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वारंगल का किला: तेलंगाना के शौर्य का प्रवेश द्वार

वर्तमान तेलंगाना राज्य में स्थित, वारंगल, की प्राचीनता, इसे भारत के उत्तम धरोहर वाले शहरों में से एक बनाती है। काकतीय वंश के शासकों द्वारा निर्मित, यहाँ के शानदार स्मारक, इस स्थान के महत्व में उल्लेखनीय योगदान प्रदान करते हैं। शहर के पूर्वी किनारे पर स्थित वारंगल किला, काकतीय लोगों की समृद्धि, भव्यता और शक्ति की भरपूर व्याख्या करता है। किले और वारंगल शहर की ऐतिहासिक विरासत का अटूट संबंध है।

General View of the Warangal Fort, Image Source: Archaeological Survey of India

वारंगल किले का सामान्य दृश्य, छवि स्रोत: भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण

उद्भव

वारंगल शहर के उदय के दिलचस्प वृत्तांत स्थानीय अभिलेखों में पाए जा सकते हैं। किंवदंती है कि एक दिन एक मालवाहक गाड़ी हनुमाकोंडा (काकतीय राजवंश की पहले की राजधानी) को जा रही थी कि एक चट्टान से जा टकराई और पलट गई। इसकी धुरी, जो लोहे से बनी थी, उस चट्टान के संपर्क में आई और तुरंत सोने में तब्दील हो गई। समकालीन काकतीय शासक, प्रोल II ने घटनास्थल का दौरा किया और पाया कि चट्टान से एक लिंग निकल आया है। उन्होंने उस लिंग को घेरते हुए एक मंदिर बनवाया जो बाद में स्वयंभू के नाम से जाना जाने लगा। रुद्रदेव, प्रोल के पुत्र और उनके उत्तराधिकारी, के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने ओरुगल्लु (वारंगल का पूर्व नाम) नामक शहर का निर्माण कराया था और अपने शासनकाल के दौरान एक महत्वपूर्ण केंद्र के रूप में उसका इस्तेमाल किया था। रुद्रदेव के भतीजे और महान काकतीय शासकों में से एक, गणपति देव ने 1252 और 1254 ईस्वी के बीच राजधानी को हनुमाकोंडा से वारंगल में स्थानांतरित कर दिया। उनके उत्तराधिकारी, रुद्रमा देवी और प्रताप रुद्र देव उस शहर से शासन करते रहे।

