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मध्यकालीन भारत में वस्त्र व्यापार

हिंद महासागर पिछली दो सहस्राब्दीयों से सबसे पुराना और सबसे अधिक पारगम्य समुद्री मार्ग रहा है। यह गहन व्यावसायिक गतिविधियों के केंद्र के रूप में जाना जाता है। इतिहासकारों द्वारा, मार्गों का मानचित्रण और व्यापार या विनिमय में वस्त्रों के महत्व की रूपरेखा प्रस्तुत करने हेतु, हिंद महासागर के वस्त्र व्यापार का पूर्ण रूप से अध्ययन किया गया है।

मध्यकाल में वस्त्रों का उपयोग कुलीन और श्रमिक, दोनों वर्गों के द्वारा किया जाता था। वस्त्र न केवल परिधान प्रयोजनों के लिए उपयोग किए जाते थे, बल्कि उनकी उपहारों, अनुष्ठानों और पहचान के निर्माण के क्षेत्र में भी महत्वपूर्ण भूमिका थी।

मध्ययुगीन काल में, भारत को वस्त्रों का सबसे बड़ा और सबसे सफल उत्पादक माना जाता था। इस प्रकार, भारत लंबे समय तक हिंद महासागरीय वस्त्र व्यापार का केंद्र था। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर, भारत, अरब सागर के माध्यम से दक्षिण-पश्चिम एशिया और भूमध्यसागर क्षेत्र से, एवं बंगाल की खाड़ी के माध्यम से दक्षिण-पूर्व एशिया के साथ विशिष्ट रूप से व्यापार करता था। मध्ययुगीन काल में व्यापार के प्रसिद्ध केंद्र सूरत, बंगाल और मछलीपटनम हुआ करते थे।

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मध्ययुगीन काल में हिंद महासागर के व्यापार मार्ग। सूरत, मछलीपटनम और बंगाल प्रमुख निर्यात केंद्र थे। चित्र साभार: राष्ट्रीय पत्रकारिता कल्याण न्यास।

वस्त्र व्यापार ने बंगाल, सूरत और मछलीपटनम को विनिमय के एक जटिल समूह के केंद्र में स्थित कर दिया था। भारतीय वस्त्र जैसे कपास, छींट, मलमल और रेशम हिंद महासागर के चारों ओर के क्षेत्रों में अत्यधिक प्रतिष्ठित वस्तु बन गए। सूरत का बंदरगाह भारत को फ़ारस की खाड़ी और लाल सागर से जोड़ता था। सूरत के अलावा, भारत पूर्वी तट से भी व्यापार करता था, जहाँ कोरोमंडल तट पर मछलीपटनम और बंगाल में हुगली मुख्य बंदरगाह थे। मछलीपटनम और हुगली के बंदरगाहों ने दक्षिण पूर्व एशियाई क्षेत्रों के साथ व्यापार संबंधों को पोषित किया। मालाबार तट और, कोचीन, कालीकट, और कन्नूर जैसे इसके विभिन्न बंदरगाहों से, भारतीय व्यापारी अरब और चीन के लोगों के साथ व्यापार करते थे।

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पलंगपोश, छींट, यूरोपीय बाज़ारों के लिए निर्मित। चित्र स्रोत: विकिमीडिया कॉमन्स।

16वीं शताब्दी के आरंभ में, गुजरात क्षेत्र, व्यापार का प्रमुख केंद्र था। इस क्षेत्र से व्यापार की मुख्य वस्तुएँ कपास और रेशम थीं। गुजरात से व्यापार किए जाने वाले कुछ अन्य कपड़े थे बाफ़्ता (कैलिको), पटका (कमरपेटी), छींट और पटोला। सूरत का बंदरगाह ताप्ती नदी के पास स्थित था। यह एक व्यावसायिक केंद्र था जहाँ सुव्यवस्थित बंदरगाह और जहाज़-घाट थे। जहाज़ों को सुवाली रोड पर लंगर डाल कर ठहराया जाता था और माल को बैलगाड़ियों से सूरत तक ले जाया और वहाँ से लाया जाता था। सूरत का बंदरगाह माल के आदान-प्रदान का स्थान बन गया था, जहाँ मध्य भारत, दक्कन, कश्मीर और लाहौर जैसे क्षेत्रों से माल आता था।

