अक्कम्मा चेरियन - त्रावणकोर की झाँसी की रानी
"मैं नेता हूँ; दूसरों को मारने से पहले मुझे गोली मारो।" अक्कम्मा चेरियन ने इन शब्दों को तब कहा था जब 1938 में वे कर्नल वॉटसन के सामने इतनी निडरता, जुनून और धैर्य के साथ खड़ी हुईं थीं कि उसे अपना आदेश वापस लेने के लिए मजबूर होना पड़ा और इस तरह एक बड़ा नरसंहार टाला गया। 1909 की ओर लौटें, जब अक्कम्मा चेरियन का जन्म कांजीरापल्ली, त्रावणकोर (वर्तमान केरल), में एक छोटे से गाँव में हुआ था। पेशे से शिक्षिका होते हुए भी उनका असली सपना अपने देश को आजाद देखना था। इसलिए, उन्होंने भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल होने के लिए अपनी प्रतिष्ठित नौकरी छोड़ दी।
वे जिस राज्य की रहने वाली थीं, उस राज्य में स्वतंत्रता संग्राम का नेतृत्व मुख्य रूप से त्रावणकोर राज्य कांग्रेस कर रही थी। त्रावणकोर राज्य कांग्रेस के नेतृत्व में त्रावणकोर के लोगों ने एक सार्वजनिक प्रदर्शन करने का फैसला किया। त्रावणकोर के दीवान ने अपनी विवेकाधीन शक्तियों का उपयोग करते हुए अगस्त 1938 में आंदोलन को दबा दिया। इसने सविनय अवज्ञा आंदोलन को जन्म दिया, जो केरल में अपनी तरह का पहला आंदोलन था। पार्टी के नेताओं को कैद कर लिया गया, और आंदोलन छिन्न-भिन्न हो गया। ऐसा कहा जाता है कि पार्टी के अध्यक्ष ने गिरफ्तारी से ठीक पहले, अकम्मा चेरियन को अपने उत्तराधिकारी के रूप में नामित किया क्योंकि उन्होंने पाया कि वे एक साहसी, दिलेर और प्रतिभाशाली महिला थीं। अकम्मा चेरियन ने एक विशाल रैली का आयोजन किया जिसका उद्देश्य जेल में बंद नेताओं को रिहा करने और त्रावणकोर में एक जिम्मेदार सरकार स्थापित करने के लिए, शासकों पर दबाव बनाना था। अक्कम्मा, जो उस समय मुश्किल से 29 वर्ष की थीं, अपनी आत्मकथा, ‘जीवथम: ओरु समारम’ (लाइफ: ए प्रोटेस्ट) में लिखती हैं, "मैं इस कार्य की गंभीरता से अवगत थी और जानती थी कि इसके परिणाम क्या हो सकते हैं, फिर भी मैंने स्वेच्छा से यह काम किया।" ऐसा कहा जाता है कि बहादुर अक्कम्मा के नेतृत्व में हुए विरोध प्रदर्शन में 20,000 से अधिक लोग शामिल हुए थे। देश भर में लोगों ने उनके अदम्य साहस के लिए उनकी प्रशंसा की और गांधीजी ने उन्हें 'त्रावणकोर की झाँसी की रानी' की उपाधि दी।

प्रतिभाशाली अक्कम्मा चेरियन

तिरुवनंतपुरम में अक्कम्मा चेरियन पार्क
अक्टूबर 1938 में, अक्कम्मा को पार्टी द्वारा ‘देससेविका संघ’ (महिला स्वयंसेवी दल) को संगठित करने का काम सौंपा गया। उन्होंने देश भर में अथक यात्रा की और महिलाओं से ‘देससेविका संघ’ के सदस्य के रूप में शामिल होने की अपील की। उनके अथक प्रयासों से स्थानीय निकायों में महिला स्वयंसेवकों की संख्या में वृद्धि हुई। 24 दिसंबर 1939 को, उन्होंने त्रावणकोर राज्य कांग्रेस के वार्षिक सम्मेलन में भाग लिया, जिसके लिए उन्हें एक साल के कारावास की सजा सुनाई गई। उन्हें जेल में परेशान किया गया, उनसे मौखिक रूप से दुर्व्यवहार किया गया और उन्हें प्रताड़ना दी गई। जेल से रिहा होने के बाद, वे एक पूर्णकालिक पार्टी कार्यकर्ता बन गईं और फिर पार्टी की अध्यक्ष बनीं। अपने अध्यक्षीय भाषण में, उन्होंने 1942 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के बॉम्बे अधिवेशन में पारित भारत छोड़ो प्रस्ताव का स्वागत किया। अक्कम्मा को प्रतिबंध के आदेशों का उल्लंघन करने और विरोध प्रदर्शन करने के लिए कई गिरफ्तारियों का सामना करना पड़ा। लेकिन इससे भी वे अपने लक्ष्य से विचलित न हो सकीं।
स्वतंत्रता के बाद, वे 1947 में त्रावणकोर विधान सभा के लिए चुनी गईं, और 1967 में सक्रिय राजनीति छोड़ने के बाद, उन्होंने स्वतंत्रता सेनानियों के पेंशन सलाहकार बोर्ड के सदस्य के रूप में कार्य किया। अपनी आत्मकथा में उन्होंने, अपने जीवन का सार प्रस्तुत करते हुए लिखा…..
"शेक्सपियर ने कहा है कि दुनिया एक मंच है और सभी पुरुष और महिलाएँ महज कलाकार हैं;" लेकिन मेरे लिए, यह जीवन एक लंबा विरोध है - मेरा विरोध - रूढ़िवाद, अर्थहीन कर्मकांड, सामाजिक अन्याय, लैंगिक भेदभाव, बेईमानी के विरुद्ध है, या किसी भी चीज के विरुद्ध है जो कि अन्यायपूर्ण है...जब मैं ऐसा कुछ देखती हूँ, तो मैं अंधी हो जाती हूँ, यहाँ तक कि मैं यह भी भूल जाती हूँ कि मैं किससे लड़ रही हूँ…!
अक्कम्मा चेरियन का 05 मई 1982 को निधन हो गया।