रुद्रमा देवी: एक शूरवीर रानी

वारंगल के किले के विकास पर कोई भी ऐतिहासिक लेख शायद रानी रुद्रमा देवी पर चर्चा के बिना अधूरा है, जो कि सबसे प्रख्यात काकतीय शासकों में से एक थीं। वह राजा गणपति देव के यहाँ पैदा हुई थीं और उनका नाम रुद्रम्बा था। 13वीं शताब्दी में मार्को पोलो ने काकतीय साम्राज्य का दौरा किया और उनके शासन के बारे में विस्तार से लिखा। राजा गणपति देव के बाद उनके पास सिंहासन संभालने के लिए कोई पुत्र नहीं था। एक पुरुष उत्तराधिकारी की अनुपस्थिति में, उन्होंने अपने वारिस और काकतीय सिंहासन के उत्तराधिकारी के रूप में अपनी सबसे बड़ी बेटी रुद्रमा देवी को चुना। परंतु, अभिजात्य वर्ग के लोग इस बात के घोर विरोधी थे। उन्होंने गणपति देव को एक विशेष पुत्रिका समारोह आयोजित करने के लिए मजबूर किया, जिसमें पुत्र की अनुपस्थिति में, एक आदमी अपनी पुत्री को "पुरुष वारिस" के रूप में नियुक्त कर सकता था। इसके बाद रुद्रमा देवी को उनका पुत्र घोषित किया गया और उनका नाम रुद्र देव रखा गया। रुद्रमा देवी के काकतीय सिंहासन पर बैठने पर झगड़े और विरोध प्रदर्शन हुए। देवगिरि के यादवों, कलिंग के गंगों और तमिलनाडु के पांड्यों जैसे कुछ लड़ाकू पड़ोसी, उन्हें एक कमजोर शासक मानते थे। परंतु, उन्होंने डटकर चुनौतियों का सामना किया और यह साबित कर दिया कि वे पुरुष उत्तराधिकारी से कुछ कम नहीं थीं। उन्होंने यादव राजा महादेव को हराया और आक्रमणकारी यादव सेना को देवगिरी से बाहर निकाल फेंका। इस महत्वपूर्ण जीत के बाद, उन्होंने राय-गज-केसरी की उपाधि धारण की, जिसका अर्थ है "हाथी राजाओं पर शासन करने वाला शेर", और वारंगल के स्वयंभु मंदिर में एक स्मारक मंडप का निर्माण किया, जिसमें खुद को एक ऐसी स्त्री योद्धा के रूप में दर्शाया, जो दुर्गा देवी की उग्र छवि को उद्घाटित करते हुए, हाथ में तलवार और ढाल के साथ एक शेर पर सवार थीं। इसके बाद उन्होंने कई नए उद्यम शुरू किए, जिसमें वारंगल किले के निर्माण को पूरा करना शामिल था, जिसका निर्माण उनके पिता ने आरंभ किया था। उन्होंने उस किले में दूसरी दीवार और खंदक को जोड़कर किले की सुरक्षा को मजबूत किया, जिससे यह अविश्वसनीय रूप से ठोस और अभेद्य हो गया। उनकी केवल बेटियाँ ही थीं और इसलिए उन्होंने अपने पोते, प्रताप रुद्र देव को, अपने बेटे और सिंहासन के उत्तराधिकारी के रूप में, गोद ले लिया।

Statue of Rani Rudrama Devi, Image Source: Wikimedia Commons

रानी रुद्रमा देवी की मूर्ति, छवि स्रोत: विकिमीडिया कॉमन्स

वास्तुकला

वारंगल किले का निर्माण 13वीं शताब्दी में गणपति देव के शासनकाल में शुरू हुआ था। ऐसा माना जाता है कि गणपति देव ने एकशिला नामक पहाड़ी पर ईंटों से बने मौजूदा ढांचे की जगह वारंगल के पत्थर के किले का निर्माण किया था। उनके बाद, उनकी पुत्री रानी रुद्रमा देवी और उनके पोते प्रताप रुद्र देव ने किले में महत्वपूर्ण संरचनाएँ जोड़ीं। हालाँकि यह किला अब खंडहर में बदल चुका है, फिर भी रूपांकन, मूर्तियाँ, और पत्थर की नक़्क़ाशी सभी कुछ काकतीय लोगों के आकर्षक शिल्प कौशल और तेजस्वी कलात्मकता की झलक प्रदान करते हैं।

वारंगल की किलेबंदी प्रमुख रूप से राजा गणपति देव और रानी रुद्रमा देवी द्वारा की गई थी, जबकि राजा प्रतापरुद्रदेव ने इसमें सुधार किए थे। उन्होंने शहर को महलों, बगीचों और फव्वारों से भी सजाया। किलेबंदी को तीन संकेंद्रित परिपथों में विभाजित किया जा सकता है। पहली या अंतरतम दीवार, विशाल ग्रेनाइट पत्थर के खंडों से बनी है और यह चार प्रधान बिंदुओं पर प्रवेश द्वारों के साथ 1.2 किमी व्यास की है। इन पत्थरों को गारे (मोर्टार) के उपयोग के बिना एक संगठित आकृति में रखा गया था, जो काकतीय कारीगरों की वास्तु विशेषज्ञता का प्रतिबिंब है। शुरुआत में गणपति देव द्वारा निर्मित इस किलेबंदी को बाद में रानी रुद्रमा देवी द्वारा बढ़ाया गया। यह एक चौड़ी खाई से घिरा हुआ है। इसका 45 भीमकाय बुर्जों द्वारा बचाव सुरक्षित है, जो दीवार से बाहर की तरफ और खाई की ओर प्रक्षिप्त हैं। 18 पत्थर की सीढ़ियों सहित, एक हल्की ढलान वाला मिट्टी का ढालू रास्ता (रैंप) इस दीवार के भीतरी ओर के परकोटे तक ऊपर जाता है। किले के भीतर विभिन्न स्थानों तक पत्थर की सीढ़ियों द्वारा पहुँचा जाता था। दूसरी दीवार, एक मिट्टी की संरचना है, जिसका व्यास 2.4 किमी था, और इसका निर्माण भी रानी रुद्रमा देवी ने किया था। दीवार का अंतिम घेरा, जिसके अंदर आज का वारंगल जिला स्थित है, का निर्माण मिट्टी से किया गया था और इसका व्यास 12.5 किमी है।