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अनुशीर्षक: पटका (कमरपेटी), मध्य 17वीं शताब्दी, सूरत। सादा बुनाई, सोने और चाँदी के धागे की कढ़ाई। चित्र स्रोत: होनोलुलु म्यूज़ियम ऑफ़ आर्ट, विकिमीडिया कॉमन्स।

यूरोप और चीन से भी माल सूरत के बंदरगाह पर पहुँचता था। सूरत के बंदरगाह से निर्यात की जाने वाली वस्तु, जिसकी सबसे अधिक माँग थी, वह था कैलिको, जो सादा, बुना हुआ और मोटा सूती कपड़ा होता है, जिसका उपयोग पलंगपोश, पर्दे या वस्त्र बनाने के लिए किया जाता है। यूरोपीय, पश्चिम और दक्षिण एशियाई बाज़ारों में जिन अन्य वस्तुओं की माँग थी उनमें, रेशम, ज़रबफ़्त (सोने की ज़री वाला कपड़ा) और गुजरात का पटोला या दोहरे इकत वाला कपड़ा, शामिल थे। इकत कपड़े में, सुंदर और रंगीन डिजाईन बनाने के लिए, उसकी बुनाई से पहले, सूत को पहले रंगा जाता था। निम्नलिखित लेखा-चित्र, 1680 से 1700 की अवधि के दौरान, डच ईस्ट इंडिया कंपनी के गुजरात और कोरोमंडल तट से सूती वस्त्र के निर्यात में देखी गई तेज़ी को दर्शाता है।

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पालमपोर, 18वीं शताब्दी की शुरुआत, डच बाज़ार के लिए निर्मित। छपाई वाला और रंगा हुआ सूती कपड़ा। चित्र स्रोत: विकिमीडिया कॉमन्स। पालमपोर कैलिको/छींट होता है जो पलंगपोश, वॉल हैंगिंग्स, इत्यादि, के लिए उपयोग किया जाता है।

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छींट का टुकड़ा, 18वीं शताब्दी। चित्र स्रोत: विकिमीडिया कॉमन्स।

जैसे-जैसे वस्त्र व्यापार में वृद्धि होती गई, भारतीय वस्त्र निर्माण तकनीक के कुछ प्रभाव विदेशी वस्त्रों पर भी पाए जाने लगे। इसके अलावा, भारतीय कपड़ों को विदेशों में स्थानीय संस्कृति के अनुसार समावेशित किया गया। उदाहरण के लिए, उत्पादन की तकनीक, डिजाईन और, महत्वपूर्ण रूप से, कपड़े, के आधार पर, इंडोनेशिया के परिधान भारतीय मानकों से प्रभावित हुए। ऐसा ही एक कपड़ा था इकत। यह कपड़ा भारत और इंडोनेशिया दोनों में, कुछ भिन्नताओं के साथ, पाया जाता था।

इसी तरह, गुजरात से इंडोनेशिया पहुँचने वाले दोहरे इकत पटोला ने, विशेष रूप से, द्वीपसमूह के पूर्वी भागों में काफ़ी प्रभाव डाला। उदाहरण के लिए, इंडोनेशिया, विशेष रूप से जम्बी में, पेलांगी नामक विशिष्ट वस्त्र का, औपचारिक अवसरों पर उपयोग किया जाता था। पेलांगी बनाने की तकनीक भारत के बांधनी कपड़ा बनाने की तकनीक के समान है। दोनों वस्त्र आम तौर पर रेशम से बने होते हैं, जिसमें, रंगीन रूपांकन बनाने के लिए, कपड़े को जगह जगह पर बाँधा और सिला जाता है और फिर उसे रंगा जाता है।

