुलाने में भी सफल रहे।

20 जून 1729 को, अपराजित, अद्वितीय और अप्रतिम, कान्होजी, का निधन हो गया। उनका पराक्रम ऐसा था कि जब वे अपने प्रतिद्वंद्वियों से लड़ रहे होते थे, तब भी उनके प्रतिद्वंद्वी देशों के नागरिक, कान्होजी द्वारा जारी किए गए प्रवेश-पत्रों को खरीदना जारी रखते थे। अंग्रेज़ लेखक, ग्रोस, ने उनके बारे में लिखते हुए कहा कि भले ही कान्होजी ‘अपने आदेशों में बहुत सख़्त थे, और दंड देने में चौकस’ थे, फिर भी ‘वे अपने अधिकारियों और सैनिकों के प्रति उदार थे, जिनके साथ उन्होंने एक प्रकार की सैन्य स्पष्टवादिता बनाए रखी थी’, और एक सच्चे मराठा के रूप में, वे ‘वचन निभाने के लिए प्रतिबद्ध थे’।

भारत के इस नायक को श्रद्धांजलि अर्पित करने हेतु, मुंबई में पश्चिमी नौसेना कमान के तटाधारित रसद और प्रशासनिक सहायता प्रतिष्ठान का, 15 सितंबर, 1951 को, ‘आईएनएस आंग्रे’ नाम रख दिया गया।