Ornamental Pillars inside the Warangal Fort, Image Source: Archaeological Survey of India

वारंगल किले के आंतरिक सजावटी स्तंभ, छवि स्रोत: भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण

वारंगल किले के चार द्वार काकतीय कला थोरनम या "शौर्य का प्रवेश द्वार" की योजना में बनाए गए थे, जिसके तहत एक एकल चट्टान से एक उत्कृष्ट मेहराब बनाया जाता है। ये चार द्वार कभी 12वीं शताब्दी में निर्मित महान स्वयंभूदेव (शिव मंदिर) के हिस्से थे। इस अलंकृत मेहराब को काकतीय राजवंश के शाही प्रतीक के रूप में अपनाया गया था। आज, इसे तेलंगाना के आधुनिक राज्य के प्रतीक के रूप में आधिकारिक तौर पर शामिल किया गया है।

Kakatiya Kala Thoranam, Image Source: Archaeological Survey of India

काकतीय कला थोरनम, छवि स्रोत: भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण

चार तोरण द्वार सहित स्वयंभु मंदिर, तथा रामलिंगेश्वर और वेंकटेश्वर मंदिरों जैसी संरचनाओं के खंडहर किले के केंद्र में पाए जा सकते हैं। खुश महल - जिसे शितब खान महल के नाम से भी जाना जाता है (जोकि बहमनी शासन के तहत राज्यपाल रहे एक हिंदू प्रमुख सीतापति के नाम पर रखा गया है) - के बारे में कहा जाता है कि इसे तुगलक शासनकाल के दौरान बनाया गया

स्वयंभु मंदिर परिसर के खंडहरों में पड़ी मूर्तियों की बीच स्तंभों के दीवारगीर (ब्रैकेट) भी मौजूद हैं, जिन पर गज-केसरी रूपांकनों का निरूपण हुआ है। इस रूपांकन में एक महिला को किसी योद्धा का साफ़ा पहने और एक खंजर एवं ढाल पकड़े हुए दिखाया गया है। वह एक शेर पर बैठी है, और वह शेर खुद एक हाथी की सूंड पर खड़ा दिखाया गया है। माना जाता है कि यह योद्धा रानी रुद्रमादेवी है। जैसा कि पहले चर्चा की गई है, यह राय-गज-केसरी की अवधारणा का एक मूर्त चित्रण है, जिसका अर्थ होता है "हाथी राजाओं पर शासन करने वाला शेर"।

किले के मध्य में स्थित है स्वयंभुदेवी अलयम, जो कि धरती माता को समर्पित एक मंदिर है। कहा जाता है कि क़ुतब शाही राजाओं ने इस मंदिर की स्थापना की थी। यह अपनी जटिल नक्काशीदार मूर्तियों के लिए जाना जाता है। किले के परिसर के भीतर, भगवान शिव को समर्पित शंभुलिंगेश्वर मंदिर और एक खुली हवा में बना संग्रहालय अन्य प्रमुख आकर्षण हैं। काले बेसाल्ट पत्थरों पर आश्चर्यजनक रूप से उकेरी गईं मूर्तियाँ, सजावटी दरवाजें, जटिल आकृतियाँ और रूपांकन, किले की वास्तुशिल्पीय भव्यता को दर्शाती हैं।