गुजरात के क्षेत्र से निर्यात किए जाने वाले वस्त्रों की कुछ अन्य प्रमुख किस्में थीं, बाफ़्ता, कनगन (एक प्रकार का मोटा सूती कपड़ा), चेला, कैनीकन और टैफेचेला। व्यापारिक गतिविधि अंतर्राष्ट्रीय जल मार्गों तक ही सीमित नहीं थी। सूरत बंदरगाह के, मछलीपटनम और बंगाल के साथ, आंतरिक व्यापारिक संबंध भी थे।

देर मध्ययुगीन काल में मछलीपटनम गहन व्यापार का केंद्र बिंदु था। यह आँध्र तट के महत्वपूर्ण क्षेत्रों में से एक बन गया था क्योंकि यहाँ एक संपन्न बाज़ार विकसित हो गया था। इस प्रकार मछलीपटनम विभिन्न व्यापारिक समूहों जैसे गोलकुंडा के रईसों, यूरोपीय व्यापारियों, फ़ारसी व्यापारियों और तेलुगु भाषी कमाटियों के मध्य, तीव्र प्रतिस्पर्धा का बिंदु बन गया। परिणामस्वरूप, मछलीपटनम व्यापार के केंद्र के साथ-साथ वस्त्र व्यापार के इतिहास में सबसे महत्वपूर्ण बंदरगाहों में से एक बन गया।

कोरोमंडल तट की विशेषज्ञता छींट थी। इसे गोलकुंडा क्षेत्र में निर्मित किया जाता था और दुनिया भर में यह ‘मछलीपटनम छींट' के नाम से प्रसिद्ध था। विभिन्न यात्रियों ने छींट को रंगे हुए सूती कपड़े के रूप में वर्णित किया है, जिस पर विभिन्न चमकीले रंगों से, विभिन्न प्रकार के रूपांकनों को चित्रित किया जाता था। गोलकुंडा में मुख्य छींट उत्पादक क्षेत्र पल्लाकुलू, नरसापुर, अरमगाँव और निज़ामपटनम थे। निज़ामपटनम की छींट का फ़ारसीकरण कर दिया गया था क्योंकि इसके उपभोक्ता रईस मुसलमान शासक हुआ करते थे।

मुगलों और यूरोपीय लोगों के बीच भी छींट का कपड़ा लोकप्रिय था और इसकी बहुत ऊँची माँग थी। एक दिलचस्प किस्सा है कि एक बार, गोलकुंडा के क़ुतुब शाही वंश के संस्थापक, क़ुतुब-उल-मुल्क ने अली आदिल शाह (बीजापुर सल्तनत के सुल्तान) को बढ़िया छींट के पच्चीस थान उपहार के रूप में भेजे थे। यह कपड़ा फ़्रांस और इंग्लैंड को निर्यात किया जाता था। इसे चादर और अस्तर के कपड़े के रूप में फ़ारस भी भेजा जाता था। इस समय छींट में उपयोग किए जाने वाले प्रमुख रंगों में लाल, पीला, काला, गुलाबी, बैंगनी और हरा शामिल थे। कपड़े पर पुष्प रूपांकन बनाने के लिए इस्तेमाल किया जाने वाला उपकरण मुख्य रूप से कलम था। इस कला को कलमकारी कहा जाता था। छींट शब्द का उपयोग छपाई वाले (मुद्रित) सूती कपड़े के लिए भी किया जाता था। यह ध्यान रखना रोचक है कि, मछलीपटनम में उत्पादित छींट अपनी बनावट और सुंदरता के कारण इतनी बेहतर गुणवत्ता का होता था कि फ़्रांसीसी व्यापारी इसे प्राप्त करने के लिए ऊँची से ऊँची कीमत का भुगतान करने के लिए भी तैयार रहते थे।

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रूमाल, कलमकारी, सूती, लगभग 1640-50। चित्र स्रोत: मेट्रोपोलिटन म्यूज़ियम ऑफ़ आर्ट, विकिमीडिया कॉमन्स।

