सेनापति बापट
पांडुरंग महादेव बापट भारत के एक ऐसे स्वतंत्रता सेनानी थे जो क्रांतिकारी और गांधीवादी जैसी विविध विचारधाराओं के विशिष्ट संयोजन के लिए जाने जाते हैं। आज, उन्हें पर्यावरण संरक्षक और ‘सार्वजनिक स्वच्छता’ के समर्थक के रूप में भी याद किया जाता है।
12 नवंबर 1880 को अहमदनगर जिले के पारनेर में एक निम्न-मध्यम वर्गीय परिवार में जन्मे, बापट ने उच्च शिक्षा के लिए पुणे के डेक्कन कॉलेज में प्रवेश लिया। यहीं पर वे चापेकर क्लब के सदस्य, दामोदर बलवंत भिड़े, के संपर्क में आए, जिन्होंने बापट को क्रांतिकारी आंदोलन के बारे में अवगत कराया। 1904 में, मंगलदास नाथूभाई छात्रवृत्ति प्राप्त करने के बाद, बापट एडिनबरा के हैरियट-वॉट-कॉलेज में अभियांत्रिकी (इंजीनियरिंग) की पढ़ाई करने के लिए इंग्लैंड चले गए। वहाँ वे समाजवादी और रूसी क्रांतिकारियों के साथ साथ वी.डी. सावरकर के संपर्क में भी आए। सावरकर की सलाह पर, बापट बम बनाने की तकनीक सीखने के लिए पेरिस चले गए।
एक ‘बम मैनुअल’ और दो पिस्तौलों से लैस, बापट 1908 में भारत लौटे। उन्होंने भारतीय क्रांतिकारियों के बीच बम बनाने के ज्ञान को प्रचारित किया। बापट अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष शुरू करने से पहले एक देशव्यापी तंत्र बनाना चाहते थे, लेकिन, उनकी सलाह पर ध्यान नहीं दिया गया।
1908 में अलीपुर बम कांड हुआ और बापट को भूमिगत होना पड़ा। परंतु, वे पुलिस से बच नहीं सके और 1912 में गिरफ़्तार हो गए, तथा उन्हें 3 साल की कैद हुई। 1915 में रिहा होने पर, उन्होंने तिलक के समाचार पत्र, ‘मराठा’, के सहायक संपादक के रूप में कार्य करना शुरू कर दिया।

1977 में, सेनापति बापट के नाम से जारी किया गया डाक टिकट। चित्र स्रोत: विकिमीडिया कॉमन्स

नागपुर में सेनापति बापट की अर्धप्रतिमा। चित्र स्रोत: विकिमीडिया कॉमन्स
1920 के दशक में, बापट गांधी द्वारा प्रचारित स्वराज की पद्धतियों और दर्शन के प्रति आकर्षित हो गए। इसके परिणामस्वरूप, उन्होंने, किसानों की भूमि और आजीविका को नुकसान पहुँचाने वाले, पुणे में टाटा कंपनी द्वारा निर्माण किए जाने वाले बाँध, के विरोध में, 1921 से 1923 तक, मुलशी सत्याग्रह का नेतृत्व किया। यह उनका बाँध विरोधी सत्याग्रह ही था जिसके कारण उन्हें ‘सेनापति’, अर्थात ‘कमांडर’, की उपाधि दी गई।
मुलशी सत्याग्रह के कारण उनकी गिरफ़्तारी हुई और बाद में उन्हें लगभग सात साल की कैद हुई। 1931 में जेल से रिहा होने पर, उन्हें महाराष्ट्र प्रदेश कांग्रेस समिति (एमपीसीसी) का अध्यक्ष बनाया गया। 1939 में, उन्होंने हैदराबाद सत्याग्रह में भाग लिया। उन्होंने सार्वजनिक स्थानों की सफाई का अभियान भी शुरू किया और स्वयं सड़कों पर झाडू लगाई।
15 अगस्त 1947 को स्वतंत्रता दिवस के दिन, बापट ने पहली बार पुणे शहर में भारतीय राष्ट्रीय ध्वज फहराया। परंतु, स्वतंत्रता का अर्थ उनके राजनीतिक जीवन का अंत नहीं था क्योंकि उन्होंने गोवा के मुक्ति आंदोलन और संयुक्त महाराष्ट्र आंदोलन में भाग लिया।
यद्यपि बापट, कोई बड़ा राजनैतिक आलेख लिखने के लिए नहीं जाने जाते हैं, परंतु उन्होंने पर्चों, पत्रों, बयानों और निबंधों के माध्यम से अपने राजनीतिक विचार व्यक्त किए। उन्होंने अपने विचारों को व्यक्त करने के लिए काव्य का भी उपयोग किया और, ‘चैतन्य गाथा’, ‘गीता-हृदय’, ‘गीता सेवक’ जैसे काव्य, और मराठी, हिंदी, अंग्रेज़ी तथा संस्कृत में कई अन्य कविताओं की रचना की।
श्रद्धांजलि के रूप में, मुंबई और पुणे शहर की एक-एक सड़क का नाम उनके नाम पर रखा गया है। 1977 में, उनके नाम पर डाक टिकट भी जारी किया गया।