वारंगल के किले में कई खंडहर हैं, खासकर इसके मध्य भाग में, जिसे एक पुरातात्विक क्षेत्र के रूप में नामित किया गया है। ये अवशेष किले की वास्तुकला और काकतीय युग के बारे में एक व्यापक अंतर्दृष्टि प्रदान करते हैं। स्तंभों और दीवारों पर मौजूद शिलालेख काकतीयों के शासनकाल के बारे में ज्वलंत वर्णन प्रदान करते हैं।

View of the Swayambhu Temple, Image Source: Archaeological Survey of India

स्वयंभु मंदिर का दृश्य, छवि स्रोत: भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण

काकतीय राजवंश का पतन

वारंगल किला मध्ययुगीन काल के दौरान इस क्षेत्र के राजनीतिक महत्व और आर्थिक समृद्धि का केंद्र था। इस किले की घेराबंदी इस ऐतिहासिक संरचना के सबसे चर्चित पहलुओं में से एक है। इस किले पर कई हमले हुए, जिनके परिणामस्वरूप इसका व्यापक रूप से विनाश हुआ। दक्कन क्षेत्र की समृद्धि ही ऐसी थी कि आक्रमणकारी उसे बार-बार लूटने के लिए आकर्षित होते थे। देवगिरी के यादवों ने कई बार आक्रमण करने के प्रयास किए लेकिन उन्हें हर बार ही पीछे हटा दिया गया। प्रताप रुद्र देव के शासनकाल के दौरान, दिल्ली के सुल्तानों की सेना ने हमला किया और किले को घेर लिया। दिल्ली के सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी ने 1309 में काकतीय साम्राज्य पर आक्रमण करने के आदेश के साथ अपने सेना प्रमुख मलिक काफ़ूर को दक्कन भेजा। मलिक काफ़ूर को काकतीय साम्राज्य का विध्वंस या विनाश करने के बजाय, दिल्ली के सहायक शासकों के विस्तार के दायरे में प्रताप रुद्र को एक अधीनस्थ सम्राट के रूप में शामिल करने का काम दिया गया था। दिल्ली की सेना द्वारा शहर की दीवारों के तोड़ डालने के बाद 1310 में प्रताप रुद्र देव ने शांति के लिए विनती की। मलिक काफ़ूर ने किले को लूटा और तहस-नहस कर दिया। इस आक्रमण के दौरान, मलिक काफ़ूर ने खिलजी वंश के लिए अमूल्य कोहिनूर हीरे को अधिगृहित कर लिया। कुछ उपाख्यानों के अनुसार, यह कोहिनूर हीरा 1310 तक वारंगल के काकतीय मंदिर में एक देवता की आंख के रूप में इस्तेमाल किया जाता रहा था। एक महीने बाद, मलिक काफ़ूर ने दिल्ली के लिए अपना कूच शुरू किया, और प्रताप रुद्र ने दिल्ली को कुछ वर्षों तक कर्त्तव्यनिष्ठा से बहुत बड़ा वार्षिक शुल्क अदा किया।

परंतु, 1318 में, राजा ने अपना वार्षिक शुल्क भेजने में लापरवाही कर दी। इसके फलस्वरूप, दिल्ली सुल्तान ने सेना प्रमुख खुसरो खान को अतिदेय भुगतान लेने के लिए भेजा। आक्रमणकारियों ने जल्द ही वारंगल की बाहरी दीवार के मुख्य बुर्ज पर कब्जा कर लिया। इसके बाद वे शहर के दुर्जेय और अंतरतम किलेबंदी की ओर आगे बढ़ने लगे। प्रसिद्ध कवि अमीर खुसरो के एक लेख के अनुसार, तेलुगु योद्धाओं द्वारा, सुल्तान की सेना के खिलाफ गढ़ की रक्षा हेतु किए गए इस युद्ध में, उन्हें उस समय की कुछ सबसे घातक और उन्नत सैन्य तकनीक का सामना करना पड़ा था।