समय के साथ, मुगलों ने गोलकुंडा पर पूर्ण नियंत्रण स्थापित कर लिया। जब अंग्रेज़ों ने मद्रास को अपना केंद्र बनाया, तब मछलीपटनम के सुनहरे दिन ढल गए क्योंकि व्यापारियों ने भी अपनी गतिविधियों को और जगहों पर स्थानांतरित कर दिया। हालाँकि, बाद में मछलीपटनम के छींट कारीगरों के कौशल और विशेषज्ञता को मान्यता दी गई और औपनिवेशिक काल में इन्हें इनका उचित श्रेय प्राप्त हुआ।

सोलहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध तक, बंगाल भारत का एक प्रमुख कपड़ा निर्यात क्षेत्र था जहाँ चटगाँव, सोनारगाँव और बकला सूती माल के महत्वपूर्ण उत्पादन केंद्र थे। मलमल एक महत्वपूर्ण कपड़ा था जिसे भारत के भीतर और बाहर, दोनों, में पसंद किया जाता था। बहुत महीन और हल्का होने के कारण इसे एक उत्कृष्ट कपड़ा माना जाता था। मुगल सम्राटों ने भी मलमल को बेहद पसंद किया और इसकी महीन और हल्की बनावट के कारण इसे अब्रवान (बहता पानी), बफ्त हवा (बुनी हवा) और शबनम (शाम की ओस) जैसे नाम दिए। ढाका का मलमल विशेष रूप से प्रसिद्ध था। अबुल फ़ज़ल द्वारा आईन-ए-अकबरी में किए गए उल्लेख के अनुसार सोनारगाँव, बनारस, आगरा, मालवा, दक्कन, लाहौर, मुल्तान, बुरहानपुर और गोलकुंडा, मलमल शिल्प के अन्य केंद्र थे।

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राजकुमार दारा शिकोह और सुलेमान शिकोह महीन मलमल के चोगे पहने हुए। चित्र स्रोत: विकिमीडिया कॉमन्स।

पंद्रहवीं शताब्दी के प्रारंभ में, बंगाल में, दोनों, महीन और मोटे रेशम और कढ़ाई वाले रेशमी रूमाल जैसे विभिन्न कपड़ों का उत्पादन होता था। यह भी पाया गया कि चीन के रेशम की तुलना में बंगाल का रेशम काफ़ी सस्ता था। रेशम के अलावा, यहाँ कपास बहुतायत में उगाया जाता था। फ़ारस, यूरोप और दक्षिण-पूर्व एशिया जैसे क्षेत्रों के साथ बंगाली सूती कपड़ों का एक बड़ा व्यापार विकसित हुआ।

वास्को डा गामा ने एस्ट्रावेंटस नामक एक विशेष प्रकार के वस्त्र के बारे में बात की है और इसे एक बहुत ही पतले वस्त्र के रूप में वर्णित किया है, जो महिलाओं के बीच बहुत ही लोकप्रिय था और यह अवश्य ही मलमल रहा होगा। विभिन्न यात्रा वृत्तांतों में विभिन्न सूती कपड़ों का उल्लेख है, जैसे सीनाबाफ़ोस (एक महीन सफेद कपड़ा), चाहुनतर (चादर), बीटिलहास और बेईरम्स (कई रंगों वाला महीन सूती कपड़ा)। इस समय, बंगाल के मलमल का विक्रय थाईलैंड और चीन और मध्य पूर्व में किया जाता था। उस्मानियों द्वारा अपनी पगड़ियाँ बनाने के लिए मलमल का उपयोग करना अधिक पसंद किया जाता था। ढाका और श्रीपुर के पुर्तगाली व्यापारियों द्वारा इस कपड़े का व्यावसायिक रूप से और अधिक विस्तार किया गया।