1320 में दिल्ली में हुई एक राजनीतिक क्रांति ने खिलजी वंश को हटाकर तुगलक वंश को शासन थमा दिया, और प्रताप रुद्र ने इस अराजकता का लाभ उठाया और अपने वार्षिक शुल्क का भुगतान नहीं किया। इसके बाद, 1321 में तीसरी और अंतिम बार, मुहम्मद बिन तुगलक के अधीन उत्तरी सेना ने वारंगल पर फ़िर से आक्रमण किया और इस शहर को छह महीने के लिए घेराबंदी के अधीन कर दिया। मुहम्मद बिन तुगलक इस घेराबंदी को एक सफल अंजाम तक पहुँचाने में असमर्थ रहा और इसलिए देवगिरि की ओर पीछे हट गया। आराम करने और अपनी सेना को मजबूत करने के लिए देवगिरि में कई महीने बिताने के बाद, 1323 में मुहम्मद बिन तुगलक वारंगल पर आक्रमण करने के लिए वापस आ गया। इस बार, वारंगल में अनियंत्रित लूट और विध्वंस हुआ। काकतीय राजवंश का सफाया कर दिया गया और उनके क्षेत्रों को दिल्ली सल्तनत में मिला दिया गया।

Architectural structures inside the Warangal Fort, Image Source: ASI Archaeological Survey of India

वारंगल किले के अंदर की वास्तुशिल्पीय संरचनाएँ, छवि स्रोत: ए. एस. आई. भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण

काकतीय शासन के बाद का राजनीतिक विकास

अंतिम संग्राम में प्रताप रुद्र देव को पकड़ लिया गया और एक कैदी के रूप में दिल्ली ले जाया गया। रास्ते में नर्मदा नदी के किनारे उनकी मृत्यु हो गई। काकतीय साम्राज्य के पतन के बाद, किले और वारंगल शहर का काफी उथल-पुथल भरा इतिहास रहा। शहर का नाम सुल्तानपुर रख दिया गया। इसके तुरंत बाद, 1323 के युद्ध में बच गए प्रताप रुद्र देव के सेनापतियों और नायक शासकों ने एक साथ दल बनाया और लोगों को उत्तरी विजेताओं एवं शासकों के खिलाफ विद्रोह करने के लिए प्रेरित किया। कपाया नायक ने तेलिंगाना में विद्रोह उकसाया, वारंगल के मुसलमान राज्यपाल को बाहर निकाल दिया, और शहर पर नियंत्रण कर लिया। नव स्थापित बहमनी राज्य के सुल्तानों और नालगोंडा जिले में वेलामा राज्य के प्रमुखों ने इस नए राज्य का विरोध किया। 1368 में, वेलामाओं के साथ लड़ाई में कपाया नायक मारे गए और वारंगल राज्य को वेलामा साम्राज्य में जोड़ दिया गया। इसके तुरंत बाद, बहमनी सुल्तान, अहमद शाह ने वारंगल पर विजय प्राप्त की और उसे अपने राज्य में शामिल कर लिया। बाद में, उड़ीसा के गजपतियों ने भी इस शहर पर आक्रमण किया और इसको जीत लिया। इसके बाद, सीतापति या चितब खान नाम के एक हिंदू सरदार ने शहर पर अधिकार कर लिया, और फिर इस शहर ने उसके अधीन वैभव से परिपूर्ण संक्षिप्त अवधि का आनंद लिया। यह अंततः 16वीं शताब्दी की पहली तिमाही में सुल्तान कुली कुतुब शाह द्वारा स्थापित गोलकुंडा के कुतुब शाही राज्य में मिला लिया गया और बाद में हैदराबाद के निजाम ने स्वतंत्रता के समय तक इसको अपने नियंत्रण में रखा।

आज, काकतीय राजवंश द्वारा निर्मित अधिकांश शानदार संरचनाएँ खंडहर में तब्दील हो गयी हैं। फिर भी, ये इस क्षेत्र के गौरवशाली अतीत की याद दिलाती हैं और आधुनिक राज्य तेलंगाना को पहचान देती हैं। वारंगल का यह शानदार किला वर्तमान में यूनेस्को से विश्व धरोहर स्थल के दर्जे की मांग कर रहा है।

Ruins of the Warangal Fort, Image Source: Wikimedia Commons

वारंगल किले के खंडहर, छवि स्रोत: विकिमीडिया कॉमन्स