भारतीय कपड़ों का दुनिया के व्यापार तंत्रों पर आधिपत्य था। उच्च गुणवत्ता के ढाका के मलमल से लेकर सूती कपड़ा, गुजरात का रेशम और मालाबार तट के कैलिको तक, विभिन्न प्रकार के कपड़े हुआ करते थे। इन वस्त्रों का थोक में उत्पादन करने और वाणिज्यिक केंद्र बनाने की भारत की क्षमता ने ही, विभिन्न केंद्रों को ‘औद्योगिक केंद्र’ बनने में सक्षम किया। पंद्रहवीं शताब्दी की अवधि, विश्व के साथ भारतीय वस्त्र व्यापार के विखंडन, की साक्षी रही।
इसके अलावा, 17वीं शताब्दी के आगमन के साथ, गुजरात और कोरोमंडल दो सबसे प्रमुख व्यापारिक केंद्रों के रूप में स्थापित हो गए। इंग्लिश ईस्ट इंडिया कंपनी और डच ईस्ट इंडिया कंपनी (वी.ओ.सी) द्वारा एशियाई व्यापार में प्रवेश करने पर समुद्री व्यापार को एक उच्च स्तर पर ले जाया गया। इन दो क्षेत्रों के दो प्रमुख वस्त्र, क्रमशः नील से रंगे कपड़े (इंडिगो कपड़ा) और सूती कपड़े, थे। निम्नलिखित लेखा-चित्र डच ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा गुजरात और कोरोमंडल बंदरगाह से निर्यात किए गए माल की संख्या दर्शाता है।

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डच ईस्ट इंडिया कंपनी का निर्यात अभिलेख, मध्य 17​​वीं शताब्दी। साभार: टेक्स्टाईल क्राफ्ट्स एंड ट्रेड इन इंडिया इन द १६थ एंड १७थ सेंचुरीज़, इशरत आलम।

सरखेज इंडिगो और बियाना इंडिगो, दो प्रकार के इंडिगो कपड़े थे जिनकी माँग बहुत अधिक थी। सोलहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में, इंडिगो कपड़ा गुजरात के सरखेज और जंबुसर से और कोरोमंडल में, मुख्य रूप से पुलिकट, कैंटीगन, थेंगापटनम और दत्तचेरन से, आता था। सत्रहवीं शताब्दी के अंत तक इंडिगो कपड़े की माँग में गिरावट आ गई।

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बैनर का एक टुकड़ा, 14वीं शताब्दी, सूती कपड़ा, साँचा छपाई वाला और रंगा हुआ, संभवतः नील से। छवि स्रोत: विकिमीडिया कॉमंस।

मध्यकाल के दौरान वस्त्र व्यापार का एक अन्य महत्वपूर्ण स्थान था अवध। परिवहन का सामान्य मार्ग आगरा के माध्यम से सूरत के बंदरगाह तक जाता था और सूरत से, वस्तुओं को विदेशों में भेजा जाता था। अवध से सूरत तक के मार्ग पर वस्त्रों का मुख्य बाज़ार आगरा था। इसलिए, आगरा चौड़े बाफ़्ता और मोटे बाफ़्ता जैसे कपड़ों की उपलब्धता के लिए एक प्रमुख बाज़ार के रूप में उभरा। सूत्रों के अनुसार, अवध के कपड़े की मुसलमान व्यापारियों के बीच बहुत माँग थी, जो फिर इस कपड़े का, कंधार के रास्ते कारवाँ मार्ग से, फ़ारस, अरब और तुर्की तक निर्यात करते थे। अवध के कुछ अन्य कपड़े थे, दरियाबाद और खैराबाद (अवध के कपड़ों की दो किस्में) और मर्कूल (एक प्रकार का चौड़ा बाफ़्ता)।

वस्त्र व्यापार ने व्यापारिक समुदायों को भी जन्म दिया जो हिंद महासागर में सबसे सक्रिय महत्वपूर्ण व्यापारिक समूहों में से एक बन गए। व्यापारिक समुदायों के बीच प्रसिद्ध व्यापारियों में से एक विरजी वोरा थे, जिन्होंने गुजरात क्षेत्र में अपना प्रभुत्व स्थापित किया था। वे जहाज़ों के विशाल बेड़ों के स्वामित्व के लिए जाने जाते थे। आज तक भारत में व्यापारिक समुदाय सेठ, वोरा, ब्योपारी या बनिक जैसे उपनामों से पहचाने जाते हैं। दक्षिण भारत में, चेट्टी (या चेट्टियार) व्यापारिक समुदाय का वर्चस्व था।